भारत रत्न महामानव डॉ बाबासाहब भीमराव आंबेडकर की जयंती हम भारत वासी बड़े धूमधाम से मनाते हैं और मनाना भी चाहिए। आज हम जिस स्वतंत्र भारत में खुली सांस ले रहे हैं उसका श्रेय महामानव, “विश्ववंदनीय” भारत रत्न डॉ.बाबासाहब भीमराव आंबेडकर को ही है। अन्यथा न तो वे संविधान लिखते न ही हमें आजादी मिलती। हमारे संविधान के अनुसार कानून के सामने सभी भारतीय समान हैं तथा धर्म, वंश, जाति, लिंग अथवा जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। वास्तव में बाबासाहब ने देश -विदेश में प्राप्त उच्च बहुश्रुत शिक्षा एवं अनुभवों को भारतीय संविधान में बड़ी ही बारीकी से पिरोया है जिससे मौजूदा ‘समस्याएँ’ और भविष्य में निर्माण होने वाली समस्याओं का हल मौजूद है। संविधान के अनुसार भारत की न्याय व्यवस्था सर्वोच्च है,उससे बड़ा कोई नहीं, न्यायव्यवस्था का भी अपना परम कर्तव्य है कि समता, बंधुता बनाये और तानाशाही पर लगाम लगाये। अर्थात भारत आज जहाँ कहीं प्रगति पथ पर पहुँचा है विचार करने पर यह समझ में आता है कि इस प्रगति के मार्ग के जनक बाबासाहब ही है। प्रत्येक युग में मानव जाति को उचित मार्ग दिखाने वाले युग पुरुषों ने इस धरती पर जन्म लिया है। वैसे ही इस युग में बाबासाहब ने जन्म लिया। उनके जैसा दूसरा कोई नहीं है जिसने मानव कल्याण की आधार शिला रखी।ऐसे विश्ववंदनीय महामानव का जन्म14 अप्रैल 1891 को महाराष्ट्र के जिस महार जाति में हुआ। यह जाति अपनी वीरता के लिए जानी जाती थी। इस जाति के लोग सेना में जाना पसंद करते थे।आज भी यह जाति देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करती है। लेकिन जब बाबासाहब का जन्म हुआ उसके ठीक एक वर्ष पश्चात अंग्रेजी हुकूमत ने इस शूरवीर जाति के लोगों की सेना में भर्ती पर रोक लगा दी उन्हेंअछूत करार दे दिया। वास्तव में इसी महार जाति के नाम पर ही महाराष्ट्र राज्य का नाम पहले महर राष्ट्र पड़ा था जो कालांतर में महाराष्ट्र कहा जाने लगा।
बाबासाहब के समय समाज की तथा देश की सेवा करने वाले लोगों को अछूत के रूप में साजिश के तहत देखा जाता था उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था। भारत में नाम मात्र की जनसंख्या वाले कुछ लोग थे जिनकी समाज को बांटने की बुरी आदत ने देश के बहुजन समाज को शिक्षा से वंचित रखने की साजिश रची। इस साजिश का शिकार पूरा देश हुआ। बहुजन समाज के लोगों को बचपन से ही तिरस्कार और चुनौतियां मिलती रहीं बार-बार मिलने वाली चुनौतियों का बाबासाहब ने सामना करके यह सिद्ध कर दिया था कि इस पृथ्वी पर सदियों से सतायी जाने वाली मानव जाति का
सबसे बड़ा कोई हितैषी हो सकता है तो वह केवल और केवल बाबासाहब ही हो सकते है।
वास्तव में बाबासाहब की प्रतिभा ने सभी मानवता के विरोधियों को पराजित किया। वे बहुत ही लोकप्रिय थे। वे इतने लोकप्रिय थे कि शायद यही वजह थी कि वे अपने पूर्ण नाम भीमराव रामजी आंबेडकर के साथ ही बाबासाहब के नाम से भी बुलाये जाते थे। बाबा का मतलब है पिता।वे सचमुच में पिता ही तो थे। उन्होंने बडौदा नरेश के सहयोग से भारत ही नहीं अपितु अमेरिका और लंदन में उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपनी विद्ववता का परिचय संपूर्ण विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय के तीन सौ वर्षों के इतिहास में संसार के जिन छह तेजस्वी विद्यार्थियों को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया गया था उनमें प्रथम क्रमांक पर बाबासाहब ही थे।वास्तव में वे अदभुत प्रतिभा के छात्र थे उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल आंफ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।