दुष्यंत कुमार एक ऐसा नाम जिन्हें कई लोग़ शायर ही नहीं मानते और कुछ लोग़ इन्हें इतना मानते हैँ की इनके मुकाबले में कोई शायर नज़र ही नहीं आता। दुष्यंत कुमार पर यूं तो बहूत कुछ लिखा गया, कहीं समय की जरूरत बताया गया तो कई जगह आलोचकों कि खरी-खोटी भी सुनने को मिली। बहूत साधारण सा दिखने वाला एक शायर रातों-रात इतना प्रसिध्द हो गया, यह बात कई बड़े शायरों, साहित्यकारों के गले भी नहीं उतर रही थी उस दौर में कई शायर हुये उस और कई अभी भी हैँ।
शायरों, साहित्यकारों, कवियों में अक्सर यह देखा जाता है़ की एक शायर दूसरे शायर या कवियों की तारीफ़ बहूत कम ही करता है़ और इस बात को सब बखूबी जानते है़। दुष्यंत ज़ी ने कई कालजयी शेर कहे जिन्हें हम अक्सर गुनगुनाते हैँ। कभी कोट करने की बात हो तो दुष्यंत कुमार उन में से एक माने जाते हैँ। आम बोल चाल की भाषा का इस्तेमाल शायरी में दुष्यंत कुमार ने प्रयोग में लाया, दुष्यंत कुमार की शायरी अहसास, जज्बात, और गहन सोच का सबूत देती नज़र आती है़। दुष्यंत ने अपने शेरों से यह तो बता दिया की ऊर्दू या हिन्दी के भारी भरकम शब्दों के इस्तेमाल के बिना भी शायरी की जा सकती है़। समाज कि कुरीतियों, व्यवस्थाओं पर तंज करना दुष्यंत कि खासियत रही। दुष्यंत को जहाँ तक कोट करने कि बात कि जाये तो संसद से गली के चौराहे पर हो रही सभाओं तक उन्हें कोट किया गया यह एक बड़ी खासियत रही।
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ।
कहाँ तो तय था चरागां हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है़
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है़
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है़।
दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के ग्राम राजपुर के नवादा में 1सितंबर 1933 को हुआ। शुरुवाती दिनों में दुष्यंत कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे। जिस समय दुष्यंत कुमार नें साहित्य की दुनियां में कदम रखा उस समय भोपाल में दो प्रगतिशील शायरों में ताज भोपाली तथा कैफ भोपाली का ग़ज़लों की दुनियां में राज था और हिन्दी में अघेय तथा माधव मुक्तिबोध की कठिन कविताएं और आम आदमी के समझ से परे थी। दुष्यंत कुमार की शायरी में कहीं आग की लपटें थी तो कहीं मन को शांत करने वाला शब्द थे। यूं तो प्यार मुहब्बत पर हजारों शेर कहे गये मगर दुष्यंत कुमार के पास समाज का दर्द को उकेरते, मन में कोलाहल मचाने वाले कई शेर थे जिसने दुष्यंत को दुष्यंत कुमार बनाया।
शायरी के अलावा दुष्यंत कुमार की कई कविताएं भी मन को छू जाती है़।
“”””कल मां नें यह क़हा
कि उसकी शादी तय हो गई है़ कहीं पर
मैं मूसकाया वहाँ मौन
रो दिया किन्तु कमरे में आकर
जैसे दो दुनियां हो मुझमें
मेरा कमरा औ मेरा घर””””
लागों नें तो ये तक क़हा कि मुट्ठी भर शेर कहने से कोई शायर नहीं बन जाता इस बात का जवाब उनकी ग़ज़लों नें दिया जिसमें हम समाज, साहित्य, व्यवस्था, इश्क़, मुहब्बत, कि कई सारे विषय आसानी से देख सकते हैं।
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कवंल के फूल कुम्लहाने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेशे – नज़र हम
आदमी को भून कर खाने लगे हैं
कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
खड़े हुए थे अलाव की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए
लहूलुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे, दूर जाके बैठ गए
हो गयी है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए
इस हिमाला से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पैर घुटनों तक सना है
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस यह मुद्दआ
यहां तक आते-आते सूख जाती हैं सभी नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा
देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती
चढ़ाता फिर रहा हूं जो चढ़ावे
तुम्हारे नाम पर बोले हुए हैं
तमाम रात तेरे मयकदे में मय पी है
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं
तुम्हें भी इस बहाने देख लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी
आंधी में सिर्फ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे
हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और
जो हमको ढूंढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा
तसव्वुर ऐसे ग़ैर – आबाद हल्क़ों तक चला आया।
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे क़ानून समझाने लगे हैं
कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नहीं रहे।
कुछ दुश्मनों से वैसी अदावत नहीं रही।
नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं।
ज़रा सी बात है दिल से निकल न जाए कहीं।
हुज़ूर आरिज़ो रुखसार क्या तमाम बदन
मेरी सुने तो मुजस्सम गुलाब हो जाए।
यह ज़ुबां हमसे सी नहीं जाती
जिंदगी है कि जी नहीं जाती।
मैं बेपनाह अंधेरों को सुब्ह कैसे कहूं।
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए।
कहीं पर शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।
तमाम रात तेरे मयकदे में मय पी है,
तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं।
मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर
और कुछ हो या न हो आकाश सी छाती तो है।
ग़जब है सच को सच कहते नहीं वे,
क़ुरानो उपनिषद खोले हुए हैं।
किसी संवेदना के काम आएंगे,
यहां टूटे हुए पर फेंक दो तुम भी
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें।
सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया।
दिल को बहला ले, इजाज़त है मगर इतना न उड़।
रोज़ सपने देख लेकिन इस कदऱ प्यारे न देख।
थोड़ी आग बनी रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो।
कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएंगे।
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
ऐसे कई शेर कहने वाला शायर, मनमौजी इंसान जिसे हम एक क्रांति के रूप में देखते हैं हमें 30दिसंबर को 1975 को कई खट्टी मीठी यादों यादों साथ छोड़ गया। दुष्यंत कुमार पर कई लेख आये सोचा उनके जन्मदिन पर मैं भी कुछ लिखूं और उनके कई शेर आप सबसे साझा कर रहा हूँ।