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निजी क्षेत्र के कर्मचारियों का शोषण आखिर कब तक

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हमार पूर्वांचल
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रिपोर्ट: राधेश्याम यादव

दैनिक जीवन में बढ रही महंगाई को सेठ और नौकर सभी कोसते रहते हैं और त्रासदी का रोना रहते हैं। क्या कोई भी महंगाई के नासूर को खत्म करने की कोशिश की?

आज लगभग ८३℅ नौकरी करने वाले कर्मचारी निजी क्षेत्रों के आद्यौगिक कारखाने या छोटे गालों में काम कर रहे हैं , जिनकी आय १० हजार से १५ हजार के बीच में ही होती है, भले ही उन्हें उस स्थान पर काम करते हुए जिंदगी बीत गई हो। उसी के विपरीत आज सरकारी नौकरशाहों को सातवाँ वेतन आयोग लागू होने के बाद साठ हजार से लाख रुपये तक वेतन मिल रहा है।

सोचने वाली बात है कि आज के दौर के मंहगाई में इतनी छोटी सी कमाई पर घर, बच्चों की पढ़ाई, जीवनावश्यक वस्तुओं पर खर्च करने के बाद कुछ बचता ही नहीं। हमारी सरकारें, वेतन आयोग, श्रम मंत्रालय, प्लानिंग कमिशन के साथ साथ विभिन्न सदनों में प्रतिनिधित्व करने वाले नागरिकों के प्रतिनिधि सभी असंवेदनशील है, जिनकी दुर्लक्षता के कारण मेहनतकश मजदूर औने पौने वेतन पर काम करने को मजबूर होता है।

हिंदुस्तान का प्रत्येक वेतनभोगी कर्मचारी महंगाई, प्रोफेशनल टैक्स, आयकर, जीएसटी, सर्विस टैक्स समान रूप से देता है चाहे वह सरकारी कर्मचारी हो या निजी क्षेत्र के कर्मचारी हो। कभी इन महकमे दारों ने सोचा है कि मंहगाई और टैक्स व्यक्ति देखकर नहीं चुकाने पड़ते है तो वेतन में इतना भेदभाव क्यों?

निजी कर्मचारियों को मंहगाई भत्ता की जगह विशेष भत्ता के नाम पर ठगा जाता है जबकि सरकारी बाबुओं को मंहगाई दरों के आधार पर भत्ता मिलता है जिसका अनुपात विशेष भत्ते से कई गुना ज्यादा होता है, यह अनियमितता क्यों? सरकारी बाबुओं को उनके शहर और आबादी के आधार पर घर भाड़ा भत्ता मिलता है परन्तु निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को नाममात्र या वह नहीं मिलता क्या सरकार को यह ज्ञात नहीं है? निजी क्षेत्र के कर्मचारियों द्वारा कारखानों मे बनाई गई वस्तुएँ बाजार में सभी वर्गों और तबकों के लोग खरीदते है जिसका बाजार मूल्य व उस पर लगाया गया टैक्स सभी वर्गों के लिए एक समान होते हैं।

खुदरा विक्रेता टैक्स बिल न देकर निजी क्षेत्र के कारखाना मालिक, सरकारी तंत्र, डिस्ट्रीब्यूटर (वितरक), चार्टर्ड एकाउंटेंट और कुछ नेताओं की मिलीभगत से बनाई गई लॉबी टैक्स चोरी कर आपस में बांट लेते हैं और टैक्स चोरी करते हैं क्योंकि यही लॉबी सरकारी महकमों के कर्मचारियों का नोटों से मुँह बंद कर देते हैं, क्या सरकार के पास इन सब पर लगाम लगाने की कोई उपाययोजना है? नहीं!!!! मतलब सरकारी बाबुओं और नेताओं की ऊँची तनख्वाह होते हुए भी अपने जमीर, ईमानदारी बेच दिया गया है, कोई ईमानदार कर्मचारी सख्ती से आवाज उठाता है तो उसे वहां से हटवा दिया जाता है या तो उसे हमेशा के लिए हटा दिया जाता है और फाइलें बंद कर दी जाती है।

विडंबना यह है कि हमारे प्रतिनिधी स्वयं अपना व्यवसाय चलाते हैं और उन्हें पता रहता है यदि सरकारी कर्मचारियों के समकक्ष निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों को वेतन दिया गया तो नफा घटा जाएगा, साथ ही निजी क्षेत्रों के मालिक अपने स्वार्थ और रसूख द्वारा इन प्रतिनिधियों को मैनेज करते हैं क्योंकि चुनाव में उनका ही फाइनेंस रहता है, उनके बताये निर्देशों पर अमल करते हुए श्रम और वेतन कानून बनाते हैं।

