कांग्रेस पार्टी ने दिये थे यूपी को 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री, इसके बाद सभी दलों ने बनाया वोटबैंक
चुनाव नजदीक आते ही ब्राह्मणों को लुभाने में जुटे राजनीतिक दल
कांग्रेस का पतन होने के बाद कभी उत्तरप्रदेश की सियासत में सत्ता की कमान संभालने वाला ब्राह्मण समुदाय तीन दशक से महज एक वोटबैंक बनकर रह गया है। चुनाव नजदीक आते ही सभी राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणों को लुभाने में लगी हुई हैं, जिसकी शुरूआत बसपा ने यूपी में ब्राह्मण सम्मेलन का आगाज कर सभी दलों को बेचैन कर दिया है। सपा से लेकर कांग्रेस और बीजेपी तक ब्राह्मण समुदाय को साधने में जुट गई हैं ।
आजादी के बाद यूपी की सियासत में 1989 तक ब्राह्मण का वर्चस्व कायम रहा और 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। जिसमें गोविंद बल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, पं. कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र और नारायण दत्त तिवारी शामिल हैं। इनमें नारायण तिवारी तीन बार उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बनें। यह सभी मुख्यमंत्री कांग्रेस शासनकाल के दौराने ही बने थे। अगर इन मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल को देखें तो करीब 23 साल तक प्रदेश की सत्ता की कमान ब्राह्मण के हाथ में रही, लेकिन मंडल और कमंडल की राजनीति ने उन्हें हाशिए पर धकेल दिया। 1989 के बाद से ही कांग्रेस यूपी की सत्ता में नहीं आयी।
विधानसभा चुनाव 2022 का चुनाव नजदीक आते ही सभी पार्टियों ने ब्राह्मणों पर डोरे डालना शुरू कर दिया है। उन्हें लगता है कि 2017 के चुनाव में ब्राह्मणों ने बीजेपी का जमकर समर्थन किया लेकिन बीजेपी सरकार में उन्हें वैसी तवज्जो नहीं मिली जैसी उम्मीद लगाए बैठे थे। साल 2017 में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी की तो राजपूत समुदाय से आने वाले योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनें। यही वजह है कि योगी सरकार में राजपूत बनाम ब्राह्मण की राजनीति भी विपक्ष ने शुरू कर दिया है। ब्राह्मण वोटों का अपने पाले में जोड़ने के लिए बसपा से लेकर कांग्रेसी तक सक्रिय हैं।
पिछले चुनाव पर नजर डालें तो 2017 के चुनाव में बीजेपी के कुल 312 विधायकों में 58 ब्राहमण समुदाय के प्रतिनिधि चुनकर आए थे। इसके बावजूद सरकार में ब्राह्मणों की हनक पहले की तरह नहीं दिखी। योगी के मंत्रिमंडल में 9 प्रतिनिधि ब्राहमण समुदाय से हैं। इसके बावजूद विपक्ष योगी सरकार पर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगाकर उन्हें अपने पाले में करना चाहती है। बसपा जहां अयोध्या में ब्राह्मण सम्मेलन करने के बाद पूर्वांचल में अपने सियासी समीकरण को दुरुस्त करने व ब्राह्मणों को साधने की जिम्मेदारी मायावती ने पार्टी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र और पूर्व मंत्री नकुल दुबे को दे रखी है।
बसपा की सक्रियता को देखते हुए सपा ने भी ब्राह्मण सम्मेलन करने का फैसला किया है समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव गत दिनों को पार्टी के पांच ब्राह्मण नेताओं से मिले इन नेताओं ने अखिलेश को परशुराम प्रतिमा भेंट की है। सपा ने ब्राह्मणों के उत्पीड़न को सियासी हथियार बनाने का फैसला किया है। इसके लिए पांच सदस्यीय समिति गठित कर दी गई है कमेटी ब्राह्मणों के साथ होने वाली घटनाओं को लेकर सदन तक उठाएगी। बसपा के अयोध्या से शुरू हुए ब्राह्मण सम्मेलन के जवाब में सपा ने 1857 क्रांति के नायक मंगल पांडे की जन्मभूमि बलिया से ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत करने का फैसला किया है। इन सम्मेलनों के जरिए सपा शासनकाल में ब्राह्मणों के लिए किए गए कार्यों को भी दिखाया जायेगा। ताकि 2022 के चुनाव में ब्राह्मणों के वोट को अपने पाले में किया जा सके।
राजनीतिक दलों को पता है कि उत्तर प्रदेश में भले ही ब्राह्मणों की संख्या 10 प्रतिशत से 12 प्रतिशत है किन्तु ब्राह्मणों का प्रभाव समाज में इससे अधिक है। अपने वर्चस्व से ब्राह्मण समुदाय दूसरी जातियों में भी अच्छी पकड़ रखता है। यूपी में जिस पार्टी ने पिछले तीन दशक में ब्राह्मण कार्ड खेला उसे सियासी तौर पर बड़ा फायदा हुआ है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन को 72 फ़ीसदी ब्राह्मणों ने वोट दिया जबकि सपा बसपा को पांच-पांच फीसदी ब्राह्मण वोट मिले। जबकि कांग्रेस को लगभग 11 फ़ीसदी वोट ब्राह्मणों ने दिया। 2019 लोकसभा में बीजेपी को 82 फ़ीसदी ब्राह्मणों ने वोट किया, लेकिन सपा बसपा गठबंधन और कांग्रेस को 6 फ़ीसदी ब्राह्मण वोट मिले। 2017 यूपी विधानसभा में बीजेपी को अधिकतर ब्राह्मणों ने वोट किया। यूपी में कुल 58 ब्राह्मण विधायक जीते। जिसमें 46 विधायक बीजेपी से बने थे।
2007 में बीएसपी ने दलित ब्राह्मण गठजोड़ का सफल प्रयोग किया था। जिसे बसपा ने सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया था। यूपी की सियासत में मायावती ने 2007 में ब्राह्मण महत्त्व दिया था जिसके चलते प्रदेश में ब्राह्मणों का महत्व बढ़ गया था। तब से जो भी दल सत्ता में आए उसमें ब्राह्मण वोटों की अहम भूमिका रही। 2007 में जब मायावती सत्ता में आई तो उसमें बीएसपी से 41 ब्राह्मण विधायक चुने गए।
बता दें कि 1993 में बसपा से महज एक ब्राह्मण विधायक था, लेकिन चुनाव दर चुनाव आंकड़ा बढ़ता गया। 2007 के चुनाव में रिपोर्ट के मुताबिक ब्राह्मणों ने मायावती को वोट दिया था और इसमें से अधिकतर वोट बसपा को वहां मिले थे जहां उसने ब्राह्मण उम्मीदवार खड़े किए थे। बीजेपी से 2017 के चुनाव में ज्यादा 58 ब्राह्मण विधायक बने। 2002 से लेकर 2012 तक तो बीजेपी से जीतने वाले ब्राह्मणों की संख्या दहाई का अंक भी नहीं छू पाई थी। वहीं सपा से सबसे ज्यादा 21 ब्राह्मण 2012 के चुनाव में जीत कर आए थे। वहीं कांग्रेस 90 के बाद से दहाई अंक अभी प्राप्त नहीं कर सकी। ऐसे में यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर ब्राह्मण वोटों पर सभी की निगाहें लगी हुई है। देखना यह है कि 2022 में ब्राह्मण समुदाय की उंगली बैलेट मशीन पर किस के चुनाव चिन्ह की ओर जाती है।