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कड़वे से मीठे हुए आखिर क्या है राज

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सियासत के सिंधु में अमृत बना ब्राह्मण

भदोही । गैर सवर्णों में अक्सर शोषक, डपोरसंखी कट्टरवादी धूर्त चतुर छलबाज जैसे अनेक शब्दों से आलोचना के पात्र बने ब्राह्मणों के प्रति राजनीतिक पार्टियों का अचानक पनपा प्रेम चाहे जिस कारण हो। किंतु इसने खुद ब्राह्मणों को भी हैरान कर दिया है।

भारत की कुल आबादी में मात्र 13 या 14 प्रतिशत अपनी मौजूदगी रखने वाले ब्राह्मणों के प्रति राजनीतिक दलों का मोह वास्तविक है अथवा सत्ता के चौसर का एक मोहरा। यह टिकेगा या पानी के बुलबुलों की भाति क्षणभंगुर होगा। इसे लेकर तरह-तरह के कयास जारी हैं, लेकिन यह सच है कि कांग्रेस समेत सपा और बसपा के लिए ब्राह्मण दोहाई साफ सुनी जा रही है। यूपी के अनेक चौक चौराहे पर कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी के बड़े फोटो वाले लगे पोस्टरों में आराधना मिश्रा का लगा फोटो शायद यहीं बताने का प्रयास कर रहा है कि कांग्रेस और ब्राह्मणों का नाता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान से ही है।

सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा परशुराम के विशाल मूर्ति की स्थापना की घोषणा भी यह बताने के लिए है कि सपा प्रखर समाजवादी चिंतक जनेश्वर मिश्र से पृथक है ही नहीं। जो अब दुनिया में भले ही ना हो किंतु उनके विचार चिंतन और बताए रास्ते ही सपा की पूंजी है। रही बात बसपा की तो वह सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत ही ब्राह्मण भाईचारा समिति की स्थापना से की थी। अपने चुनाव चिह्न हाथी को गणेश की संज्ञा दी। ब्राह्मणों को विजय के शंखनाद का प्रतीक बताया। ब्राह्मणों में बसपा के प्रति कोई संदेह न हो इसके लिए सतीश मिश्र को राष्ट्रीय महासचिव बनाकर वर्ष 2007 के चुनाव में अपनी सरकार बना ली। एक बार फिर बसपा बौद्धिक सम्मेलनों के बहाने ब्राह्मणों को जोड़ने में लग गई है। कार्यक्रम ब्राह्मणों का और नाम बौद्धिक सम्मेलन। इसमें भी बड़ा राज छुपा है।

इस बहाने शायद ब्राह्मणों को समाज का सिरमौर बताने का प्रयास है। तभी तो उसे बौद्धिक वर्ग कहकर उस गलती को सुधारने का प्रयास किया है जिसमें बसपा ब्राह्मणों को मनुवादी कह कह कर कोसती थी। बसपा का यह प्रयास कितना कारगर साबित होगा यह तो वक्त बताएगा किंतु जिस तरह अयोध्या मथुरा समेत अन्य धार्मिक नगरियों में बसपा बड़े तौर पर बौद्धिक सम्मेलनो का दौर शुरू कर दिया है। उससे साफ है कि बसपा की नजर में सत्ता की चाबी ब्राह्मणों के पास ही है। कांग्रेस समेत सपा और बसपा के ब्राह्मण प्रेम ने भाजपा के भी कान खड़े कर दिए। उसे अपने  आधार वोट बैंक ब्राह्मणों पर गैरों की नजर चैकन्ना कर दिया है। शायद यही कारण है कि सपा के परशुराम की मूर्ति स्थापना वाली घोषणा और बसपा के बौद्धिक सम्मेलनों पर भाजपा के नेता अपने बयानों में तीखा व्यंग बाण छोड़ते नजर आ रहे हैं।

