श्राद्ध के बारे में अनेक धर्म ग्रंथों में कई बातें बताई गई हैं।
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत में ये भी बताया गया है कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और फिर कैसे ये धीरे-धीरे जनमानस तक पहुंची। महाभारत के अनुसार, सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे। धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए। लेकिन हुआ यूं कि लगातार श्राद्ध का भोजन करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा। तब वे सभी ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है, इससे हमें कष्ट हो रहा है, आप हमारा कल्याण कीजिए। देवताओं की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले, ”मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं, ये ही आपका कल्याण करेंगे।” तब अग्निदेव बोले, ”देवताओं और पितरों, अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण रोग दूर हो जाएगा।” यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए। तब से यही वजह है कि श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है।
महाभारत के अनुसार, अग्नि में हवन करने के बाद जो पितरों के निमित्त पिंडदान दिया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं। सबसे पहले पिता को, उनके बाद दादा को उसके बाद परदादा को पिंड देना चाहिए। यही श्राद्ध की विधि है। प्रत्येक पिंड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जाप तथा ‘ॐ देवाभ्य पितृभ्यश्रच महायोगिभ्य एव च।
नम: स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते।। इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए।
पितृ पक्ष के सोलह दिन कुल परिवार के सभी दिवंगत पितर सूक्ष्म रूप में धरती पर आते हैं और अपेक्षा करते है की उनके लिए आत्म तृप्ति के हेतू उनके वंशज तर्पण या पिंडदान आदि कर्म करें जिसे ग्रहण कर वे तृप्त हो सके। ये होते हैं हमारे पितर हमारे कुल परिवार के ऐसे सदस्य जो अब जीवित नहीं है, दिवंगत हो गये, चाहे वे बुजुर्ग, बच्चे, महिला या पुरुष, विवाहित या अविवाहित थे जो अब शशरीर हमारे बीच नहीं हैं, वे सब पितर कहे जाते हैं। मान्यता है कि अगर हमारे पितरों की आत्मा को शांति और तृप्ति प्राप्त है तो उनके बच्चों के घर परिवार में भी सुख शांति बनी रहती है, साथ ही हमारे दिवंगत पितर बिगड़ते कामों को बनाने में सुक्ष्म रूप से हमारी मदद भी करते हैं। इसलिए पितृपक्ष में तो हमे अपने पितरों को याद करना चाहिए और उनके निमित्त तर्पण, पिण्डदान से कर्म करना ही चाहिए।