लोकसभा चुनाव परिणाम और विधानसभा चुनाव परिणाम की तुलना करना बेशक सही नही है। लेकिन भाजपा विरोधियों को इस जीत से जैसे संजीवनी मिल गई हो और वे आगामी लोकसभा जीतने का दिवास्वप्न देख रहे है, लेकिन शायद यह भाजपा विरोधियों के लिए अतिउत्साह भारी पड जाए। वैसे भाजपा को भी यदि आगामी चुनावों में कामयाबी पानी है तो जमीनी स्तर पर उतर कर हार का सही कारण पर विश्लेषण करना बेहद जरूरी है। वैसे इस बार के चुनाव में जनता ने नोटा का प्रयोग करके यह साबित कर दिया कि जनता सच में देश की गंदी राजनीति से ऊब गई है। यह संख्या यदि बढेगी तो सच में एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह घातक होगा। पांच राज्यों के संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन को आंकने के लिए इस संग्राम के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इन परिणामों को देश की राजनीति के लिए निर्णायक कहना उसी तरह जल्दबाजी है जैसे लक्ष्मण जी की मूर्छा को कुछेक ने अपनी जीत मान ली और कईयों ने हार। चुनाव परिणामों का गहनता से अध्ययन करें तो सामने आएगा कि अंकगणित के हिसाब से भाजपा हारी जरूर हुई है परंतु आसान लड़ाई होने के बावजूद सम्मानजक जीत कांग्रेस को भी नसीब नहीं हुई।
टीडीपी अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू का महागठबंधन का प्रयोग अपने गृहक्षेत्र तेलंगाना में और मायावती-अजित जोगी का मौकापरस्त गठजोड़ छत्तीसगढ़ में ध्वस्त होता दिखा। भारत चाहे कांग्रेस मुक्त नहीं हुआ परंतु मिजोरम की पराजय के बाद पूर्वोत्तर भारत तो पूरी तरह से उस कांग्रेस से मुक्त हो गया जो कभी गांधी परिवार की अचल राजनीतिक संपत्ति माना जाता था। चुनाव परिणामों ने जहां भाजपा के सामने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं तो वहीं कांग्रेस के प्रदर्शन पर भी प्रश्न उठते दिख रहे हैं। लेकिन हां, इन परिणामों ने देश की राजनीति में हिंदुत्व की भूमिका को अवश्य केंद्र बिंदू में और मजबूती दी है जिसकी नींव 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में रखी गई थी। इन चुनावों में जहां अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति पर विराम लगता दिखा तो दूसरी ओर दलित तुष्टिकरण के खिलाफ भी संदेश मिला है।
विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद अति उत्साह में आकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि जिस तरह 2018 के विधानसभा चुनाव जीते हैं उसी तरह 2019 का लोकसभा चुनाव भी जीतेंगे। किसी भी राजनेता को यह कहने का अधिकार है लेकिन यहाँ राहुल को गलतफहमी का शिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि जिन पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए उनमें से तीन में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से था। भाजपा मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 15 वर्षों से सत्ता में थी वहाँ वह सरकार विरोधी लहर का सामना कर रही थी। तीसरे राज्य राजस्थान की अदला-बदली की परम्परा ही रही है। कांग्रेस मध्य प्रदेश में काँटे के मुकाबले में बस थोड़े से ही अंतर से आगे निकल पाई है। राजस्थान में भी वह भाजपा को उस तरह से परास्त नहीं कर पाई है जिसकी भविष्यवाणी की जा रही थी। विगत विधानसभा में कांग्रेस जहां 21 सीटों पर सिमट गई वहीं इस बार भाजपा 73 सीटों पर मौजूदगी दर्ज कराने में सफल रही। हालांकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में भाजपा की दुर्गति का अनुमान लगाया जा रहा था। कांग्रेस के सामने चुनौती है कि अगर सत्ताविरोधी लहर के बावजूद भी वह सम्मानजनक सफलता हासिल नहीं कर पाई तो लोकसभा चुनाव की वैतरणी कैसे पार करेगी? फिलहाल केंद्र में सत्तारूढ़ा नरेंद्र मोदी के खिलाफ तो कोई ज्यादा जनभावना नजर नहीं आ रही।
राजस्थान व मध्य प्रदेश में दोनों दलों को मिले मतों में भी कोई लंबा चौड़ा अंतर नहीं दिख रहा। छत्तीसगढ़ में जरूर कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी की है। इसी प्रकार यदि तेलंगाना में देखें तो तेलुगू देशम पार्टी के साथ गठबंधन करने की कीमत कांग्रेस को चुकानी पड़ी और वह दूसरे नंबर पर सिमट गयी। यह एकमात्र ऐसा राज्य रहा जहां संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुनावी रैली की थी। इसके अलावा मिजोरम की बात करें तो वहां से कांग्रेस साफ हो गई। इन परिणामों पर कांग्रेस को खुशी तो जतानी चाहिए लेकिन पार्टी को भाजपा को हल्के में लेने की कोशिश न करे क्योंकि कांग्रेस के लिए आसान लड़ाई में भी मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने उसे कांटे की टक्कर दी है। इन परिणामों से यह साबित हो गया कि देश में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के दिन लद गए और दलित तुष्टिकरण भी नहीं चलने वाला। समाज के एक वर्ग को प्रसन्न करने के लिए हिंदू आतंकवाद का जुमला उछालने वाले दिग्विजय सिंह अपनी यात्रा के दौरान माँ नर्मदा की परिक्रमा करते दिखे तो विकलीक्स के खुलासे के अनुसार भगवा आतंकवाद को लश्कर से अधिक खतरनाक बताने वाले राहुल गांधी की चलो मंदिर मुहिम ने और जोर पकड़ा। हिंदुओं को चिढ़ाने वाले दिग्गी राजा को कांग्रेस को अबकी बार चुनाव प्रचार से ही दूर रखना पड़ा। केवल इतना ही नहीं मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में गौ कल्याण की बात की और राम वन गमन सर्किट बनाने का वायदा तक किया है। चुनाव प्रचार के दौरान कुछ कांग्रेसी नेता तो यहां तक कहते पाए गए कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने पर ही अयोध्या में राममंदिर बन पाएगा।
