Home मुंबई बालीवुड फिल्मों का बदलता स्वरूप

बालीवुड फिल्मों का बदलता स्वरूप

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कहते है फिल्म समाज का आईना हैं। और सिनेमा में वही चीजे ही दिखाई जाती हैं ,जो समाज के लिए अनुकरणीय और देशहित में हो। अब उस सिनेमा के दूसरे पहलू पर भी नजर डालें तो हमें यह एहसास होता है की हम और हमारा समाज तेजी से पश्चात शैली से भी एक कदम आगे जा रहा हैं। जहाँ हम उस समाज को वरीयता दे रहे हैं जिससे हमारे समाज और देश का सिर्फ और सिर्फ नुकसान ही हैं, फायदा कुछ नहीं। जैसे बेवजह अंगप्रदर्शन ,या अश्लील गीतों की भरमार हो या बेहूदे संवाद इनका भी योगदान हमें बिगड़ने में सहयोग कर ही रहा हैं। कवि प्रदीप से देशभक्ति या गीतकार अभिलाष जी का द्वारा रचित (इतनी शक्ति हमे देना दाता) जैसे गीत क्यों ओझल हो रहे हैं।और हमारे गीतकार चोली के पीछे और तू चीज बड़ी है। मस्त,मस्त ,तेरी चोली ने छप्पर करोड़ मारे रे, में अपनी ऊर्जा दिखाकर क्या साबित कर रहे हैं। यह तो वहीं जाने पर ,समाज मे इसका गहरा असर हो रहा हैं जहां छेड़खानी के नीत नये मामले पैदा होते हैं।

मै कभी भी राजकपूर का प्रसंशक नहीं रहा हू, पर शो मैन राजकपूर की फिल्मों में भी बहुतायत अंग प्रदर्शन रहा हैं और इनका फिल्मांकन भी, पर नजरिया और संदेश उस कहानी का हिस्सा हुआ करते थे। आज स्थिति बिलकुल उलट हैं और भयावह भी। नायक और नायिकाओं के रोमांस और रोमांटिक दृश्य में जो वनस्पतियों और नदियों की उपयोगिता थी। अब आधुनिकता के नाम पर वो एक दो कदम नहीं सैकड़ों कदम आगे निकल आए हैं। उस दौर फिल्मों मे नायक माँ बाप के चरणस्पर्श और पैर दबाने के बाद आशीर्वाद लेते रहे हैं। वहीं आज के दौर में मम्मी डैडी के जाली सिग्नेचर कर उनके बैंलेंस का चपत लगाने में हमारा कोई सानी नही हैं।

नि:संदेह कभी राजपूतों ने हमारी संस्कृति और राष्ट्रहित मे अपने जान न्यौछावर करने के लिए मशहूर थे। वहीं हमारी फिल्मों ने इन्हें जालिम सिंह बनाकर इनके रूतबों को बलात्कारी में बदल कर पूरी कौम को ऐय्याश साबित कर दिया। माना कि नायक हमेशा ही दलित या पिछड़े वर्ग का होता था। पर हमारे संभ्रांत परिवार की बेटियों को मानो उनके लिए ही बनाया गया है और एकाधिकार उनका ही। ऐसे भी कई मिसालें मिल जाऐगें जिसमें ब्राह्मणों को पोंगा पंडित दिखाकर उनका भरपूर माखौल उड़ाया गया हैं।

कहने का तात्पर्य यह कि अगर आप बेटियों के प्रति जागरूकता ही लाना चाहते थे/हैं तो बेटियों के चरित्र से छेड़छाड़ क्यों? हम गरीबों की बेटियों को बलात्कार के नाम पर और धनवान चरित्र की बेटियों को फैशन के नाम पर नंगापन परोसा जा रहा हैं। हम विदेशी बालाओं को भला,बुरा कहे हमे कोई हक नहीं हमारी नायिकाएं उनसे कई कदम आगें हैं। हमारे टेलीविजन धारावाहिक भी इस मामले तू डाल,डाल,तो हम पाँत,पाँत की होड़ मे शामिल हैं। अगर नंगापन ही कामयाबी का पैमाना होता तो आज “तारक मेहता का उल्टा चश्मा, तेनालीराम और राम सिया के लवकुश” जैसे धारावाहिक न चलते।

