राजनीति एक ऐसा शब्द है जिसकी चर्चा हर जगह अनवरत चलती है। गांव की चौपाल में अब आपसी दुखा सुखा नहीं होता। चाह अब चाय बन गयी है। जब चाहत ही नहीं है तो चाह कहां होगी। अब सिर्फ राजनीति की चर्चा होती है। सोशल मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अब तो चर्चाओं को विस्तार दे दिया है। गांव का प्रधान कितने शौचालय कागज पर बनवा दिया, कितने खड़ंजे में दोयम ईंट लगा दी गयी। इससे किसी को लेना देना नहीं है। अब चर्चाओं तो नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी ही नहीं बल्कि डोनाल्ड ट्रंप और इमरान खान भी होते हैं।
जब में स्कूल जाता था तो दोस्तों के बीच ‘राजनीति’ शब्द की व्याख्या बड़े अच्छे शब्दों में करता था। ”रा— राक्षस, ज— जनता, नी— नीतिपूर्वक, ति— तिकड़मबाजी । यानि राक्षस की तरह जनता को नीतिपूर्वं तिकड़मबाजी में फंसानेवाला। सच कहूं तो यह परिभाषा आज पूरी तरह सही है।
राजनीति करने वाले देश की सेवा का संकल्प लेते हैं। किन्तु वहीं राजनीतिक पार्टिंयां देश का भला नहीं सोचती। होना यह चाहिये कि विपक्ष जनता के प्रति एक सकारात्मक भूमिका निभाये। सरकार किसी की भी हो किन्तु जवाबदारी विपक्ष की भी होनी चाहिये। यदि जनता के लिये, देश के लिये कुछ अच्छा हो रहा है तो उसके बारे में बोले। किन्तु ऐसा नहीं है। किसी भी राजनीतिक दल को देश या समाज की नहीं बल्कि अपनी चिंता है। उसे सत्ता से मतलब है।
सीएए के विरोध में हुई हिंसा ने कितने लोगों का नुकसान कर दिया। कितनों के घर जले, कितने घायल हुये। कितनों की मौत हो गयी। क्या इसके लिये वे दोषी नहीं हैं जो आमलोगों को सीएए का हानि लाभ बताने की जगह विरोध करने को प्रेरित किया। सड़क पर उतरने का आह्वान किया। हिंसा करके माहौल खराब किया गया। भाजपा सिर्फ कानून बनाया किन्तु विरोधियों ने यह संदेश दिया कि भाजपा ही मुसलमानों के अलावा सबकी हितैषी है।
यहीं नहीं अपने हित को साधने के विरोधियों ने मुसलमानों को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया। आज अधिसंख्य हिन्दू यह सोचने लगा है कि मुसलमान बंग्लादेश और रोहिंग्या घुसपैठियों के लिये देश का विरोध कर सकता है। जो काम भाजपा इतने दिनों के प्रयास के बाद भी नहीं कर पायी थी। वह काम विरोधियों ने एक पल में कर दिया। दूसरी तरफ भाजपा अपनी इस अनपेक्षित जीत पर मुस्कुरा रही है। जबकि भाजपा ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे पर अडिग है।
निश्चित तौर पर इस हिंसा में बेगुनाह भी फंसे है। जो सिर्फ तमाशाई थे, जो भीड़ में मजा लेने दके लिये जुट जाते हैं। वे अब दंगाई का तमगा लिये घूम रहे हैं। क्या इसके असली दोषी राजनीतिक दल नहीं है। फिर बेगुनाहों को सजा क्यों?
अब कोई बोल रहा है कि वे सत्ता में आये तो मुकदमा वापस लेंगे। कोई कह रहा है जेल जाने वालों को पेंशन देंगे। कहने का लबोलुआब यह है कि सत्ता पाने की चाहत में लोगों के दर्द को वोट में बदलने की जुगत में हैं। सड़क पर उतरने का आह्वान करने वाले इस समय क्यों नहीं सामने आ रहे हैं। यह क्यों नहीं बोल रहे हैं कि तुम मेरे कहने पर ही चले इसलिये जेल जाना पड़ा। अब तुम्हारे लिये वकील मैं करूंगा। मुकदमा मैं लड़ूंगा। तुम्हारे घर का चूल्हा मैं जलाउंगा।
‘देश जलाओ, इनाम पाओ’ का लॉलीपाप देने वाले क्या चाहते हैं। इस पर मंथन करना होगा।