चाहे कांग्रेस का यह हिंदुत्व बाकी सामी संप्रदायों की भांति केवल पूजा-पाठ तक सीमित है परंतु देशवासी संतोष कर सकते हैं कि चलो इतना ही सही कांग्रेस ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति से पिंड तो छुड़ाया। अल्पसंख्यकों की भांति देश में हिंदू समाज का दलित वर्ग भी तुष्टिकरण की प्रयोगशाला रहा है जिसमें भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एससी/एसटी एक्ट में जिस तरह सुधार का प्रयास किया और बिना जांच के गिरफ्तारी पर रोक लगाई उस फैसले को भाजपा ने संसद में विधेयक ला कर बदल दिया। यह दलित तुष्टिकरण की नीति का ही परिणाम है कि किसी भी दल ने इसका विरोध नहीं किया परंतु खमियाजा भुगता भाजपा ने। इससे समाज के अन्य वर्गों में यह संदेश गया कि भाजपा उनकी उचित शिकायत भी सुनने को तैयार नहीं है। इस मुद्दे पर विधेयक लाते समय भाजपा सबका साथ सबका विकास के अपने नारे से ही इधर-उधर होती दिखाई दी। इन चुनावों ने देश में समय-समय पर होने वाले मौकापरस्त गठबंधनों को भी सबक सिखाया है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और टीडीपी के गठजोड़ को तो पराजय मिली है साथ में छत्तीसगढ़ में भी मायावती व अजित जोगी का गठजोड़ कुछ खास नहीं कर पाया। संभावना जताई जा रही थी कि गठजोड़ इतनी सीटें अवश्य जुटा सकता है कि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहे परंतु प्रदेश की जनता ने उसे मुंह नहीं लगाया।
चाहे राजनीति में क्रिकेटिया भाषा का प्रचलन बढ़ गया और हर चुनाव को क्वार्टर फाईनल, सेमिफाइनल और भी न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा है परंतु सच्चाई यह है कि हर चुनाव चाहे वह पंचायत का हो या लोकसभा का अपने आप में फाइनल ही होता है। 2005 में राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ जीतने के बाद भी भाजपा लोकसभा चुनाव में पराजित हुई। 2008 में राजस्थान में कांग्रेस जीती और बाकी दो राज्यों में हारी परंतु इसके बावजूद लोकसभा चुनाव जीत गई। 2014 में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद देश में प्रचंड मोदी लहर होने के बावजूद दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने एकतरफा जीत हासिल की। इसके बाद इसी दिल्ली में निगम चुनावों में भाजपा जीती। कहने का भाव कि कोई चुनाव पूर्ववर्ती चुनावों का दोहराव नहीं होता। इसी कारण इन विधानसभा चुनाव परिणामों से 2019 की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। जो लोग इसके आधार पर भाजपा को बीता हुआ कल बताने लगे हैं वह गलती कर रहे हैं क्योंकि भाजपा मूर्छित हुई है परंतु पूरी तरह परास्त नहीं। भले ही कुछ राजनीतिक पंडित इस हार को एस/एसटी, मंदिर मुद्दा, जीएसटी समेत से जोडकर देख रहे है लेकिन यह मुद्दा स्थायी नही है। बेशक भाजपा की यह हार आगामी चुनावों में जीत के पर्याय के रूप में हो सकती है। क्योकि कुछ लोग इस हार को कार्यकर्ताओं की उपेक्षा को भी जिम्मेदार मान रहे है। हालांकि किसी भी पार्टी या संगठन को अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करना केवल नुकसान दायक होता है। उपेक्षा के माध्यम से ही किसी बडे संगठन या नेता का अभिर्भाव होना स्वाभाविक होता है जो बाद में यह साबित कर देता है कि उपेक्षा करना बडा भारी फेरबदल कर सकता है।
भारत के राजनीति में आज जिस तरह राजनेता व दलों के लोग खुलेआम मंच से धर्म व जांति की राजनीति करके आम जनता को गुमराह करने की कोशिश करते है यह बेशक ही भारत के लिए अच्छा संकेत नही है। देश के नेताओं को चाहिए कि देश के विकास व देश की तरक्की पर चर्चा करें लेकिन भारत में ज्यादातर नेता केवल शासन सत्ता के लिए पता नही कौन-कौन सी बयानबाजी कर देते है। लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर सभी भाजपा विरोधी नेता तैयारी में लगे है कि कैसे भाजपा सत्ता से दूर किया जाए जबकि भाजपा अपने शासन को बचाने की जुगत में है। लोकसभा चुनाव में ऊंट किस करवट बैठता है यह तो परिणाम व जनता का मूढ ही निश्चित करेगा। लेकिन यह निश्चित है कि पांच राज्यों में हुए चुनाव व उसके परिणामों को ध्यान में रखकर आगामी लोकसभा से तुलना करना पुर्णतः अनुचित है। क्योकि लोकसभा चुनाव के समय देश की जनता का मूड कैसा होगा? यह तो समय ही बताएगा।