होली का नाम आते ही तन और मन जैसे रंगों से नहा उठता है, लेकिन आज की पीढ़ी त्योहारों के वास्तविक स्वरूप ही भूल चली है। होली ही क्या सभी त्योहारों का जिस तरह से बाज़ारी करण हुआ है कि मूल स्वरूप जैसे लुप्त सा हो गया है। घर-गाँव से दूर बसे एकाकी परिवारों की कई बार मजबूरी भी होती है। उन्होंने नारी का पक्ष लेते हुए कहा-
मैं एक स्त्री हूं,
नाजुक अहसासों, खुशबुओं की पासबान हूं,
तन के संकरे रास्तों से मंजिल नहीं मेरी,
रूह के आसमान की मेज़बान हूं…
अपनी ऊंचाइयों पर खुद को सम्भाले रहिए,
दुनिया की हर उम्मीद का
एहतराम हूं।
अहसास की गंगा में उतरना हो तो आना,
मंदिर से लगे मोड़ पे,
पहला मकान हूं।।