भारत देश की 80% जनसंख्या गांव में रहती है और खेती-बारी, पशु-पालन वह तरह-तरह के कुटीर उधोग करके अपना जीवन यापन करते है। शेष 20% जनसंख्या शहरों में रहती है।जिसमें सरकारी कर्मचारी व्यवसायिक व औधोगिक प्रतिष्ठानों में कार्यरत लोग अधिकारी व कर्मचारी है। सनातन काल से ही यह अवधारणा है,कि कृषि मान- सम्मान स्वाभिमान का पेशा होने के साथ-साथ धनवान किसान बलवान नौजवान हमारे देश के गांव में रहते है। परंतु आज गांवो में बदहाली का आलम दिखाई देता है। किसान मामूली से मामूली खर्चे के लिए हमेशा परेशान वह तबाही की जिंदगी जीने के लिए मजबूर दिखाई देता है। वही सरकारी कर्मचारी व व्यवसायिक वर्ग व औधोगिक प्रतिष्ठानों के अधिकारी व कर्मचारी शहरों में खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे है। आखिर हमारे देश में किसानों की बदहाली के क्या कारण है? इस संदर्भ में सन् 1969 में जब हम प्राथमिक विद्यालय में पढते थे, उस समय दो रूपये किलो चावल दो रूपये किलो गेंहूॅ बाजार में बिकता था, आज गेंहूॅ चावल 20 रूपये से लेकर 40 रूपया किलो बिक रहा है, और अच्छी क्वालिटी का अनाज 60 से 80 रूपया किलो बिक रहा है। अर्थात अन्य कृषक उत्पादित किसानों की कीमत न्यूनतम आठ गुना अधिकतम 35 गुना की बृध्दि हुई है।वही पर जो हमें प्राईमरी पाठशाला में अध्यापक पढाते थे, वे मात्र 100 रूपया पाते थे। आज 50 हजार रूपए के आस-पास है और उस समय में जो पांच रुपये से लेकर अच्छे किस्म का फावड़ा 10 रूपए में बिकते थे, आज उनकी किमत 300 सौ से 400 रूपए है। ठीक यही हालत व्यवसायिक सामान सोना, चांदी, ताबा, पीतल, कोयला,आदि के दामों में हजारों गुना बृध्दि हुई है।
इस प्रकार जहां पर सरकारी वेतनभोगियों की आमदनी वाले व्यवसायिक वर्ग की आमदनी वाले औधोगिक सामानों के दामों बृध्दि न्यूनतम 90% गुना अधिकतम 400 गुना की बृध्दि हुई है। किसानों के सामानों का क्रेता 20% शहरों में रहने वाले लोग जो उन्हें किसानों का सामन बहुत सस्ती कीमतों पर बाजारों पर मिलते थे। यही पर व्यवसायिक सामानों को गांव का किसान खरीदता है, जो उन्हें महगें दरो पर मिलता है। एक तरफ किसान अपना सामान बढी हुई मुद्रा स्फूर्ति के अनुसार सस्ती कीमतों पर बेच देता है। वही दूसरी तरफ मंहगे सामानों को खरीदता है। इस प्रकार दोहरे घाट के कारण किसानों में तबाही का आलम दिखाई देता है।
इसके अलावा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों की भरमार किसान ही झेलता है। और उसकी भरपाई करता है। जिस प्रकार सरकारी कर्मचारयों के वेतनों में बृध्दि की गई और औधोगिक एवं व्यवसायिक सामानों के दामों में बृध्दि हुई उसी तरह किसानों के सामानों के दामों में बृध्दि होनी चाहिए।
दुनियां में भारत देश है जो बहुसंख्यक ग्रामीणों के लिए लाभकारी आर्थिक नीति का निर्माण नही होता। आज यही कारण है ग्रामीण जनता बदहाली का जीवन जीने के लिए बाध्य है। गांवो में प्रथम दृष्टया पैसा पहुँचता ही नही और जो भी पैसा पहुँचता है वह भी करों के माध्यम से व व्यवसायिक तथा औधोगिक घरानों एवं व्यवसायिक वर्ग के हांथो में पहुंच जाता है। किसानों के सामानों की कीमत अगर मामूली सी बढ जाती है तो इस देश की समस्त राजनितिक पार्टीआ शोर शराबा करने लगती है। वही पर व्यवसायिक सामान एवं औधोगिक सामानों की कीमत गई गुना बढ़ जाती है तब कोई आवाज सुनाई नही पडती। उदाहरण चांदी 18 हजार रुपये से बढ़कर 75 हजार रुपये के पार पहुंच गया और सोना 10,000 से 38, हजार रुपये को पार पहुंच गया इसके विरूद्ध कोई राजनीतिक दल आवाज नही उठाया।
इस देश के किसान के लिए आखिर लाभकारी नीतियों के निर्माण करने के लिए हम सभी जनता को जनमत संग्रह कराने की आवाज उठाने चाहिए। ताकि धनवान किसान व बलवान नौजवान की अवधारणा की पुष्टि होकर यह देश समृद्धशाली और शक्तिशाली राष्ट्र बने।