भदोही। गत दिनों खूबसूरत कालीनों की नगरी भदोही अपने अंदर कितनी नफरत समेटे हुये है, यह उभर कर सामने आया। गंगा—जमुनी तहजीब की दोहाई देकर भले ही हिन्दू—मुस्लिम एकता का झुनझुना बजाया जाता रहा हो, किन्तु जिस शहर में इस एकता के लिये शान्ति जूलूस निकालना पड़े और दोनों वर्गों की समय समय पर बैठक बुलानी पड़े तो वहां समझा जा सकता है कि एकता को चाहने वालों की संख्या सीमित है, जो खुद ही एकता की बात करते हुये अंदर ही अंदर डरे हुये रहते हैं। पूर्व की तरह एक बार फिर दंगे की चिंगारी भदोही को जलाने के लिये निकली किन्तु वह चिंगारी आग बन पाती उससे पहले ही प्रशासन ने बुझा दिया। एक तरफ जहां इस कामयाबी के लिये प्रशासन की तारीफ करनी होगी। वहीं दूसरी तरफ सवाल यह भी उठ रहे हैं कि कार्रवाई के नाम छोटी मछलियों की बलि देकर मगरमच्छों को बचाने की मुहिम भी चल रही है। लोगों में यह सवाल तब उठा जब दंगाईयों के पोस्टर जगह जगह लगाये गये।
बता दें कि भदोही में पहली बार लोगों का हूजूम सड़क पर नहीं उतरा है। उससे पहले भी लोग सड़क पर उतरे हैं। लोगों के घरों दुकानों में आग लगायी गयी है। लोगों के घरों पर पत्थर भी बरसाये गये हैं। कई दिनों तक लगे कर्फ्यू में लोगों को घरों में कैद होना पड़ा है। 1992 में बाबरी ढांचे का विवाद पैदा हुआ तो अंबरनीम के पास पुलिस की जीप फूंक दी गयी। पुलिस के उपर हमला हुआ और पुलिस को मैदान छोड़कर भागना पड़ा था। एक वर्ग के लोग सड़क पर उतरकर तांड़व कर रहे थे। अर्धसैनिक बलों के आने के बाद ही मामला शांत हुआ। कई दिनों तक लोग दहशत में रहे।
इसी तरह 2004 में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान बेवजह ही एक युवक ने जूलूस पर पत्थर फेंका। कुछ स्थानीय नेताओं के दबाव में उसे सिर्फ डांटकर छोड़ दिया गया। यदि उस युवक पर पुलिस कार्रवाई की होती तो मामला शांत हो जाता, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। थोड़ी देर बाद लिप्पन तिराहे पर कुछ युवकों ने दुर्गा प्रतिमाओं पर पथराव कर दिया। भगदड़ मची। धीरे धीरे यह छोटा सा बवाल तांडव में बदल गया। हजारों लोगों का हूजूम सड़क पर उतर आया। यहां भी सड़क पर उतरने वाले उसी खास वर्ग के थे। कटरा बाजार में पूजा पंडाल पर एक स्थानीय नेता के नेतृत्व में पत्थरबाजी की गयी। कटरा बाजार के कई घरों पर पथराव किया गया। कई प्रतिमाओं को तहस नहस किया गया। कई दिन बवाल के बाद किसी तरह मामला शांत हुआ तो भाईचारा और एकता दिखाने के लिये दोनों पक्ष से मुकदमा दर्ज किया गया। बाद में क्या हुआ यह सर्वविदित है।
वर्ष 2012 में ताजिया उठाने को लेकर दरोपुर में विवाद हुआ। इसके बाद पूरे शहर में तांडव हुआ। खुलेआम सड़क पर तलवारें लहराते हुये जूलूस निकाला गया। श्रीरामकथा करने आये कथावाचक प्रेमभूषण महराज के काफिले पर हमला किया गया। कई लोग घायल हुये। फिर कर्फ्यू लगा, लेकिन आजतक उस मामले का क्या हुआ अधर में ही है। कई वर्ष पूर्व एक बार एक मौत को लेकर लोग कोतवाली चढ़ आये और पुलिस पर पथराव किया। बम भी फेंका गया। मामला फिर भी शांत हो गया।
20 दिसंबर को एक बार फिर भदोही को जलाने का पूरा प्लान तैयार था। भीड़ शांति के साथ विरोध दर्ज कराने सड़क पर नहीं उतरी थी। बल्कि एक खास वर्ग के कुछ लोग अपनी ताकत दिखाने सड़क पर उतरे थे। क्योंकि उन्हें पुलिस का भय नहीं था। उनके मन में यहीं बैठा था कि हर बार की तरह प्रशासन इस बार भी हाथ जोड़कर मनुहार करेगा। वे सोच रहे थे कि इस बार भी 2004 की तरह किसी उच्च अधिकारी का फोन स्थानीय पुलिस अधिकारी को आयेगा और कहा जायेगा कि चाहे कुछ भी हो जाये किन्तु लाठी नहीं चलानी है।
