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गणपति बप्पा मोरया। इस बार कई योग बन कर 11 दिन धरती पर सबके अतिथि बन निवास करेगें गणपति बप्पा  

atul shashtri

हमारे मन मंदिर में बसनेवाले विघ्नहर्ता भगवान गणेश इस वर्ष 2  सितम्बर को एक बार फिर हम सभी के घरों में 11 दिनों तक अतिथि स्वरूप रहने के लिए आ रहे हैं। महाराष्ट्र के अलावा भारत में हर साल गणेश चतुर्थी का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी पर लोग अपने घरों में भगवान गणेश की स्थापना करते हैं। धार्मिक मान्यता है कि 11 दिन तक विघ्नहर्ता भगवान गणेश धरती पर निवास करते हैं। गणेश उत्सव भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से चतुर्दर्शी तक चलता है। कहते हैं चतुर्थी के ही दिन सभी देवताओं में सबसे पहले पूजे जाने वाले देवता भगवान गणेश जी का जन्म मध्यकाल में हुआ था।  मान्यता है कि बुद्धि के देवता भगवान गणेश की उपासना से कार्यों में सफलता हासिल होती है और साथ ही इंसान को ऐश्वर्य भी हासिल होता है। यही वजह है कि भक्तों की पुकार पर विघ्नहर्ता भगवान गणेश, कैलाश पर्वत छोड़कर धरती पर अपने भक्तों को आशीर्वाद देने आते हैं।

स्थापना का समय:- भगवान गणेश का जन्म मध्यकाल में होने के कारण इस समय को गणेश जी की स्थापना के लिए काफी शुभ माना जाता है. इस बार 2 सितंबर मध्याह्न को गणेश पूजा का और स्थापना का समय सुबह 11 बजकर 55 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 55 मिनट तक है। गणेश चतुर्थी की पूजा की अवधि अनंत चतुर्दशी तक चलती है अर्थात इस वर्ष गणेश उत्सव 12 सितंबर 2019 तक चलेगा और गुरुवार को अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश विसर्जन होगा। लंबे समय बाद इस बार गणेश चतुर्थी पर दो शुभ योग और ग्रहों का शुभ संयोग बन रहा है। जिसकी वजह से गणेश चतुर्थी का महत्व बढ़ गया है। 2 सितंबर दिन सोमवार की शुरुआत हस्त नक्षत्र में होगी और गणेश प्रतिमाओं की स्थापना चित्रा नक्षत्र में की जाएगी। मंगल के इस नक्षत्र में चंद्रमा होने से शुभ फल की प्राप्ति होती है। चित्रा नक्षत्र और चतुर्थी तिथि का संयोग 2 सितंबर को सुबह लगभग 8 बजे से शुरू होकर पूरे दिन रहने वाला है।

गणेश पूजन के लिए मध्याह्न मुहूर्त:-

2 सितंबर

मध्याह्न गणेश पूजा – 11:05 से 13:36

चंद्र दर्शन से बचने का समय- 08:55 से 21:05 (2 सितंबर 2019)

चतुर्थी तिथि आरंभ- 04:56 (2 सितंबर 2019)

चतुर्थी तिथि समाप्त- 01:53 (3 सितंबर 2019

गणेश चतुर्थी व्रत व पूजन विधि:-

1.  व्रती को चाहिए कि प्रातः स्नान करने के बाद सोने, तांबे, मिट्टी की गणेश प्रतिमा लें।

2.  एक कोरे कलश में जल भरकर उसके मुंह पर कोरा वस्त्र बांधकर उसके ऊपर गणेश जी को विराजमान करें।

3.  गणेश जी को सिंदूर व दूर्वा अर्पित करके 21 लडडुओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू गणेश जी को अर्पित करके शेष लड्डू गरीबों या ब्राह्मणों को बाँट दें।

4.  सांयकाल के समय गणेश जी का पूजन करना चाहिए। गणेश चतुर्थी की कथा, गणेश चालीसा व आरती पढ़ने के बाद अपनी दृष्टि को नीचे रखते हुए चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिए।

5.  इस दिन गणेश जी के सिद्धिविनायक रूप की पूजा व व्रत किया जाता है। गणेश पूजन में गणेश जी की एक परिक्रमा करने का विधान है। मतान्तर से गणेश जी की तीन परिक्रमा भी की जाती है।

माना जाता है कि गणेश चतुर्थी पर पृथ्वी पर नारियल तोड़ने की क्रिया वातावरण से सभी नकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित करने में सफलता को सुनिश्चित करता है। अत: नारियल अवश्य तोड़ें।

