Home मन की बात जीवन में विपश्यना की अनिवार्यता और सत्यनारायण गोयनका की भूमिका- चंद्रवीर यादव

जीवन में विपश्यना की अनिवार्यता और सत्यनारायण गोयनका की भूमिका- चंद्रवीर यादव

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आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं। उस दुनिया में विपश्यना उसी प्रकार से जरूरी है जिस प्रकार से प्यासे के लिए पानी। वास्तव में विपश्यना शब्द का अर्थ होता है विशिष्ट प्रकार से देखना। अर्थात जो चीज जैसी है, उसके मूल रूप में देखना, ना कि जैसा उसके बारे में बताया जाता है। विपश्यना से शरीर की संवेदना पर ध्यान लगाया जाता है। हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों में संवेदनाएं हमेशा आती रहती है। संवेदना तकलीफ देने वाली भी हो सकती है,जैसे खुजली, दर्द, दबाव और गर्मी या सर्दी। साथ ही संवेदना सुखद भी हो सकती है, जैसे-वाइब्रेशंस महसूस होना। ना सुखद संवेदना से राग पालना है,न दुखद से द्वेष। बस हमें साक्षी भाव से देखना है। मन में यह भावना लाना है कि संवेदना सुखद हो या दुखद, वह हमेशा नहीं रहेगी। इसलिए समता में संतुलन की स्थिति में रहना है।

विपश्यना से हम आज के समय में रहने का अभ्यास पाते है। साथ ही वर्तमान को समता से देखने का भाव प्रबल होता है। इससे मन में विकार पैदा होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इसकी वजह से ही किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थिति से ना राग, ना द्वेष उत्पन्न होता है, और न ही बाहर की परिस्थितियों से मन की शांति भंग होती हैं।इसी समता भाव में स्थित होना ही निर्वाण है। इसकी वजह से मनुष्य सुख और दुःख दोनों स्थितियों में संतुलित रहता है।यहाँ तक कि छोटी-मोटी बीमारियाँ तो उसके पास आने से भी डरती हैं। कहने का मतलब वह निरोगी बना रहता है। इस तरह यह स्पष्ट होता है कि विभिन्न साधनाओं की तरह ही इस साधना का लक्ष्य भी दु:खों से मुक्ति पाना है।वैसे हमारे दु:ख का मूल कारण यह है कि हम सुखद और दु:खद दोनों संवेदनाओं के प्रति जैसे लगता है कि बेहोश होकर रिएक्ट कर जाते हैं। जब कि विपश्यना में संवेदना के स्तर पर ही सावधान होने का अभ्यास कराया जाता है। गंभीरता पूर्वक विचार किया जाएं तो पता चलता है कि जब कभी भी बाहरी दुनिया या मन के अंदर कुछ मनचाहा या अनचाहा घटता है तो मन में विकार जगता है, विकार यानी राग या द्वेष।इसका प्रभाव सर्वप्रथम सांसों पर पड़ता है। सामान्य ढंग से आने -जाने वाली सांस अनियमित हो जाती है। दूसरा असर पड़ता है हमारे शरीर पर। शरीर में अच्छी या बुरी संवेदना पैदा होती है। बाद में हम रिएक्ट करते हैं। यदि हम विकार पैदा होने पर सांस और संवेदना के लेवल पर ही अलर्ट हो जाएं तो बेहोशी से, अवचेतन मन से हमारा रिएक्ट करना रुक सकता है।

यही कारण है कि विपश्यना में सर से पांव तक हर अंग पर कुछ देर रूककर वहां की संवेदना को महसूस किया जाता है।आम जिंदगी में दुःखों से बचने के लिए हम बाहरी दुनिया को मैनेज करने में जुटे रहते हैं,यहाँ भीतर की दुनिया को, अपने अवचेतन मन को मैनेज करना सिखाया जाता है। 2500 साल पहले इसकी खोज गौतम बुद्ध ने की। विपश्यना मनुष्य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपश्यना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व है। इस शब्द का अर्थ होता है : देखना, लौटकर देखना। बुद्ध कहते थे : आओ और देखो। बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए कुछ भी मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना।विपश्यना (संस्कृत) या विपस्सना (पालि) यह गौतम बुद्ध द्वारा बताई गई एक बौद्ध योग साधना हैं। आज की इस दुनिया में भी यदि कुछ अच्छा है तो वह सत्य, त्याग और तपस्या ही है। इन सबके अलावा और भी कुछ भी नहीं है। जिसमें निःस्वार्थी लोगों का मन लगे। मुझे तो ऐसा लगता है कि मनुष्य यदि सचमुच में मनुष्य है तो निश्चित रूप से वह निःस्वार्थी ही होगा। इंसानियत का मूल मनुष्य में ही छिपा है।

