‘दलित’ शब्द सुनते ही हमारी सोच में अनूसूचित जाति जनजाति का खाका उभर आता है। क्या सच में दलित वहीं होता है जिसे जाति के आधार पर प्रचारित किया जाता रहा है। भले ही उस जाति का व्यक्ति राष्ट्रपति बन जाये, प्रधानमंत्री बन जाये, आईएएस या आईपीएस बन जाये फिर भी दलित वहीं है। आज हम विश्लेषण करते हैं कि वास्तव में दलित है कौन और क्यों दलित शब्द का राजनीतिक करण कर दिया गया। उसके बाद बतायेंगे कि भूख से मरने वाला ‘दलित’ कौन था। हमार पूर्वांचल भी दलितों के हित और हक की लड़ाई लड़ने के लिये सदैव तैयार रहता है, लेकिन उन दलितों की जो वास्तव में दलित हैं, न कि राजनीतिक दलितों की —
‘दलित’ शब्द का उदय
‘दलित’ शब्द का जिक्र सबसे पहले 1831 की मोल्सवर्थ डिक्शनरी में पाया जाता है। इस शब्द का उपयोग बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने भी अपने भाषणों में किया था। खोज करने पर पता चला कि 1921 से 1926 के बीच ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल ‘स्वामी श्रद्धानंद’ ने भी किया था। दिल्ली में दलितोद्धार सभा बनाकर उन्होंने दलितों को सामाजिक स्वीकृति की वकालत की थी। 1929 में राष्ट्रकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने अपनी एक कविता में दलित शब्द का प्रयोग किया था।
”दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये प्रभु,
तुम्हारी शक्ति वरुणा।”
संविधान में ‘दलित’ शब्द का कोई जिक्र नहीं
हमारा देश संविधान पर संचालित होता है किन्तु संविधान में “दलित” शब्द का कोई जिक्र ही नहीं है। बता दें कि 2008 में नेशनल एससी कमीशन ने सारे राज्यों को निर्देश दिया था कि राज्य अपने आधिकारिक दस्तावेजों में “दलित” शब्द का इस्तेमाल न करें। फिर भी ‘दलित’ शब्द इतना प्रचलन में क्यों है?
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं ‘दलित’ शब्द दरअसल लोकभाषा के शब्द ‘दरिद्र’ से आया है। दलित का शाब्दिक अर्थ है — दलन किया हुआ। इसके अंतर्गत हर वह व्यक्ति आता है जिसका शोषण किया गया हो, उत्पीड़न किया गया हो। चाहे वह किसी भी जाति का हो। हिन्दी साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र वर्मा ने अपने शब्दकोष में दलित का अर्थ लिखा है— मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ।
आखिर जाति विशेष से कैसे जुड़ा ‘दलित’ शब्द
‘दलित’ का अर्थ किसी विशेष जाति या समुदाय से नहीं होता, बल्कि दलित वह हर व्यक्ति है जो समाज के निचले पायदान पर अपनी जिन्दगी जी रहा हो। वर्षों पहले इस शब्द का प्रयोग सामूहिक रूप से उन तमाम जातियों के लिये किया जाने लगा जो हिन्दू समाज व्यवस्था में हजारों वर्षों से शोषित, बहिष्कृत और दुव्र्यवहार का सामना करते थे। वर्षों से जाति के नाम पर कराहती जिन्दगी को संवारने के लिये उनके सम्मान और अधिकार के लिये संविधान में कई कानून बनाये गये।
आज हालात बदलें हैं, निचली जाति का व्यक्ति न पूर्ण रूप से दलित है और न ही उपरी वर्ग का समृद्ध। आज अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी सम्मान की जिन्दगी गुजार रहा है, जबकि ब्राह्मण या ठाकुर जाति का व्यक्ति भी आर्थिक व सामाजिक शोषण का सामना कर रही है। फिर भी राजनीति में कुछ जातियों को ‘दलित’ होने का टैग लग चुका है।
हालात बदले परिस्थितियां बदली किन्तु सोच नहीं बदली।