फिल्मों के नायक हमेशा अपनी सुर्खियों में रहने के लिए कुछ ऊलजलूल हरकतें भी कर बैठते हैं। जिनके फैन उन्हें अपना आदर्श मानते है उनकी एक गलती से वो नजरअंदाज भी होने लगते है। कुछ दिनों पहले ही एकाध फिल्मस्टार को अपना देश ही असुरक्षित लगने लगा तो कुछ मौजूदा सरकार के ही खिलाफ मोर्चा खोलकर सुर्खियों मे बन बैठे। कभी सोचा ही नहीं हम जिनके आदर्श हैं उनको क्या संदेश देंगे। आजभी “जय माँ संतोषी, रामायण, कृष्णा, महाभारत, राजा हरिश्चंद्र, मदर इंडिया, शोले ,मि.इंडिया,दिलवाने दुल्हनिया ले जाऐंगे,गदर, सुपर थर्टी” जैसी फिल्मों और धारावाहिकों के नायक और नायिकाओं को लोग उनके चरित्र के नाम से जानते है न ,की उनके वास्तविक नाम से।

हम एक वर्ग विशेष के देवी,देवताओं पर हास्यास्पद टिप्पणी करके ,क्या साबित करना चाहते है, जिस फिल्मों की सफलता को लेकर सर्वप्रथम किसी इष्ट की मूर्ति पहले दिखाते हैं बाद में उनका ही मजाक हम रूपहले पर्दे पर उड़ाते हैं। जिस मंत्र के साथ हम सिनेमाघरों में अवतरित होते वहीं मंत्रो पंडितों द्वारा मजाक उड़ाते दिखते हैं। आजकल समाज में जो घटना घटित हो रही हैं उनपर फिल्में बन रही या फिल्मों की घटनाओं पर समस्या घटित हो रही हैं। कहना मुश्किल है। इसलिए हर निर्माता, निर्देशक, गीतकार ,संगीतकार नायक और नायिकाएं समेत हमारे सेंसरबोर्ड की भी जवाबदेही हैं कि हम अपने समाज और देश को क्या परोस रहे हैं।

हालत तो यहां तक बन गयी हैं मानो हिंदी सिनेमा का फार्मूला सिर्फ प्रेमी, प्रेमिकाओं के लिए ही सीमित रह गया है और सपरिवार देखने लायक स्थिति अब नही रही हैं। 1913 में हिंदी फिल्मों का उदय हुआ पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र थी जो मूक फिल्म थी। आलम आरा,उन दिनों की बहुचर्चित फिल्म साबित हुई थी। अपनी देशभक्ति फिल्मों के कारण ही अभिनेता मनोजकुमार से भारत कुमार कहलाऐ गये।तो राजेंद्र कुमार जुबली कुमार, शम्मी कपूर याहू उपनाम से जाने जाते है।

70/80 के समय कुछ फिल्मों ने क्रांति भी लायी जब दो आँखे बारह हाथ, बंदिनी, अछूतकन्या, दुनियादारी, कटी पतंग, बैजूबावरा, पाकीजा, मदर इंडिया, जैसी फिल्मों का बोलबाला अपने चरम पर था मुगलेआजम को कौन भूल सकता है हिंदी सिनेमा में, फिर रोमांटिक फिल्मों मे राजेश खन्ना का पदापर्ण ने एक अलग ही मुकाम हासिल कर दिया। अब तो मारधाड़, लूट खसोट और अंगप्रदर्शन ही मानक हैं फिल्मी सफलता के…।

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