भगवान श्री गणेश जी को सभी प्रसन्न करना चाहते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं यदि राशि के अनुसार भगवान् श्रीगणेश को भोग लगाया जाए तो वे बहुत प्रसन्न होते है और भक्त के सभी कष्टों का निवारण करते है।

तो आइए जानते हैं राशि के अनुसार क्या भोग लगाना चाहिए:-

मेष:- मेष राशि वाले जातक गुड़ का भोग लगाएं और गं मंत्र का जाप करें।

वृषभ:-वृषभ राशि वाले जातक घी और मिश्री को मिलकर भोग लगाएं तथा साथ में गं मंत्र का जाप करें।

मिथुन:- मिथुन राशि वाले जातक गणेश जी को मुंग के लड्डुओं का भोग लगाएं और श्री गणेशाय नम: मंत्र का जाप करें।

कर्क:- कर्क राशि वाले जातक सफ़ेद फूलों की माला और चन्दन का तिलक लगाएं। इसके साथ ही ॐ वरदाय मंत्र का जाप करें।

सिंह:- सिंह राशि के जातक भगवान गणपति को लाल रंग व लाल पुष्प चढ़ाएं। इसके साथ ही ॐ सुमंगलाये नम: मंत्र का जाप करें।

कन्या:- कन्या राशि वाले जातक दूर्वा के 21 जोड़े अर्पित करें और ॐ चिंतामणये नम: मंत्र का जाप करें।

तुला:- तुला राशि के जातक गंगा जल से बप्पा को स्नान कराएं और 5 नारियल के साथ में ॐ वक्रतुण्डाय नम: मंत्र का जाप करें।

वृश्चिक:- वृश्चिक राशि वाले जातक बप्पा को सिंदूर और लाल पुष्प अर्पित करें। इसके साथ ही ॐ नमो भगवते गजाननाय मंत्र का जाप करें।

धनु:- धनु राशि वाले जातक पीले वस्त्र, पीले पुष्प तथा बेसन के लड्डुओं का भोग लगाएं। इसके साथ ही ॐ गं गणपते नम: मंत्र का जाप करें।

मकर:- मकर राशि वाले जातक बप्पा को पान, सुपारी, इलायची व लौंग चढ़ाएं। वहीं ॐ गं मंत्र का जाप करें।

कुंभ:- कुंभ राशि वाले जातक पंचामृत तथा मूंग की खिचड़ी का भोग लगाएं और साथ ही ॐ गं रोग मुक्त मंत्र का जाप करें।

मीन:- मीन राशि वाले जातक केसर व शहद का भोग लगाएं तथा ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा मंत्र का जाप करें।

यह बात बहुत कम लोग जानते हैं लेकिन ग्रंथो के अनुसार भगवान श्री गणेश को भगवान  श्री कृष्ण का अवतार बताया गया है और भगवान श्री कृष्ण स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। लेकिन जो तुलसी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है, वही तुलसी भगवान श्री गणेश को अप्रिय है, इतनी अप्रिय की भगवान गणेश के पूजन में इसका प्रयोग वर्जित है। परन्तु ऐसा क्यों है इसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है:

एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप कर रहे थे। इसी कालावधि में धर्मात्मज की नवयौवना कन्या तुलसी ने विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान किया। देवी तुलसी सभी तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते हुए गंगा के तट पर पंहुची। गंगा तट पर देवी तुलसी ने युवा तरुण गणेश जी को देखा जो तपस्या में लीन थे। शास्त्रों के अनुसार तपस्या में लीन गणेश जी रत्न जड़ित सिंहासन पर विराजमान थे। उनके समस्त अंगों पर चंदन लगा हुआ था। उनके गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे। उनके कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था। तुलसी, श्री गणेश के रुप पर मोहित हो गई और उनके मन में श्री गणेश से विवाह करने की इच्छा जागृत हुई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया।

श्री गणेश द्वारा अपने विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने से देवी तुलसी बहुत दुखी हुई और आवेश में आकर उन्होंने श्री गणेश के दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने का शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा। किंतु फिर तुम भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा। तब से भगवान श्री गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है।

भगवान श्री गणेश के 8 अवतार

हममें से कई यह बात जानते होंगे कि भगवान शिव के 19 तथा भगवान विष्णु के 24 अवतार हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि अन्य सभी देवताओं के समान ही भगवान श्री गणेश ने भी आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए 8 अवतार लिए हैं। श्रीगणेश के इन अवतारों का वर्णन गणेश पुराण, मुद्गल पुराण, गणेश अंक आदि ग्रंथो में मिलता है।