पूर्व की सरकारों में जिस तरह प्रशासन के हाथ बांध दिये जाते थे और भदोही की सड़कों पर नंगा नाच कई दिनों तक होता था। इस बार भी लोगों की सोच यहीं थी । उन्हें इससे कुछ भी लेना देना नहीं था कि नागरिकता संशोधन कानून है क्या? उसका उनके उपर क्या प्रभाव होगा, यह उन्हें पता नहीं था। उन्हें वहीं पता था जो उनके आकाओं ने उनके मन में भर दी थी। उन्हें अपनी ताकत दिखानी थी। खुलेआम कोतवाली को घेरने की धमकी दी जा रही थी। उन्हें पता था कि यदि वे प्रशासन को धौंस दिखा देंगे तो दूसरे लोगों में अपने आप खौफ भर जायेगी।
लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। बल्कि इस बार प्रशासन को खुली छूट थी। सरकार का मंतव्य यहीं था कि कुछ भी करना पड़े किन्तु हिंसा रोकनी ही है। यह पहले भी हुआ होता तो आज कोई अपनी ताकत का प्रदर्शन करने नहीं आता। यह चुनौती दी गयी थी सरकार को। क्योंकि धारा 144 तोड़कर सड़क पर उतरने का मतलब ही था कि हम बवाल करेंगे जो करना हो कर लो। लेकिन पुलिस ने अपने खुले हाथ दिखाये। प्रदेश सरकार ने उच्चन्यायालय और उच्चतम न्यायालय के फैसलों को लागू करने का दम दिखाया। दंगे के दौरान नुकसान होने वाली राशि दंगाईयों से वसूली जाय। यह योगी सरकार का फरमान नहीं है, बल्कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट का है जिसे सख्ती से लागू किया गया। दंगाईयों को चिन्हित करके जेल भेजा गया और अज्ञात में मुकदमें दर्ज करके खोजबीन शुरू हो गयी।
—और यहीं से शुरू हुआ खेल
भदोही में हुये बवाल के बाद पुलिस ने 200 लोगों का नाम अज्ञात में दर्ज किया है। जिसमें 59 लोगों के फोटो का पोस्टर लगाकर जगह जगह चिपकाये गये हैं। यह वह चेहरे हैं जो सिर्फ भीड़ का हिस्सा है। इस पोस्टर में भदोही में रहने वाला यदि है तो उसे पहचानने वाले नहीं है। सवाल यह उठता है कि क्या यह दूसरे प्रदेशों से आकर भदोही की कालीन कंपनियों में काम करने वाले कामगार हैं। यदि यह कामगार हैं तो किसके यहां काम करते हैं और किसने अपना काम रोककर इन्हें सड़क पर जाने की इजाजत दी। पोस्टर को देखने के लिये भीड़ जमा हो रही है किन्तु सभी के चेहरे पर सिर्फ प्रश्नवाचक चिंह दिख रहा है। चेहरे पहचान में नहीं आ रहे हैं तो सवाल और भी गंभीर हो जा रहा है।
क्या यह लोग बाहर से भदोही में पत्थरबाजी करके आग लगाने आये थे। इन्हें लाया कौन था? यह किसके यहां रूके थे? इन्हें पनाह देने वाला कौन था। इनका नेतृत्व कौन कर रहा था। यह सब जांच का विषय है किन्तु सूत्रों की मानें तो असली गुनहगारों को बचाने के लिये कोतवाली सहित अन्य अधिकारियों के कार्यालय के चक्कर भी काटे जा रहे हैं। कुछ लोग यह भी चर्चा करने लगे हैं कि इसी बहाने पुलिस को भेंट भी चढ़ रही है।
खैर सच्चाई क्या है यह प्रशासन ही जानता होगा किन्तु लोगों में जो चर्चा हो रही है उसमें यहीं कहा जा रहा है कि मगरमच्छों को बचाने के लिये पुलिस छोटी मछलियों की बलि चढ़ा रही है। यदि इसमें थोड़ी भी सच्चाई होगी तो यह भदोही के लोगों के भविष्य और कालीन नगरी के व्यवसाय के लिये घातक होगा।
Bhai Aap to ek tarfa bol rahe ho nisana muslim ke tarah hai kya hindu bhai galti nahi karte hai
भदोही जिले के समाचार प्रकाशित करने के लिए गूगल को धन्यवाद