कभी निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारियों से ज्यादा वेतन मिला करता था परंतु आज परिस्थिती विपरीत हो गई है, वेतन आयोग द्वारा किये बदलाव में निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों के वेतन में उत्थान की जगह पतन ही किया गया और वहीं सरकारी अधिकारी और आयोग मात्र अपना और सरकारी विभाग के कर्मचारियों का स्वार्थ देखते हुए वेतन बढाया परंतु यह भूल गए कि कर्मचारी की व्याख्या में निजी क्षेत्रों में काम करने वाले लोग भी आते हैं।

सरकार, मंत्री, सांसद, विधायक, नगरसेवक, जनप्रतिनिधि और अधिकारी अपने भत्तों और पेंशनों पर संबंधित विभागों में पैरवी करते दिखाई देते हैं पर क्या उनका जमीर कभी यह गवाही नहीं देता कि निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों के साथ साथ सरकारी कर्मचारियों को भी एक समान वेतन मिलें? कर्मचारी अधिनियम के अनुसार जो भी व्यक्ति नियोक्ता के लिए सीधे या किसी काँट्रॅक्ट के माध्यम से काम करने में शारीरिक श्रम करने की मजदूरी, वेतन, शुल्क या भुगतान लेता है उसे कर्मचारी कहते हैं तो सरकारी और निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों में वेतन और भत्तों में यह भेदभाव क्यों?

सरकारी विभाग के कर्मचारियों को निजी क्षेत्रों में बने उत्पादन और सेवाओं के बिक्री पर होने वाले करों और उत्पाद शुल्क के माध्यम से मिलने वाले राजस्व से ही वेतन दिया जाता है फिर भी निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों को भेदभाव करते हुए वेतन में असमानता तथा भत्तों से वंचित रखा जाता है। नीति आयोगों द्वारा बनाए गए कायदे बदलने होंगे, संगणकीकरण और तकनीकी क्षेत्रों में हम आगे निकल रहे हैं परन्तु पारदर्शिता व टैक्स नियंत्रण में कहीं ना कहीं कोताही बरत रहे हैं, आज हमारे प्रतिनिधी जाग जायें क्योंकि आज जिन मंत्रालय, सदन और पालिका सदनों में आप बैठे हुए हैं वहां पहुचाने में सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों तथा उनके परिवारों की अहम भूमिका और योगदान है, कान खोलकर सुन लें जिस दिन उलटफेर होगा उस दिन वे सदन नहीं देख पायेंगे।

दूसरी विडंबना यह है कि हड़ताल वे ही करते हैं जो ऊँची तनख्वाह लेते हैं और सरकारी नौकरी करते हैं गरीब तो शोषण का शिकार होता है, उनका दमन किया जाता है। उन्हें सभी प्रकार के फायदों से वंचित रखा जाता है। नीति आयोग व प्रशासन धृतराष्ट्र बना नीचे चल रहे महाभारत को क्यों नहीं देख रहे हैं? परमार्थ की परिभाषा और परोपकार की भावना क्यों मर गई है? क्या निजी क्षेत्र के कर्मचारी भारतीय नागरिक नहीं है या मानते नहीं है, यह वही हाल है कि दरवाजे के कुत्ते को कितना भी भगाओ पर दरवाजे को छोड़कर कहीं जाता नहीं क्योंकि उसे आधी रोटी मिलने पर आंस लगी रहती है कि मालिक उसे और देगा तथा पेट पर हाथ रख कर सोचता है कि आधा पेट भरा हुआ है, ऐसा क्यों?

सोच बदलने की जरूरत है प्रतिनिधियों, वेतन आयोग और नीति आयोग को जब एक देश एक कानून हो सकता है तो निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र के कर्मचारियों में असमानता क्यों? इन सब पर विचार नहीं किया गया तो अराजकता फैल जायेगी, यदि निजी क्षेत्र के कर्मचारी ठान लिए तो जो सरकारी विभाग के कर्मचारी हड़ताल करते हैं कल कोई हड़ताल करने के लिए नहीं रहेगा। मैे भी निजी क्षेत्र के एक कंपनी में काम कर रहा हूँ और शोषण के शिकार हुए लोगों को देख रहा हूँ।

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