आखिर इस संसार में मनुष्य क्यों जी रहा है। मुझे तो नहीं लगता वह किसी लाभ के लिए जी रहा है वह जी रहा है तो केवल और केवल सेवा के लिए,कृतज्ञता के लिए और दया के लिए।लेकिन जो आदर्श और जीवन में सफलता का मार्ग मिलता है।वह निश्चित रूप से और कहीं से नहीं बल्कि विपश्यना से मिलता है। विश्व में बुद्ध को सभी ने माना है स्वीकार किया है, अपनाया है और सार्वजनिक रूप से कहा है कि आज विश्व को युद्ध नहीं बुद्ध चाहिए। मुझे पूरी दुनिया में बुद्ध की शिक्षा ही श्रेष्ठ नजर आती है। आज हम सभी यही सोचते है कि यदि बुद्ध न होते तो किसी को पता भी न चलता कि त्याग क्या है, मृत्यु क्या है? यहां तक कि जीवन क्या है? संसार भर में जिस किसी को जीवन जीने की कला सीखना है,यदि वह सोचे की बिना विपश्यना के वह जीवन जी सकता है तो एक बात स्पष्ट है कि जीवन जीने के लिए जीवन जीना अलग है। हां यदि जीवन को जीवन्त रखने के लिए जीवन जीना है

तो निश्चित रूप से यह समझना होगा कि बुद्ध ने ध्यान की ‘विपश्यना-साधना’ द्वारा बुद्धत्व प्राप्त किया था। महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं में से एक विपश्यना भी है। यह वास्तव में सत्य की उपासना है। सत्य में जीने का अभ्यास है। विपश्यना इसी क्षण में यानी तत्काल में जीने की कला है। भूत की चिंताएं और भविष्य की आशंकाओं में जीने की जगह बुद्ध ने अपने शिष्यों को आज के बारे में सोचने के लिए कहा। विपश्यना सम्यक् ज्ञान है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देख-समझकर जो आचरण होगा, वही सही और कल्याणकारी सम्यक आचरण होगा। विपश्यना जीवन की सच्चाई से भागने की शिक्षा नहीं देता है, बल्कि यह जीवन की सच्चाई को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने की प्रेरणा देता है। आज 29सितंबर को सचमुच में एक ऐसा निस्वार्थ भाव से भरे विपश्यना को 1969में म्यांमार से भारत में लेकर आने वाले दिवंगत सत्यनारायण गोयनका की छठवीं पुण्यतिथि है।

सन् 2013 में इसी दिन 89वर्ष की उम्र में उनका देहांत हुआ था। तब से लेकर आज तक विपश्यना के विषय में जब भी चर्चा होती है।तो उनके त्याग की भी चर्चा अवश्य ही होती है।दस दिन का रिहायशी विपश्यना का कोर्स जिस किसी ने भी किया है, उसे तो लगता है कि विपश्यना में ही जीवन है। वास्तव में कोर्स के पहले दिन आती-जाती सांस को लगातार देखना होता है। इसे आनापान कहते हैं। आनापान दो शब्दों आन और अपान से बना है। आन मतलब आने वाली सांस। अपान मतलब जाने वाली सांस। इसमें किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठकर आँखें बंद की जाती है। कमर और गर्दन सीधी रखी जाती है। फिर अपनी नाक के दोनों छेदों पर मन को फोकस कर दिया जाता है और हर सांस को नाक में आते-जाते महसूस किया जाता है। सांस नार्मल तरीके से ही लेनी होती है। सांस देखते-देखते एहसास होता है कि हमारा मन कितना चंचल है।

मन को बार -बार खींचकर सांस पर लाना पड़ता है। पहले तीन दिन बस यही करना होता है। चौथे दिन विपश्यना सिखाई जाती है और बाकी सात दिन प्रैक्टिस कराई जाती है। जब दस दिन का कोर्स समाप्त होता है उस दिन ऐसा लगता है कि विपश्यना के लिए दस दिन प्रर्याप्त नहीं है। उसका मूल कारण इस कोर्स में छिपी हुई वह शक्ति है जो लोगों को जीवन में सफलता हासिल ही नहीं कराती है बल्कि जीवन को जीव से जोड़ देती है। अर्थात जीवन में जीवंतता आ जाती है। वास्तव में अपना संपूर्ण जीवन विपश्यना की बौद्ध धम्म की विपश्यना विद्या को समर्पित करने वाले दिवंगत सत्यनारायण गोयनका ने जो कार्य विपश्यना के लिए किया वह सचमुच में उन्हें सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करता है।

चंद्रवीर बंशीधर यादव (शिक्षाविद्)।
संपर्क-20बी, यादवेश कोआपरेटिव्ह हाऊसिंग सोसायटी, देवकी शंकर नगर,तुलशेत पाडा,लेक पथ, भांडुप पश्चिम,मुंबई-400078 मोबाइल नंः9322122480

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