जातिवाद की राजनीति से चल रही दुकानें
भारत में जातिवाद की राजनीति का सिलसिला दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। एक तरफ हम सामाजिक समानता की बात करते हैं और दूसरी तरफ जाति के नाम पर राजनीति की दुकानें सजा कर बैठे हैं। जाति के आधार पर राजनीतिक दलों के पारंपरिक वोटर बन चुके हैं और उन्हीं वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिये शो—रूम की तरह छूट के आफर दिये जा रहे हैं। जाति की गणित पर फल फूल रही राजनीति की दुकानों ने आफरों की घोषणा के बाद यदि ईमानदारी से कार्य भी किया होता तो आजादी के सात दशक भी जाति के आधार पर खुली दुकानें सजी नहीं रहती बल्कि उनपर ताले लग चुके होते।
राजनीति के पाले में ‘दलित’ शब्द एक गेंद बन चुका है। राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय दल भी इस गेंद को अपने पाले में करना चाहते हैं, लेकिन बिल्कुल फुटबाल की तरह। ‘दलित’ नाम के गेंद को अपने पक्ष में करने के लिये सिर्फ ठोंकरे मारी जा रही हैं। इसमें सिसकारियां भर रहे हैं वे मासूम जो दो वक्त की रोटी के लिये परेशान हैं और उनकी आड़ में मलाई काट रही हैं राजनीतिक पार्टियां।
राजनीतिक पार्टियां हों या मीडिया सभी सामाजिक समानता की बात करती हैं, लेकिन उनके घाव को भी यहीं लोग कुरेद रहे हैं। जिन जातियों को सम्मान देने की बात करते हैं, उन्हीं को बार बार अहसास भी कराते हैं कि तुम लोग छोटे हो और हमेशा छोटे ही रहोगे। तुम्हें कभी सम्मान से जीने का हक नहीं देंगे।
आखिर कैसे आयेगी समानता
संदेह नहीं है कि तमाम जातियों को वर्षों पहले घाव दिये गये हैं, उनका उत्पीड़न किया गया है, लेकिन अब हालात बदले हैं। फिर उनके घावों को क्यों कुरेदा जा रहा है। मैं नहीं कह रहा कि हालात बिल्कुल बदल गये हैं, लेकिन पहले से बेहतर हुये हैं। आज छूआछूत उंच नीच जैसी बातें अधिकतर नगण्य हो चुकी हैं। शहरों में हर जाति समुदाय के लोग एक साथ उठ बैठ खा पी रहे हैं। वहीं राजनीति करने के लिये जब जातियों का उल्लेख किया जाता है तो साथ बैठने वालों के बीच दरारें बढ़ती हैं। उन्हें अहसास कराया जाता है कि तुम सबके साथ बैठने के काबिल नहीं हो, क्योंकि तुम अछूत हो। राजनीति उनलोगों के मनोबल को तोड़ रही है जो अपनी मेहनत के बल पर शिक्षा हासिल करके समाज में समानता का अधिकार पाने के काबिल बन चुके हैं। किसी की पीड़ा को राजनीति की दुकानों में सजाकर बेचना बंद होना चाहिये।
वह दलित जो मर गया
टूटे फूटे झोपड़े में रहने वाला विद्यासागर दीक्षित ब्राह्मण जाति में पैदा हुआ था। उसके पास रहने के लिये घर नहीं था। ग्राम प्रधान को रिश्वत देने के लिये पैसे नहीं थे। इसलिये उसका राशन कार्ड निरस्त कर दिया गया। 20 हजार न दे पाया तो आवास नहीं मिला। वह बिना सामने वाले की जाति देखे जहां काम मिल जाता वहीं मजदूरी करता था। दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता था इसलिये मौत को चुन लिया। वह ‘दरिद्र’ यानि ‘गरीब’ यानि ‘दलित’ था। उसे भी जीने का हक था। अपना पेट भरने का हक था। अपने परिवार की जिम्मेदारी का निर्वहन करना था, लेकिन नहीं कर पाया क्योंकि सरकार उसे गरीब नहीं समृद्ध मानती थी। सरकार की निगाह में जबतक व्यक्ति नहीं बल्कि जाति गरीब होगी। तबतक ऐसे ही कितने ‘दलितों’ की मौत होती रहेगी।
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