अभी कल की ही बात है जब मैं नई बाजार विवेकानन्द चौराहे से आगे बढ़ रहा था तो वहीं पर ठिठक गया। जिस चबूतरे को सजाकर कभी स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमा का अनावरण किया गया था। जिनके आदर्शो को अपनाने के लिये लंबे चौड़े भाषण दिये गये थे, उन्हीं की प्रतिमा को गत वर्ष अराजक तत्वों द्वारा तोड़ दिया गया। प्रतिमा तोड़ने के बाद कुछ बवाल भी हुआ और प्रशासन द्वारा नई प्रतिमा लगाने का अश्वासन दिया गया किन्तु आजतक किसी नेता, जनप्रतिनिधि या अधिकारी का ध्यान इसपर नहीं गया।
अक्सर इस रास्ते से गुजरते समय जब भी वीरान पड़े चबूतरे को देखता हूं, चबूतरे के आसपास फैली गंदगी को देखतो हूं तो कानों में एक अजीब सी आवाज का आभास होता है। अप्रतिम संन्यासी स्वामी विवेकानन्द जी जैसे कह रहे हों कि अब और मेरा अपमान मत करो, इस रास्ते से जब कोई गुजरता है और मेरी बेबसी को देखकर मजाक बनाता है तो मुझे अपमान महसूस होता है। अब चबूतरें को भी तोड़ दो, ताकि धीरे धीरे लोग भूल जाये कि यहा पर कभी मेरी प्रतिमा थी। लोग यह भी भूल जायें कि कुछ कथित समाजसेवियों ने लंबे चौड़े भाषण दिये थे। मेरे आदर्शो को अपनाने की नसीहत दी थी।
स्वामी विवेकानन्द जी जैसे कह रहे हों कि आज संस्कार विहीन हो रहे हिन्दुओं को मेरे आदर्श की आवश्कता नहीं है। हिन्दुत्व का झंडा ढोने वाले यह जानते ही नहीं कि हिन्दुत्व होता क्या है। मूर्तियां उनकी लगनी चाहिये जिनसे वोट मिलते हों। मैं तो वोट भी नहीं दिला सकता। तभी तो मेरा अपमान कर रहे हो। तनिक भी मानवता है तो तोड़ दो चबूतरा।
आखिर यह आवाजें जन प्रतिनिधियों को सुनाई क्यों नहीं देती। इसी रास्ते से गुजरने वाले नेताओं अधिकारियों को शर्मिन्दगी क्यों नहीं होती। एक साल बीतने के बावजूद भी किसी का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं जाता। लोगों को यह याद क्यों नहीं है कि स्वामी विवेकानन्द कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक विचार थे और विचार कभी मरा नहीं करते फिर उनकी प्रतिमा की क्या आवश्यकता है। स्वामी विवेकानन्द के अपमान का खंडहर बने इस चबूतरे को तोड़ क्यों नहीं दिया जाता।
आखिर आज के दौर में स्वामी विवेकानन्द के यह विचार प्रासंगिक क्यों नहीं हैं।
स्वामी विवेकानन्द के अनमोल वचन
- “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।” अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।
- मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है।
- सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं-शुद्धता,धैर्य और दृढ़ता। लेकिन, इन सबसे बढ़कर जो आवश्यक है वह है प्रेम।
- हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं।
- खुद को समझाएं, दूसरों को समझाएं। सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि यह कैसे जागृत होती है। सोई हुई आत्मा के का जागृत होने पर ताकत, उन्नति, अच्छाई, सब कुछ आ जाएगा।
- मेरे आदर्श को सिर्फ इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता हैः मानव जाति देवत्व की सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में हर कदम पर करे।
- शक्ति की वजह से ही हम जीवन में ज्यादा पाने की चेष्टा करते हैं। इसी की वजह से हम पाप कर बैठते हैं और दुख को आमंत्रित करते हैं। पाप और दुख का कारण कमजोरी होता है। कमजोरी से अज्ञानता आती है और अज्ञानता से दुख।
- अगर आपको तैतीस करोड़ देवी-देवताओं पर भरोसा है लेकिन खुद पर नहीं तो आप को मुक्ति नहीं मिल सकती। खुद पर भरोसा रखें, अडिग रहें और मजबूत बनें। हमें इसकी ही जरूरत है।