काशी-प्रयाग के मध्य के क्षेत्र को परम पवित्र क्षेत्र माना जाता है। और इसी क्षेत्र के मध्य काफी धार्मिक केन्द्र है। जो अपने आप में कई ऐतिहासिक विरासत सहेजे है। और सभी की अपनी अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं है। काशी-प्रयाग के मध्य स्थित एक ऐसा शिव मंदिर है। जहां की मान्यता काशी विश्वनाथ से कम नही है लेकिन थोडे से भौगोलिक स्थिति की कमी से यह स्थल काशी तो नही बन सका लेकिन गुप्त काशी के नाम से आज भी प्रचलित है। और इस शिव मंदिर पर काफी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड पूजा और दर्शन करने के लिए लगती है। इस मंदिर परिसर पर काफी दूर दूर के भक्त आते है।और सभी की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।
गोपीगंज क्षेत्र के बेरासपुर गांव में स्थित यह प्राचीन शिव मंदिर जो बाबा बेरासनाथ के नाम से क्षेत्र में प्रसिद्ध है। इस मंदिर की स्थापना के बारे में बताया जाता है कि इस मंदिर का शिवलिंग भी एक कुंए में था और एक बार व्यासजी इसी जगह से जा रहे थे तो उनको यहां किसी दैवीय शक्ति का अहसास हुआ। फिर वे रूक गये और कुंए में स्थित शिवलिंग की पूजा पाठ करने लगे। उसके बाद ग्रामीण भी पूजा पाठ करना प्रारम्भ कर दिये।व्यास जी के कई वर्ष तक इस जगह रहने पर इस जगह का नाम व्यासपुर रहा लेकिन कालान्तर में गांव का नाम बेरासपुर पड गया। व्यासजी के चले जाने के काफी वर्ष बाद ग्रामीणों ने कुएं में स्थित शिवलिंग को बाहर निकाल कर स्थापित करने की इच्छा जताई लेकिन ऐसा न हो सका। फिर कुछ वर्षों तक ग्रामीणों ने कुएं को पाटकर शिवलिंग के जगह ऊपर पूजा पाठ करना प्रारम्भ कर दिया। लेकिन सही मंदिर न होने से पूजा करने वालों को काफी दिक्कत होती थी इसी को ध्यान में रखकर गांव के ही महामानव बाला प्रसाद पाल ‘साहब’ जो रेलवे में कार्यरत थे ने बाबा बेरासनाथ मंदिर का जिणोद्धार का वीणा उठाया और इसको वर्ष 1938 में पूरा करा लिया। मालूम हो कि उस समय भारत पाकिस्तान का बंटवारा नही हुआ था तो इस मंदिर के निर्माण में लाहौर से दर्जनों कारीगरों आकर इस मंदिर के निर्माण में कार्य किया। जिसमें गांव के भी काफी हिन्दू मुस्लिम भी कार्य किये थे। इस मंदिर के अन्दर से देखने से एक अलग स्थापत्य कला का अनुभव होता है। इस मंदिर को बाहर देखने से मंदिर जैसा लगता है और अन्दर गोलाकार है। इस मंदिर के निर्माण में बाला प्रसाद पाल ‘साहब’ के सहयोग को गांव कभी नही भुला सकता है।
इस मंदिर के आध्यात्मिक महत्व के बारे में प्रसिद्ध विद्वान स्व प्रभुनाथ मिश्र ने अपने काव्य रचना में बताया कि इस जगह काशी की स्थापना होनी थी लेकिन पंचकोस की जमीन की कमी के कारण यहां काशी की स्थापना न हो सकी। और यह क्षेत्र गुप्त काशी के रूप में महात्म्य सहेजा है। प्रभुनाथ मिश्र ने बताया कि जैसे काशी विश्वनाथ के पूर्व तरफ उत्तरवाहिनी गंगा है। वैसे ही बाबा बेरासनाथ धाम के पूर्व तरफ भी उत्तरवाहिनी गंगा बहती है। काशी में उत्तर तरफ से जैसे कोई एक पानी का स्त्रोत आकर गंगा में मिलता है ठीक वैसे ही बेरासनाथ मंदिर से कुछ दूरी पर एक पानी का स्त्रोत भी गंगा में जाकर मिलता है।लेकिन पंचकोस की कमी की वजह से बेरासनाथ धाम केवल गुप्त काशी के नाम से प्रसिद्ध है।
इस मंदिर के बारे में गांव के वयीवृद्ध माताचरण मिश्र ने भी काफी चमात्कारिक और गुप्त काशी होने की बात कही।माताचरण ने तो अपने बडे भाई प्रभुनाथ मिश्र के काव्य रचना को गाकर भी इस पवित्र स्थल को गुप्त काशी और पवित्र आध्यात्मिक क्षेत्र होने की बात कही। फूलचन्द तिवारी ने इस मंदिर के महात्म्य के बारे में बताया कि हम लोग बचपन से ही बेरासनाथ मंदिर के महिमा को सुनते चले आ रहे है और कई ऐसी घटना भी देखा जो किसी चमत्कार से कम नही। फूलचन्द ने अपनी याद साझा करते हुए कहा कि एक बार बारिश न होने से पूरे गांव वाले मिलकर मंदिर के शिवलिंग को पानी से डूबोना चाहते थे जिससे मान्यता है कि बारिश होगी लेकिन सभी ग्रामीणों के प्रयास के बावजूद भी शिवलिंग पानी से नही डूबा।
हालांकि बाद में बारिश हुई और लोग काफी प्रसन्न हुए। बेरासनाथ मंदिर के महिमा के बारे में बताते हुए रमेश पाण्डेय ने कहा कि यह शिव मंदिर हमारे पुर्वजों के समय से भी पहले का है। और यहां पर पूजा पाठ करने वालों की सभी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। यहां पर अपने मनोरथ पूर्ण होने पर दूर दूर के दर्शनार्थी आते है। पिछले कई वर्षो से बेरासनाथ मंदिर प्रांगण में शारदीय नवरात्र में भव्य दुर्गा पूजन का आयोजन भी होता है। बेरासनाथ मंदिर प्रांगण में एक भव्य और विशाल पीपल का पेड है। जो इस मंदिर की भव्यता को और बना देता है। इस मंदिर के पुजारी के रूप में पंडित श्यामधर मिश्र आजीवन समर्पित है। श्यामधर मिश्र के पहले इनके पिताजी इस मंदिर में हमेशा पूजा पाठ करते थे। यहां पर दर्शन पूजन करने वाले की सभी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। मंदिर के जीर्णोद्धार के 82 वर्ष बाद भी यहां की भव्यता कम नही हो रही है। ग्रामीणों के सहयोग से इस मंदिर परिसर में हमेशा कुछ निर्माण कार्य कराया जा रहा है। यह मंदिर सेमराधनाथ मंदिर से सात किमी पूर्व-उत्तर, तिलेश्वरनाथ से चार किमी दक्षिण-पश्चिम तथा बाबा पाडंवानाथ से पांच किमी दक्षिण तरफ गंगा के उत्तर वाहिनी तट पर स्थित है।