वे विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे लेकिन इतने बड़े विश्व के महान विद्वान को भी सामाजिक असमानता का शिकार होना पड़ा। हिंदू धर्म में प्रचलित भेदभाव के चलते हिंदू धर्म से नाता तोड़ने का निर्णय लेना पड़ा। वास्तव में बाबासाहब ने देखा कि दलितों-शूद्रों के प्रति स्वर्णों द्वारा भेदभाव करते हुए उनका शोषण किया जा रहा है उन्हें धार्मिक स्थलों पर जाने से रोका जा रहाहै। यहाँ तक कि वेद वाक्य के उच्चारण तक के लिए उन्हें मना किया जा रहा है। उन्होंने माना कि धार्मिक ग्रन्थों में कर्म पर बल दिया गया है, लेकिन पंडों, पुजारियों ने अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए हिन्दू धर्म में पाखंड का समावेश कर दिया। वे इस पाखंड को हटाने के हिमायती थे।जो धर्म पानी देने को तैयार न हो उसे वे धर्म नहीं सजा मानते थे। वास्तव में मानव- मानव के बीच समानता लाने के उद्देश्य से बाबासाहब ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में स्वयं एक औपचारिक समारोह का आयोजन कर अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया।
बाबासाहब ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण कर और पंचशील को अपनाते हुए बौद्ध धर्म ग्रहण किया।तब से लेकर आज तक वंचित समाज बौद्ध धर्म में अपने लिए नित नई संभावना देखते आ रहा है। वैसे पूरी दुनिया में एक बात साफ है दुनिया आज युद्ध नहीं बुद्ध चाहती है। अर्थात आज भी लोग बाबासाहब के विचारों में अपनी गहरी आस्था रखते हैं। वास्तव में बाबासाहब की लोकतंत्र में गहरी आस्था थी। उनका मानना था कि हमें सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए।हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र बनाना चाहिए।उनकी दृष्टि में राज्य एक मानव निर्मित संस्था है। इस संस्था का सबसे बड़ा कार्य समाज की आंतरिक अव्यवस्था और बाह्य अतिक्रमण से रक्षा करना है लेकिन वे राज्य को निरपेक्ष शक्ति नहीं मानते थे। उनका मानना था कि किसी भी राज्य ने एक ऐसे अकेले समाज का रुप धारण नहीं किया जिसमें सब कुछ आ जाए या राज्य ही प्रत्येक विचार एवं क्रिया का स्रोत हो।
गौरतलब हो कि संविधान निर्माण में बाबासाहब को शुरूआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया। संघ रीति में मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियां तथा कार्य करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल हैं। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निर्दश (माँडल) पर आधारित थीं। बाबासाहब भारत का चौमुखी विकास चाहते थे भले ही उन्होंने भारत के संविधान को आकार देने के लिए वेस्टर्न माँडल को उपयोग में लाया हो लेकिन मूलतः उसकी भावना भारतीय है। वास्तव में वे देश से गरीबी दूर कर सामाजिक न्याय सुलभ कराना चाहते थे। शायद इसीलिए उन्होंने श्रमिकों से देश के सामाजिक प्रगति और आर्थिक उत्थान में हाथ बटाने का आवाहन किया। वे समतामूलक समाज के पक्षधर थे।वे सभी देशवासियों को मिलने वाली सुविधाओं में कोई अंतर नहीं देखना चाहते थे।सभी को समान अधिकार मिले यह उनकी कोशिश थी ।बचपन से लेकर युवा अवस्था तक उनके अनुभव बहुत कड़वे थे, लेकिन उन्होंने एक महात्मा की तरह स्वयं के साथ हुए दुर्व्यवहार को अपने काम के समक्ष कभी नहीं रखा। 5फरवरी 1951 को कानून मंत्री के रूप में बाबासाहब ने एक हिन्दू कोड बिल संसद में प्रस्तुत किया। जिसके पारित होने के बाद महिलाओं को असंख्य कानूनी अधिकार मिल जाते। लेकिन यह पास न हो सका। फलस्वरूप बाबासाहब ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। यह त्याग उन्हें देश का वास्तविक शिल्पकार सिद्ध करती है। वास्तव में दूरदृष्टि के जनक बाबासाहब ने सभी के भविष्य का ध्यान रखकर संविधान लिखा।