तो आइए जानते हैं श्री गणेश के 8 अवतारों के बारे में:

1. वक्रतुंड- वक्रतुंड का अवतार राक्षस मत्सरासुर के दमन के लिए हुआ था। मत्सरासुर शिव भक्त था और उसने शिव की उपासना करके वरदान पा लिया था कि उसे किसी से भय नहीं रहेगा। मत्सरासुर ने देवगुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से देवताओं को प्रताडि़त करना शुरू कर दिया। उसके दो पुत्र भी थे, सुंदरप्रिय और विषयप्रिय, दोनों ही अपने पिता के समान बहुत अत्याचारी थे। सारे देवता शिव की शरण में पहुंच गए। शिव ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे गणेश का आह्वान करें, गणपति वक्रतुंड अवतार लेकर आएंगे। देवताओं ने आराधना की और गणपति ने वक्रतुंड अवतार लिया। वक्रतुंड भगवान ने मत्सरासुर के दोनों पुत्रों का संहार किया और मत्सरासुर को भी पराजित कर दिया। वही मत्सरासुर कालांतर में गणपति का भक्त हो गया।

2. एकदंत:- महर्षि च्यवन ने अपने तपोबल से मद की रचना की। वह च्यवन का पुत्र कहलाया। मद ने दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से दीक्षा ली। शुक्राचार्य ने उसे हर तरह की विद्या में निपुण बनाया। शिक्षा होने पर उसने देवताओं का विरोध शुरू कर दिया। सारे देवता उससे प्रताडि़त रहने लगे। मद इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसने भगवान शिव को भी पराजित कर दिया। सारे देवताओं ने मिलकर गणपति की आराधना की। तब भगवान गणेश एकदंत रूप में प्रकट हुए। उनकी चार भुजाएं थीं, एक दांत था, पेट बड़ा था और उनका सिर हाथी के समान था। उनके हाथ में पाश, परशु और एक खिला हुआ कमल था। एकदंत ने देवताओं को अभय वरदान दिया और मदासुर को युद्ध में पराजित किया।

3. महोदर:- जब कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने मोहासुर नाम के दैत्य को संस्कार देकर देवताओं के खिलाफ  खड़ा कर दिया। मोहासुर से मुक्ति के लिए देवताओं ने गणेश की उपासना की। तब गणेश ने महोदर अवतार लिया। महोदर का उदर यानी पेट बहुत बड़ा था। वे मूषक पर सवार होकर मोहासुर के नगर में पहुंचे तो मोहासुर ने बिना युद्ध किये ही गणपति को अपना इष्ट बना लिया।

4. गजानन:- एक बार धनराज कुबेर भगवान शिव-पार्वती के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचा। वहां पार्वती को देख कुबेर के मन में काम प्रधान लोभ जागा। उसी लोभ से लोभासुर का जन्म हुआ। वह शुक्राचार्य की शरण में गया और उसने शुक्राचार्य के आदेश पर शिव की उपासना शुरू की। शिव लोभासुर से प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे सबसे निर्भय होने का वरदान दिया। इसके बाद लोभासुर ने सारे लोकों पर कब्जा कर लिया और खुद शिव को भी उसके लिए कैलाश को त्यागना पड़ा। तब देवगुरु ने सारे देवताओं को गणेश की उपासना करने की सलाह दी। गणेश ने गजानन रूप में दर्शन दिए और देवताओं को वरदान दिया कि मैं लोभासुर को पराजित करूंगा। गणेश ने लोभासुर को युद्ध के लिए संदेश भेजा। शुक्राचार्य की सलाह पर लोभासुर ने बिना युद्ध किए ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली।

 

5. लंबोदर:- समुद्रमंथन के समय भगवान विष्णु ने जब मोहिनी रूप धरा तो शिव उन पर मोहित हो गए। उनका शुक्र स्खलित हुआ, जिससे एक काले रंग के दैत्य की उत्पत्ति हुई। इस दैत्य का नाम क्रोधासुर था। क्रोधासुर ने सूर्य की उपासना करके उनसे ब्रह्मांड विजय का वरदान ले लिया। क्रोधासुर के इस वरदान के कारण सारे देवता भयभीत हो गए।  वो युद्ध करने निकल पड़ा। तब गणपति ने लंबोदर रूप धरकर उसे रोक लिया। क्रोधासुर को समझाया और उसे ये आभास दिलाया कि वो संसार में कभी अजेय योद्धा नहीं हो सकता। क्रोधासुर ने अपना विजयी अभियान रोक दिया और सब छोड़कर पाताल लोक में चला गया।

