Home साहित्य चित भी मेरी पट भी मेरी-इंदु भोलानाथ मिश्रा

चित भी मेरी पट भी मेरी-इंदु भोलानाथ मिश्रा

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वाह जी वाह क्या सोच है तुम्हारी, हम सब पुरूषो में ये सोच कहा। क्या बात हैं, सच मन तो उछलने लगा है कि, अब हम सब पुरूषो को कही बोलने कि जरूरत ही नही है। कहते हुये,  पुरुषोत्तम, अरे भैया बात तो सुनो। आज दादी अम्मा ने मन बनाया है। कि हम सब क्यू न सामने आये। आज कि स्त्रियां जो चाहे सो कर सकती हैं।

आज स्त्रियों के कदम जम कर बैठ गये है। सबको हार मनवा रही है। क्या कोर्ट क्या कचहरी क्या पुलिस क्या दारोगा भाई अपना तो कोई सुनेगा ही नही। तभी शीला जोर से आवाज लगाते हुये दोनो हाथो मे तिरंगा लिये दौङती हुयी। चलो चलो मै चल रही हूँ। मेरे साथ आओ हमारे साथ, अगर कोई समझ कर ना समझ है तो हम भी नकल करेगे।

तभी सुरेश, चल घर मे क्या जरूरत हैं। काम धंधा घर मे नही है क्या। कहते हुये कि आजादी मिली हैं। तो क्या यही सब करने के लिये। हम सब कभी भी नही सोच सकते क्यो हमे तो कमाने कि लालच है, जब ज्यादा होगा तब देखना। अभी क्या जरूरत हैं? पुरषोत्तम हम सब के आखों पर बंधी पट्टियां अब खोल कर देखने का समाज मै कहा क्या हो रहा है, एक अकेला है तो मिल जाये सब क्या ऐसा हो सकता है? हमने कि जरूरत है आज वक्त इम्तहान ले रहा है । विषय सब जान रहे हैं। कि चित भी उनकी पट भी उनकी ही हैं ।।

इंदु भोलानाथ मिश्रा

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