लघुकथा
ठंडे पानी की बोतल लेने के लिए बढ़ते कदमों को शरद बाबू ने रोक लिया। बीस रूपये की एक बोतल। उफ्फ….!! सामने लगे नल से पानी पीकर वे घर की ओर चल पड़े।
घर में वही रोज़ सा मनहूस सन्नाटा फैला था। एम. एस. सी. उत्तीर्ण युवा बेरोज़गार बेटा चुपचाप चारपाई पर पड़ा छत की ओर टकटकी लगाए देख रहा था। लम्बे समय से बीमार पत्नी को फिर से खाँसी का दौरा पड़ा था, विवाह योग्य बेटी शीला माँ की पीठ सहलाते हुए दवा पिला रही थी। शरद बाबू का मन भीतर तक खिन्न हो गया। चुपचाप अंदर के कमरे में जाकर लेट गए। आज आफिस में निगम साहब के बेटे ने कार्यभार सम्भाला। कार्यकाल के दौरान निगम साहब की मृत्यू हो जाने के कारण बेटे की अनुकम्पा नियुक्ति हुई थी। शरद बाबू के रिटायरमेंट को बस कुछ समय ही बाकी है। सारी जमा-पूँजी पत्नी के इलाज पर खत्म हो गई है। दिन-रात वे जोड़-घटाने की उधेड़ बुन में लगे रहते हैं।
सुबह उठे तो उनके चेहरे पर भीषण कठोरता थी। वे निर्लिप्त भाव से कमरे से बाहर आए और आग्रह करके बेटे के साथ नाश्ता किया, चलते समय बिटिया के माथे को चूम कर सिर पर हाथ फेरा। पत्नी के सिरहाने कुछ देर खड़े रहे, सोती हुई पत्नी के बालों को धीरे से सहला कर बाहर निकल गए। जब तक घर दिखता रहा, कई बार मुड़ कर देखा।
थोड़ी देर बाद सड़क पर शोर मचा, “अरे पकड़ो, जाने न पाए, ये ट्रक वाले भी शराब पीकर कैसे अंधाधुंध गाड़ी चलाते हैं।” किसी को एक ट्रक ने रौंद दिया था। लोगों ने घायल व्यक्ति को उठाने का प्रयास किया, जो अब मृत हो चुका था। तभी भीड़ में खड़े के मूँह से विस्फरित सीचीख निकल गई “अरे….शरद बाबू….।”