6. विकट:- भगवान विष्णु ने जलंधर के विनाश के लिए उसकी पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग किया। उससे एक दैत्य उत्पन्न हुआ, उसका नाम था कामासुर। कामासुर ने शिव की आराधना करके त्रिलोक विजय का वरदान पा लिया। इसके बाद उसने अन्य दैत्यों की तरह ही देवताओं पर अत्याचार करने शुरू कर दिए। तब सारे देवताओं ने भगवान गणेश का ध्यान किया। तब भगवान गणपति ने विकट रूप में अवतार लिया। विकट रूप में भगवान मोर पर विराजित होकर अवतरित हुए। उन्होंने देवताओं को अभय वरदान देकर कामासुर को पराजित किया।

7. विघ्नराज:- एक बार पार्वती अपनी सखियों के साथ बातचीत के दौरान जोर से हंस पड़ीं। उनकी हंसी से एक विशाल पुरुष की उत्पत्ति हुई। पार्वती ने उसका नाम मम (ममता) रख दिया। वह माता पार्वती से मिलने के बाद वन में तप के लिए चला गया। वहीं उसकी मुलाकात शम्बरासुर से हुई। शम्बरासुर ने उसे कई आसुरी शक्तियां सीखा दीं। उसने मम को गणेश की उपासना करने को कहा। मम ने गणपति को प्रसन्न कर ब्रह्मांड का राज मांग लिया।

शम्बर ने उसका विवाह अपनी पुत्री मोहिनी के साथ कर दिया। शुक्राचार्य ने मम के तप के बारे में सुना तो उसे दैत्यराज के पद पर विभूषित कर दिया। ममासुर ने भी अत्याचार शुरू कर दिए और सारे देवताओं के बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। तब देवताओं ने गणेश की उपासना की। गणेश विघ्नराज के रूप में अवतरित हुए। उन्होंने ममासुर का मान मर्दन कर देवताओं को छुड़वाया।

8. धूम्रवर्ण:- एक बार भगवान ब्रह्मा ने सूर्यदेव को कर्म राज्य का स्वामी नियुक्त कर दिया। राजा बनते ही सूर्य को अभिमान हो गया। उन्हें एक बार छींक आ गई और उस छींक से एक दैत्य की उत्पत्ति हुई। उसका नाम था अहम। वो शुक्राचार्य के समीप गया और उन्हें गुरु बना लिया। वह अहम से अहंतासुर हो गया। उसने खुद का एक राज्य बसा लिया और भगवान गणेश को तप से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिए।

उसने भी बहुत अत्याचार और अनाचार फैलाया। तब गणेश ने धूम्रवर्ण के रूप में अवतार लिया। उनका वर्ण धुंए जैसा था। वे विकराल थे। उनके हाथ में भीषण पाश था जिससे बहुत ज्वालाएं निकलती थीं। धूम्रवर्ण ने अहंतासुर का पराभाव किया। उसे युद्ध में हराकर अपनी भक्ति प्रदान की।

भगवान श्री गणेश के 8 अवतारों से जुडी 8 कहानियाँ तो आपने पढ़ लीं लेकिन क्या आप जानते हैं कि सुख-समृद्धि तथा बुद्धि के देवता श्री गणेश जी के पीठ के दर्शन गलती से भी नहीं करने चाहिए. ऐसा क्यों ? दरअसल इस संदर्भ में भी हमारे पुराणों में कुछ बातों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है।

यूँ तो गणेश जी को रिद्धि-सिद्धि का दाता माना गया है परन्तु इनकी पीठ के दर्शन करना वर्जित है क्योंकि गणेशजी की पीठ पर दरिद्रता का वास होता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार गणेश जी के शरीर पर जीवन और ब्रह्मांड से जुड़े अंग निवास करते हैं, जो इस प्रकार हैं। गणेशजी की सूंड पर धर्म विद्यमान है तो कानों पर ऋचाएं, दाएं हाथ में वर, बाएं हाथ में अन्न, पेट में समृद्धि, नाभी में ब्रह्मांड, आंखों में लक्ष्य, पैरों में सातों लोक और मस्तक में ब्रह्मलोक विद्यमान है। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी के सामने से दर्शन करने पर उपरोक्त सभी सुख-शांति और समृद्धि प्राप्त हो जाती है लेकिन उनके पीठ का दर्शन गलती से भी न करें. माना जाता है कि उनके पीठ पर दरिद्रता का निवास होता है। अत: गणेश जी की पीठ के दर्शन करने वाला व्यक्ति यदि बहुत धनवान भी हो तो उसके घर पर दरिद्रता का प्रभाव बढ़ जाता है। इसी वजह से इनकी पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए। यदि जाने-अनजाने गलती से पीठ देख भी लें तो श्री गणेश जी से क्षमा याचना कर उनका पूजन करें।