सपा से ब्राह्मणों को दूर रखने के लिए अयोध्या में तत्कालीन सपा सरकार द्वारा गोली चलवाने की भी बात याद कराई जाती है, तो बसपा के तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार वाले कथित नारों को दोहरा दोहरा कर सवर्णों को बसपा से सतर्क रहने का सुझाव दिया जा रहा है। कांग्रेस को डूबता जहाज बता कर उसका नाम तक भूल जाने को कहा जा रहा है। विभिन्न राजनीतिक दलों की खींचतान से असमंजस मैं फंसा ब्राह्मण खुद को यह कैसे चौराहे पर खड़ा पा रहा है जहां से उसके पांव कभी एक तरफ बढ़ते हैं तो कभी वापस लौट जा रहे हैं। उसके समझ में नहीं आ रहा है कि उसका वास्तविक हितैषी कौन है। उसे मान सम्मान अथवा उसकी हित का संरक्षण कहां होगा, शुरू से ही धर्मभीरु माने जाते रहे ब्राह्मणों को भाजपा अपना आधार वोट बैंक मानती रही है। ऐसा था भी। किंतु एससी एसटी एक्ट के मामले में सवर्णों समेत अन्य गैर दलितों को भाजपा से नाराज कर दिया है। कहा जा रहा है कि जब उच्चतम न्यायालय एससी एसटी एक्ट के दुरुपयोग से चिंतित में सुधार का निर्देश दिया तो भाजपा सरकार महज वोट की राजनीति के लिए संसद से कानून पारित कराया। अब भाजपा के प्रति लोगों में ऐसी धारणा भी पनपने लगी है कि भाजपा का वर्तमान नेतृत्व नीति रीति अथवा राष्ट्रीय विचारधारा की नहीं बल्कि सत्ता के लिए वोट की राजनीति की पोषक बन गई है।

कहा जा रहा है कि एक ऐसा कानून जो अधिसंख्य मामलों में गैर दलित समाज के लोगों के खिलाफ प्रताड़ना का सामान बन गया था। उस कानून को भाजपा ने ही पुनर्जीवित कर गैर  दलित समाज के सिर पर दो धारी तलवार की तरह लटकाया है। जो भी हो किंतु राजनीतिक दलों का ब्राह्मण प्रेम खुद ब्राह्मणों के ही गले के नीचे नहीं उतर रहा है। इसका कारण वह अतीत है जो लंबे समय से दिखता आया है। हर चुनाव के पूर्व जनता के बीच अनेक ऐसे वादे स्नेह प्रेम भाषणों और गांवों में तैरते दिखते हैं जो चुनाव बाद हवा के साथ बह जाते हैं। भारतीय जनता इसे आजादी के बाद से ही देखी आ रही है उसी तरह यह उमड़ा ब्राह्मण प्रेम भी हवा हवाई होकर रह जाए तो आश्चर्य नहीं। हां या जरूर है कि इस बार ब्राह्मणों का भाव कुछ ऊंचा कर दिया गया है। यह कब तक रहेगा इसका निर्धारण वर्ष 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद ही तय होगा। अभी तो राजनीति वाले शह और मात के खेल में हर कोई ब्राह्मणों पर ही अपना दांव लगाते दिख रहा है।

यह बात दीगर है कि गैर सवर्ण राजनीतिक लोगों के लिए सदा कड़वे दिखते ब्राह्मण अचानक मीठे कैसे लगने लगे। इस मीठे पन का राज क्या है। यह पानी का बुलबुला तो नहीं जिसके बनते बिगड़ते देर नहीं लगती। जो भी हो या सियासत है। इस में जुड़ना बिखरना ही इसका रंग है। खैर अभी तो ब्राह्मणों के पांव सातवें आसमान पर कुलांचे भर रहे हैं। आखिर ऐसा हो भी क्यों न। जब राजनीति के सिंधु में जारी मंथन ब्राह्मण रूपी अमृत तलाश कर रहा हो तो ब्राह्मणों की खुशफहमी  लाजमी ही है। कल चाहे जो हो किंतु आज तो सपा बसपा और भाजपा के लिए ब्राह्मण ही अमृत  दिख रहा है। यह सपा को पुनर्जीवन देगा अथवा बसपा में सत्ता की सांस फूंकेगा। या मोदी योगी के राम की माया बनकर रह जाएगा। यह तो वक्त ही बताएगा।

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