रिपोर्ट: दिनेश तिवारी
छठ का दिन पुर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की माताओ के लिए अतिविशीष्ट दिन होता है, जब माताएं अपने पुत्र की लम्बी उम्र और पुत्र की कामना के साथ सुर्य देव की उपासना करती हैं। छठ व्रत के लिए व्रती सुदूर अपने कर्म भूमि से जन्म भूमि को जा कर छठ व्रत का पर्व मनाते है। जो जन्म भूमि नहीं पहुंच पाते वो कर्म भूमि पर ही छठ व्रत का पर्व मनाते हैं।
सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। जँहा पर बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग अधिकाधिक मात्रा में होते हैं वँहा तालाब, पोखर, नहर या नदी के किनारे बड़े हर्ष के साथ यह पर्व मनाया जाता है। चाहे गुजरात हो, महाराष्ट्र हो हैदराबाद हो।
छठ पूजा सूर्य और उनकी पत्नी उषा को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन की देवतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद और कुछ शुभकामनाएं देने का अनुरोध किया जाए।
त्यौहार का अनुष्ठान कठोर है और चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं। इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी (वृत्ता) से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, और प्रसाद (प्रार्थना प्रसाद) और अर्घ्य देना शामिल है। परवातिन नामक मुख्य उपासक (संस्कृत पार्व से, जिसका मतलब ‘अवसर’ या ‘त्यौहार’) आमतौर पर महिलाएं होती हैं। हालांकि, बड़ी संख्या में पुरुष भी इस उत्सव का पालन करते हैं क्योंकि छठ लिंग-विशिष्ट त्यौहार नहीं है।
इस चार दिवसीय व्रत की सबसे कठिन और महत्त्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को यह व्रत मनाये जाने के कारण इसका नामकरण छठ व्रत पड़ा। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह पर्व मनाया जाता है। नर और नारी समान रूप से इस पर्व को मनाते हैं।
इस व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं, उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिला। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।
छठ पर्व चार दिनों का है। भैयादूज के तीसरे दिन से यह आरम्भ होता है।
पहले दिन सेन्धा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। जिसे नहाय खाय कहते हैं।
दूसरे दिन से उपवास आरम्भ होता है। व्रति दिनभर अन्न-जल त्याग कर शाम करीब ७ बजे से खीर बनाकर, पूजा करने के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे लोहंडा और खरना कहते हैं।
तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। जिसे संध्या अर्घ्य कहते हैं। शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रति एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है, इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले जैसा दृश्य बन जाता है।
अंतिम दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रति वहीं पुनः इकट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने पूर्व संध्या को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। सभी व्रति तथा श्रद्धालु घर वापस आते हैं, व्रति घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं।
पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है, लहसून, प्याज वर्जित होता है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहाँ भक्तिगीत गाये जाते हैं।अंत में लोगो को पूजा का प्रसाद दिया जाता हैं।
छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएँ यह व्रत रखती हैं।
आज सुरत में भी छठ व्रत का त्योहार बड़े हर्ष के साथ मनाया गया और काफी मात्रा में माताएं अस्त होते हुए सुर्य देव की आराधना की। कल प्रातः उदय होते सुर्य को पुनः अर्घ देकर इस व्रत का पारणा किया जाएगा।
देश के सभी लोगों को छठ व्रत की ढेरों शुभकामनाएं।