बचपन में जिनकी वजह से उन्हें अथाह कष्ट सहना पड़ा उन्होंने उनके हित का भी ख्याल रखा। वास्तव में बाबासाहब ने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध आंदोलन चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया।जब बाबासाहब केवल तीन वर्ष के थे तो उनके पिता सेवानिवृत्त हो गए जो कि ब्रिटिश भारतीय सेना की महू छावनी में सेवा में थे। वैसे उनके पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे।और जब वे 6 वर्ष के थे तब उनकी माता का निधन हो गया। वे अपने माता -पिता की चौदहवीं संतान थे।पिता रामजी मालोजी और माता भीमा बाई के बाद में केवल पांच बच्चे ही बचे। जिनमें लड़कों में मुख्य रूप से थे बलराम,आनंदराव,भीमराव तथा लड़कियां मंजुला और तुलसा थीं।ऐसे महामानव का बचपन से ही संघर्षमय जीवन रहा। शायद उन्होंने मजदूरों तथा महिलाओं का दर्द बहुत करीब से देखा था। इसीलिए उन्होंने न्यूनतम मजदूरी निर्धारण कानून बनाने का प्रारंभ किया। कारखानों में काम के सप्ताह को 56घंटे से घटाकर 50 घंटे करने, न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने, मजदूरों को मुआवजा देने, मजदूरों की स्थायी और अस्थाई सेवा शर्तों, बीमा और सामाजिक सुरक्षा से जुड़े विधेयक प्रस्तुत किया।महिला मजदूरों को प्रसूति सुविधा दिलाने। कारखानों में शिशु गृह, पालना घर और बच्चों के लिए दूध देने का प्रावधान कराया। बाबा साहेब को अछूत करार दिए गए समाज के लोगों के लिए किए गए कार्य,मजदूरों,स्त्रियों के उद्धार तथा स्वतंत्र भारत के लिए और जीवन भर समता की स्थापना के लिए प्रखर संघर्ष के लिए ‘भारतरत्न’यह देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार (मरणोपरांत)देने का भारत सरकार ने अप्रैल के पहले सप्ताह में घोषित किया तथा 14 अप्रैल 1990 को मरणोपरांत दिया।डॉ.आंबेडकर को दिया गया भारत रत्न यह सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति रामस्वामी वेंकटरमण के हाथों डॉ.सविता तथा माईसाहेब आंबेडकर ने स्वीकार किया। 14 अप्रैल 1990 यह बाबासाहेब का शताब्दी जयंती दिन था।संविधान निर्माण का राष्ट्रीय कार्य जो उन्होंने किया उसी की वजह से आज हम स्वतंत्र भारत में जी रहे हैं।
बाबासाहेब ने मानवजाति के लिए जो किया है ऐसा काम आज तक कोई नहीं कर पाया है।शायद उनके जैसा मसीहा अब इस धरती पर जन्म नहीं ले सकेगा।विपरीत परिस्थितियों में किया गया कार्य उन्हें एक दार्शनिक भी सिद्ध करता है। वास्तव में बाबासाहब ही देश के ऐसे बड़ी सोच के पहले समाजसुधारक थे कि जिन्होंने हर समाज की महिलाओं के भले के बारे में सोचा उनका कहना था कि महिलाओं और दलितों की परिस्थिति में कोई अंतर नहीं है। महिलाओं को सामाजिक सम्मान और बराबरी का का स्थान दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। आज महिलाओं को जो आगे बढ़ने की राह मिली है उस राह को दिखाने वाले बाबासाहब ही है। ऐसे महामानव का 6 दिसंबर 1956को निधन हो गया। लेकिन एक बात साफ़ है कि उनके विचार आज भी प्रासंगिक है और आने वाले समय में भी रहेंगे। उन्होंने जो कुछ पूर्व में लिखा है वह सब जैसे लगता है आज ही लिखा गया है।
कभी -कभी तो ऐसा लगता है कि बाबासाहब को 50 -100 साल में जो समस्या’ आने वाली है उसकी कल्पना पहले से ही कैसी थी ?बार -बार मन में यही विचार आता है काश! बाबासाहब होते तो भारत देश विश्व में सबसे शक्तिशाली तो होता ही साथ ही देश का हर नागरिक सुखी होता।आज के राजनीतिक और सामाजिक हालात देखकर बार -बार हृदय से एक ही आवाज़ निकलती है काश! आज बाबासाहब होते तो कोई भी समस्या नहीं होती थी। :चंद्रवीर बंशीधर यादव (शिक्षाविद्) संपर्क: यादवेश कोआपरेटिव हाऊसिंग सोसायटी, देवकीशंकर नगर, लेकरोड, तुलशेत पाडा भांडुप (पश्चिम) मुंबई 400078 मोबाईल नंबर- 9322122480