शिवमहापुराण के अनुसार श्रीगणेश के शरीर का रंग लाल और हरा है। श्री गणेश जी को जो दूर्वा चढ़ाई जाती है वह जडऱहित, बारह उंगल लम्बी और 3 गांठों वाली होनी चाहिए। ऐसी 101 या 121 दूर्वाओं से श्री गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। इसे चढ़ाने से भगवान गणेश तुरंत प्रसन्न होते हैं। दूर्वा यानि दूब, एक तरह की घास होती है जो गणेश पूजन में प्रयोग होती है। एक मात्र गणेश ही ऐसे देव है जिनको यह चढ़ाई जाती है। दूर्वा गणेश जी को अतिशय प्रिय है। इक्कीस दूर्वा को इक्कठी कर एक गांठ बनाई जाती है तथा कुल 21 गांठ गणेश जी को मस्तक पर चढ़ाई जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं आखिर दूर्वा की 21 गांठे ही क्यों गणेश जी को चढ़ाई जाती है ?  इसके लिए भी पुराणों में एक कथा है, जो इस प्रकार है।

कथा के अनुसार प्राचीन काल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था। इस दैत्य के कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राही-त्राही मची हुई थी। अनलासुर ऋषि-मुनियों और आम लोगों को जिंदा निगल जाता था। दैत्य से त्रस्त होकर देवराज इंद्र सहित सभी देवी-देवता और प्रमुख ऋषि-मुनि महादेव से प्रार्थना करने पहुंचे। सभी ने शिवजी से प्रार्थना की कि वे अनलासुर के आतंक का नाश करें।

शिवजी ने सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों की प्रार्थना सुनकर कहा कि अनलासुर का अंत केवल श्री गणेश ही कर सकते हैं। जब श्री गणेश ने अनलासुर को निगला तो उनके पेट में बहुत जलन होने लगी। कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी गणेशजी के पेट की जलन शांत नहीं हो रही थी। तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर श्री गणेश को खाने को दी। जब गणेश जी ने दूर्वा ग्रहण की तो उनके पेट की जलन शांत हो गई। तभी से श्री गणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई।

ऐसी मान्यता है कि जिसने सबसे  पहले गणेश चतुर्थी का उपवास रखा था वे चन्द्र (चन्द्रमा) थे। हुआ यूँ कि एक बार  गणेश स्वर्ग की यात्रा कर रहे थे तभी वो चन्द्रमा से मिले। उसे अपनी सुन्दरता पर बहुत घमण्ड था और वो गणेश जी की आकृति देख हँस पड़ा। तब गणेश जी क्रोधवश उसे उन्हें श्राप दे दिया। चन्द्रमा बहुत उदास हो गए और गणेश जी से माफी मांगने लगे। चन्द्रमा की याचना से द्रवित होकर अन्त में भगवान गणेश ने उसे श्राप से मुक्त होने के लिये पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ गणेश चतुर्थी का व्रत रखने की सलाह दी।

मान्यता है की इस दिन चंद्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए वरना कलंक का भागी होना पड़ता है। अगर भूल से चन्द्र दर्शन हो जाए तो इस दोष के निवारण के लिए नीचे लिखे मन्त्र का 28, 54 या 108 बार जाप करें। श्रीमद्भागवत के दसवें स्कन्द के 57वें अध्याय का पाठ करने से भी चन्द्र दर्शन का दोष समाप्त हो जाता है।

चन्द्र दर्शन दोष निवारण मन्त्र:

सिंहःप्रसेनमवधीत् , सिंहो जाम्बवता हतः।

सुकुमारक मा रोदीस्तव, ह्येष स्यमन्तकः।

चन्द्र दर्शन दोष निवारण मन्त्र:

सिंहःप्रसेनमवधीत् , सिंहो जाम्बवता हतः।

सुकुमारक मा रोदीस्तव, ह्येष स्यमन्तकः।।

ज्योतिष सेवा केन्द्र
पण्डित अतुल शास्त्री
09594318403/9820819501

 

 

 

 

 

 

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