“मैं भी क्रिकेट खेलता था. सब कहते थे कि मेरे जैसा गेंदबाज दूर-दूर तक नहीं है. लेकिन मैं बहुत आगे तक नहीं खेल पाया. बहुत गरीबी थी. पैसे नहीं थे. लेकिन जब मैंने अपने दो साल के बेटे में भी क्रिकेट के जूनून को देखा तो मेरी उम्मीदें जाग गईं. मैंने बेटे से कहा, हमारे पास जुनून के आलावा कुछ भी नहीं. 11 साल के बेटे को मुंबई छोड़ आया. वो मैदान में बने कैंप में रहता था. उसे जब कोई तकलीफ होती थी तो हम पति-पत्नी रात-रात रोते थे.”
ये कहना है यशस्वी जायसवाल के पिता भूपेंद्र जायसवाल का. भदोही के सुरियावां बाजार में पेंट की छोटी सी दुकान चलाने वाले भूपेंद्र जायसवाल को आज लोग उनके बेटे की वजह से पहचान रहे हैं. और हो भी क्यों नहीं. उनके बेटे यशस्वी जायसवाल ने उनका ही नहीं, पूरे जिले का मान बढ़ाया है. श्रीलंका जाने वाली भारत की अंडर-19 टीम की जैसे ही घोषणा हुई, यशस्वी के घर लोगों का आना-जाना शुरू हो गया. लेकिन यशस्वी के लिए यहां तक उनका सफ़र बेहद मुश्किलों भरा रहा. उनके संघर्ष के साथी बने उनके पिता भूपेंद्र.
यशस्वी की छोटे शहर से निकलर टीम इंडिया तक पहुंचने की कहानी बहुत दिलचस्प और प्रेरणादायी है. यशस्वी जब 10 साल के थे तब उनके पिता उन्हें मुंबई लेकर जाते हैं. ताकि किसी अच्छे कोच की निगरानी में उनका खेल संवर सके. मुंबई के आजाद मैदान में जब भूपेंद्र यशस्वी को लेकर पहुचंते हैं तब उनके बेटे को इसलिए एडमिशन नहीं मिलता क्योंकि यशस्वी को खाना बनाने नहीं आता था. भूपेंद्र यशस्वी को लेकर उल्टे पांव भदोही लौट आते हैं और फिर यशस्वी को रसोई को बारीकी सिखाते हैं. यशस्वी बचपन में अपने घर के पीछे प्रेक्टिस किया करते थे.जहाँ आज भी प्लास्टर किया हुआ पिच मौजूद है. फ्लड लाइट लगे हैं. खिड़कियां टूटी हैं.
भूपेंद्र हमार पूर्वांचल को बताते हैं “आजाद मैदान में एक पपू सर थे. उन्होंने बताया कि कैंप में उन्हीं बच्चों को रखा जाता है जिसे रसोई का कुछ काम आता हो. फिर मैंने यशस्वी को खाना बनाना सिखाया. एक साल बाद फिर मुंबई गया. इस बार यशस्वी को कैंप में एंट्री मिल गई. चूंकि मुझे पैसे कमाकर हर महीने भेजने भी थे, इसलिए मैं भदोही लौट आया.”
यशस्वी उस कैंप में तीन साल रहते हैं. ठंडी के दिनों में तो कोई दिक्कत नहीं होती थी, लेकिन गर्मियों में उस कैंप में रहना बहुत मुश्किल होता है. गर्मी ज्यादा होने के कारण एक दिन यशस्वी खुले मैदान में सो जाते हैं, जहाँ उन्हें किसी कीड़े ने काट लिया. जिससे यशस्वी की तबियत भी ख़राब हो जाती है.
इस घटना का जिक्र करते हुए उनके पिता बताते हैं “मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं यशस्वी को कैंप इ आलावा कहीं रख सकूं. जब कीड़े की वजह से यशस्वी बीमार पड़ा तो मैं और उसकी मां बहुत रोये. फिर मैंने मुंबई के अपने दोस्त को देखने भेजा. मैं बस खाने के लिए ही पैसे भेज पाता था. कभी 1500 तो कभी 2000. बड़े बेटे को पैसे की तंगी के ही कारण मुंबई से वापस बुला लिया.”
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मुंबई जैसे शहर में 1500 और 2000 रुपए में क्या होता है. लेकिन यशस्वी ने हिम्मत नहीं हारी. आजाद मैदान में अक्सर कोई न कोई कार्यक्रम होता रहता था. इसे देखते हुए यशस्वी ने वहां फुलकी और फलों की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया. अंजुमन इस्लाम उर्दू हाई स्कूल में एडमिशन के बाद स्कूल की तरफ से खेलते हुए यशस्वी ने जब 319 रन बनाकर 13 विकेट लिया तब क्रिकेट जगत में उनकी मजबूत उपस्थिति दर्ज हो गई.
स्कूल क्रिकेट की तरफ से ये वर्ल्ड रिकॉर्ड है, इसे लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जगह मिली. और अब यशस्वी से प्रभावित होकर हाल ही में सचिन तेंदुलकर ने हाल ही में उन्हें अपने घर बुलाया और एक बैट भी उपहार में दिया. यशस्वी के साथ सचिन के बेटे अर्जुन का भी चयन भी अंडर-19 टीम में हुआ है.
यशस्वी के खेल से प्रभावित होकर ज्वाला स्पोर्ट्स फाउंडेशन के संचालक ज्वाला सिंह ने उन्हें कोचिंग देने का फैसला दिया. उनके कोच ज्वाला सिंह ने हमार पूर्वांचल को बताया “मैंने जब पहली बार यशस्वी को देखा तो समझ गया कि ये लड़का आगे चलकर अच्छा ऑलराउंडर बनेगा. आज यशस्वी बाएं हाथ का अच्छा मिडिल ऑर्डर बल्लेबाज तो है ही रेगुलर राइट हैंड लेग स्पिनर भी है.” ज्वाला सिंह आगे बताते हैं ” मैं भी क्रिकेटर बनना चाह था. लेकिन पैसे की कमी कारण नहीं बन पाया. और जब मुझे पता चला कि यशस्वी भी मेरे जैसा है तो मैंने उसका पूरा खर्च उठाने का निर्णय लिया.”
वहीं भूपेंद्र बताते हैं ” ज्वाला सर मेरे भगवान हैं. अगर वो नहीं होते तो शायद ही यशस्वी यहां तक पहुंच पाता.” सुरियावां के मेढ़ी मैदान में यशस्वी खेला करते थे. वहां के कोच सुजीत बताते हैं “यशस्वी बहुत मेहनती है. मैदान में अकेले खेला करता था.”
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