रिपोर्ट-रामलाल साहनी
लालगंज- परिवर्तन और प्रगति के नाम पर मानव ने अपनी स्वर्णिम शक्ति खो दी है। पुराने ढ़ांचे ढह रहे हैं और मानव जाति एक अनजाने अंधेरे में खो रही है। यद्यपि वाणिज्य और विज्ञान ने पृथ्वी को एक छोटा सा स्थल बना दिया है। व्यक्ति विश्व के विशाल एवं विस्तृत संदर्भ में तथा उत्तम आदर्शों की परिपूर्ति की दिशा में भटक गया है तथा वह समाज का और अपना विध्वसंक शत्रु बन रहा है। अंहकार, स्वार्थ, घृणा, विक्षेप तथा विषाद से अभिभूत होकर मानव और मानव जाति आत्मघाती हो गए हैं। बुद्धिवाद के नाम पर तर्क-कुतर्क बन गया है तथा मानव अपने चारों ओर सारे ढाँचे ध्वस्त करने में सुख मान रहा है। उक्त बातें पूज्यपाद अनंतश्री विभूषित काशीधर्मपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ महाराजश्री ने लालगंज विकासखंड के गगंहरा कला ग्रामान्तर्गत प्राथमिक विद्यालय परिसर में चल रहे पांच दिवसीय आध्यात्मिक प्रवचन के अवसर पर तृतीय दिवस गुरुवार को कही। महाराजश्री ने बताया, मशीन ने मानव को प्रकृति से दूर हटाकर मशीनी, विलासप्रिय, आलसी और दुर्बल बना दिया है। उसके शरीर और मन की प्रतिरोधात्मक शक्ति विलुप्त हो गई है और वह छोटे से झंझावात में घिरकर दयनीय हो गया है।
विज्ञान के आधार पर सभ्यता में परिवर्तन एवं प्रगति होने पर भी मानव के भय, क्रोध, प्रतिशोध इत्यादि उद्वेग ज्यों के त्यों ही हैं, यद्यपि उन्हें प्रकट करने के तरीके बदल गए हैं तथा कुटिल हो गए हैं। आज मनुष्य न्याय और सिध्दांत की रक्षा के लिए नहीं बल्कि अंहकार और ईर्ष्या-द्वेष के कारण लड़ रहा है। मनुष्य अपने पड़ोसी के मकान, दुकान, स्त्री और बच्चों को सहयोगी के बदले शत्रु बना रहा है। विश्व के स्तर पर राष्ट्र भी यही कर रहे हैं। ऐसी विस्फोटक दशा में परमाणु युग किस ओर संकेत कर रहा है ? व्यक्ति के जीवन में स्वभाव की शक्तियों के अतिरिक्त कुछ अन्य विवशता भी कभी-कभी उसे घेरकर असहाय और दीन बना देती है। जब वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर यह नहीं समझ पाता कि राह पाने के लिए उसे क्या करना चाहिए, तब मात्र भय, चिंता और विषाद उसके मन को अँधकार से भर देते हैं और उसे कहीं भागने का अवसर भी नहीं मिलता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि, जो ईश्वर को जैसे मानता है, ईश्वर भी उसे वैसे ही स्वीकार कर लेता है। एक ही ईश्वर अनेक देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता है। विविध पात्रों में रखा हुआ जल वास्तव में एक ही होता है। अपने स्वभाव एवं रुचि के अनुरूप किसी देवी-देवता को इष्ट मानकर पूजा करना उसी एक परमात्मा की पूजा है। पूजा रूपी सब नदियाँ एक ही परमात्मा को पहुँच जाती हैं। अपने इष्ट देव में परमात्मा का ही भाव होना चाहिए। परमात्मा तो मनुष्य के भाव को देखता है और स्वीकार करता है।
पूज्य शंकराचार्य जी ने बताया कि, किसी भी मार्ग की साधना करते-करते मनुष्य ऐसी उच्चावस्था को प्राप्त हो जाता है, जब उसके पूर्णतः ईश्वरीय हो जाने पर सामान्य अर्थ में उसके कर्म छूटने लगते हैं।
‘तस्य कार्य न विद्यते ‘
उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह जीवित रहते हुए भी मुक्त हो जाता है। उसके संकल्प में ऐसी शक्ति होती है कि उसके सोचते मात्र से अन्य जन में प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है तथा वे उसके सहायक सकल्प को पूरा करने के लिए कर्म करने लगते हैं। परिपक्व सिद्धावस्था में वह सामान्य कर्मशीलता से छूटकर पूर्ण सन्यासी के रूप में शुकदेव, सनकादिक, दत्तात्रेय, शंकराचार्य की भाँति नितान्त निवृत्त होकर केवल ईश्वरीय चेतना में लीन रह सकता है अथवा यदि वह चाहे तो देह यात्रा के पूर्ण होने तक लोक संग्रह अथवा लोक के उपकार के लिए जनक आदि के भाँति स्वयं भी सहज भाव से कर्म करते हुए प्रवृत्ति में भी निवृत्ति अपनाकर अन्य जन के लिए आदर्श प्रेरक बन सकता है। मुक्त आत्मा कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता, किन्तु वह दैवी विधान की पूर्ति में एक उत्तम उपकरण(निमित्त मात्र) बन जाता है तथा वह दिव्यता का विकरण करता रहता है।
इस अवसर पर अशोक शुक्ल, जगत नारायण दुबे, शिवपूजन दुबे, ज्ञानधर तिवारी, अमरेश दुबे(ग्राम प्रधान), भोलानाथ पाठक, राजेन्द्र सिंह, कैलाश दुबे, राम जी दुबे, प्रभा शंकर दुबे, सत्यदेव यादव, पुरुषोत्तम चौबे, गंगा प्रसाद तिवारी एवं अन्यान्य भक्तों ने माल्यार्पण कर सत्संग लाभ प्राप्त किया।