Home मन की बात होली के त्योहार का बदलता स्वरूप- मृदुला मिश्रा

होली के त्योहार का बदलता स्वरूप- मृदुला मिश्रा

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होली! अगर अपने शब्दों में कहूं तो अपादमस्तक बदल गयी है यानी इसका ग्रामीण चोला उतर गया है और शहरीकरण हो गया है। पहले हम गांव में थे तो शिवरात्रि के बाद बड़े लोग झांझ-मजीरा लेकर चैती गाते थे । नई फसल से घर में एक नयी उर्जा का संचार हो जाता था।चैती कर्णप्रिय होने के साथ-साथ अर्थप्रिय भी होती थी एक बानगी देखिए–घर हीं कौशल्या माता करथी शगुनवां बनवां में राम जी के बीत हइन फगुनवां।ये तो हुआ फगुआ अब चैती देखिए—-इहे ठइंयां (जगह)मोतीया हेरायल हो रामा चैत रे महिनवां।

राम जी के होलइन जनमिया हो रामा चैत शुभदिनवां।
फिर होली के दिन तमाम तरह के पकवान देवताओं के लिए अलग, घर-परिवार के लिए अलग, बांटने के लिए अलग और पंच पउनिया(घर में काम करने वाले) के लिए अलग। फिर टोली आती थी और होली गाकर खाना खाकर सबको आशिर्वाद देती थी वह भी गाकर। जैसे—सदा आनंद रहे यही द्वारे मोहन खेलैं होरी हो।

अब शहर में घर नहीं रहा फ्लैट हो गया है तो होली भी अदब-कायदे से मनाई जाती है।घर गंदा न हो इसके लिए नीचे एक जगह मिल लिया जाता है हैप्पी होली बोलकर थोड़ा रंग-गुलाल डालकर नीचे ही व्यवस्था हो जाती है खाने-पीने की और खा-पीकर लोग घर आ जाते हैं।
बच्चों में भी वह उत्साह नहीं होता जो हमारे समय में होता था।आलू काटकर उसमें चोर या कुछ भी लिखना और अपने दोस्तों, सहेलियों की पीठ पर धप्प से मारना,स्कूल से स्याही की बोछार लगवा कर आना।

खैर होली, होली है शहर की हो या गांव की
अच्छा है त्योहार चलता रहे हमारी संस्कृति बनी रहे।
होली की आप सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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