पुत्राभावे वधु कूर्यात, भार्याभावे च सोदन:। शिष्यों वा ब्राह्म्ण: सपिण्डो वा समाचरेत।। ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृ: पुत्रश्च: पौत्रके। श्राध्यामात्रदिकम कार्य पुत्रहीनेत खग:
पुत्र की अनुपस्थिति में कौन कर सकता है श्राद्ध हिन्दू धर्म में मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति, पुत्र द्वारा ही मिलती है। अत: पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए। यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता-पिता करते है। फिर भी ऐसे कई लोग हैं जो पुत्र सुख से विमुख होते हैं। हालांकि ऐसे लोगों को निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर भी कई तरह से श्राद्ध सम्भव है। तो आइए जानते हैं पुत्र कि अनुपस्थ्ती में कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है।
(1) पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।
(2) पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंड श्राद्ध कर सकते हैं।
(3) पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है।
(4) पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।
(5) पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।
(6) पति, अपनी पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।
(7) पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है।
(8) दत्तक या गोद लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।
(9) कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है।
(10) किसी के न रहने पर मित्र, शिष्य, कोई रिश्तेदार, कुल पुरोहित भी इस श्राद्ध को कर सकता है। मातामह श्राद्ध मातामह श्राद्ध, एक ऐसा श्राद्ध है जो एक पुत्री द्वारा अपने पिता व एक नाती द्वारा अपने नाना को तर्पण के रूप में किया जाता है। इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है। यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक नियम है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं किया जाता है। नियम यह है कि मातामह श्राद्ध उसी महिला के पिता के द्वारा किया जाता है जिसका पति व पुत्र जिंदा हो। अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता।
विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धा भाव से अमावस्या का उपवास रखने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु,विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होकर प्रसन्न होते हैं। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि श्राद्धपक्ष में किया गया हर तर्पण, पितरों के स्वर्गारोहण के लिए एक-एक सीढ़ी बनाता है। वाल्मिकी रामायण में भी सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। पौराणिक कथा के अनुसार वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीता जी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीता जी असमंजस में पड़ गईं। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। थोड़ी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है? इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा। तब सीता जी ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत, केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं। इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही। तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। दशरथ जी ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी- जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी, तुझमें पानी नहीं रहेगा. इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी। केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता जी का आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है, केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है।