आज गुड़गांव में एक भूमिहार मजदूर अपनी अंतिम पूंजी एक साधारण मोबाइल सेट बेचकर दो दिन का राशन जुटाकर अपने परिवार को अंतिम विदा कह गया। मीडिया में खबर बन गई अनोखी घटना की तरह हमने पढ़ा व थोड़े मुतमइन भी हुए।आंखों में आंसू लिये सुबह से सोच रहा हूं कि आम इन्सान जो अपना गांव छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहता उसे अपने ही गांव में दो रोटी कमा सके ऐसे काम क्यों नही हैं। आम लोग जो पहले गांव के किसानों व उनके परिवारों के पचीसों काम कर कृषि से उपजे धन पर जीवन चला लेते थे उन सबके काम कहां छिन गये। गांधी को भुनाने वाले तमाम सत्ताधारियों ने गांव के किसान को अन्नदाता का गौरव व उस पर आश्रितों के कार्यों को गौरव क्यों नहीं दिया। सारे लोग शरीर बेचने शहर क्यों भाग आए जहां अन्न का एक भी दाना नही उगाया जाता ।
सब नौकरी करना चाहते हैं। क्योंकि गांव में एक पांच आदमी के गरीब मजदूर परिवार को पचीस रुपये रोज पैदा कर सके इतना भी अवसर नहीं है। बीस एकड़ तक का किसान अपने खेत में बस मजदूर है, वह दो परिवार को साल भर खर्च नहीं दे सकता। कृषि सम्मान जनक काम नहीं रहा। उसमें कोई कैरियर नहीं तलाशता। आधुनिक व यांत्रिक कृषि चीन व जापान करेंगे हम बस फिल्में दिखाते रहेंगे। किसान का बेटा कृषि में कैरियर नहीं तलाश रहा क्योंकि न बीज, न खाद, न जमीन, न पैदावर का मूल्य, न बीमा कुछ भी नहीं है जो उसे आर्थिक समृद्धि दे सके। यही कारण है कि गांव के आदमी बाहर भागने को मजबूर हैं । वे आदमी नहीं रहे, वे अब मजदूर हैं । जिसे शहर में शरण नहीं है वह टपरों के नीचे रेंगता है। उसकी औरत के वक्ष आसानी से नल के नीचे खुले में देखे जा सकते हैं ।
उसके बच्चे व स्त्री को कार्य स्थल पर पालनाघर व स्तनपान कराने की कोई सुविधा नहीं है। वह शहर का वोटर भी नहीं है। उसका कोई घर नहीं है तो आधार कार्ड भी नहीं है। गांव का कार्ड सरपंच नष्ट कर चुका है। वह दो हाथ पांव वाला जन्तु है जिसे प्लेट में रखकर खाया नहीं जा सकता। पर एक प्लेट खाने पर जीवित रखकर चिमनी व गटर साफ करने उतारा जा सकता है। उसे एक पैकेट राशन देकर फोटो ली जा सकती है। वह जो गांव के एक घर का मुखिया था कतार में खड़ा अपनी बारी का इंतजार कर रहा है ।
(चित्र व शब्दांकन : किशोर अग्रवाल, पूर्व उप पुलिस महा निरीक्षक छत्तीसगढ़)