Home मन की बात मानव रोग ग्रस्त हैं किन्तु मृत्यु ही अंतिम सत्य है-चंद्रवीर यादव

मानव रोग ग्रस्त हैं किन्तु मृत्यु ही अंतिम सत्य है-चंद्रवीर यादव

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आज जिस प्रकार से हम सभी अनुभव कर रहे हैं, ढाई हजार साल पहले लुंबिनी में राजपरिवार में जन्मे सिद्धार्थ ने जब देखा कि मानव रोग ग्रस्त हैं, मृत्यु ही उनका चरम गंतव्य है और वृद्धावस्था के कष्ट उनकी नियति, तब इन कष्टों से मुक्ति का मार्ग तलाशने वह अपने पिता शुद्धोदन का राजमहल त्याग कर आर्य सत्यों की खोज में निकल पड़े। वर्षों की तपस्या और साधना के बाद बोधगया में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ यहीं वे सिद्धार्थ से बुद्ध बने। बोधगया में ही वे रूके नहीं, उनकी यात्रा जारी रही और जब वे सारनाथ(वाराणसी) पहुंचे, तब उन्हें वहां आनंद सहित पांच योग्य शिष्य मिले। बोधिवृक्ष के नीचे प्राप्त दिव्य ज्ञान को बुद्ध‌ ने इन शिष्यों को दिया। यहीं से बुद्ध धर्म की किरण भारत और विश्व में फैलने लगी।लेकिन कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में जब बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ उसके पश्चात् ही बौद्ध धर्म को वैश्विक स्वीकृति मिली और यह सर्वत्र सरलीकृत और‌ ग्राह्य हुआ। कलिंग युद्ध के बाद युद्ध की हिंसा से दुखी सम्राट अशोक ने शांति के लिए बुद्ध के बताए मार्ग का अनुसरण और प्रचार-प्रसार किया और बुद्ध धर्म के विश्वव्यापी प्रसार के लिए अपनी पुत्री संघमित्रा और पुत्र महेंद्र को अलग-अलग दिशाओं में भ्रमण पर भेजा। स्वयं बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियों में शिलाओं और स्तंभों पर उत्कीर्ण कराया। बुद्ध के अनुसार तृष्णा ही सभी दुखों का मूल कारण है।इसके कारण मनुष्य संसार की विभिन्न वस्तुओं की ओर प्रवृत्त होता है और जब उन्हें प्राप्त नहीं कर पाता, अथवा जब वे प्राप्त होकर भी नष्ट हो जाती हैं, तब उसे कष्ट पहुंचता है। तृष्णा के साथ मृत्यु प्राप्त करने वाला प्राणी उसकी प्रेरणा से पुन:-पुन: जन्म ग्रहण करता है और संसार के दुखचक्र में पिसता रहता है। शायद यही वजह है कि आज पूरी दुनिया में180 करोड़ से भी अधिक लोग बुद्ध के अनुयायी हैं।

भारत, चीन, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, जापान, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया, पाकिस्तान में बुद्ध जयंती मनाई जाती है। आज चारों तरफ जाति, समुदाय, धर्म और नस्ल के नाम पर मारकाट मची है।ऐसे में हिंसा, युद्ध धार्मिक आडंबर और सामाजिक कुरीतियों का ही बोल बाला चल रहा है। ऐसे में मानव जाति को बड़ी ही सहजता से समझ में आ चुका है कि हमें कोई और धर्म नहीं बल्कि बुद्ध धर्म में ही सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए सब कुछ बड़ी ही सहजता से मिल सकता है, क्योंकि सनातन धर्म में भेदभाव और जाति को लेकर समाज बंटा हुआ है। सर्वविदित है कि वर्तमान में शिक्षा और चेतना से परिपूर्ण हो रहा दलित और वंचित वर्ग बौद्ध धर्म में ही अपनी सामाजिक समानता और सम्मान को प्राप्त कर सकता है। वास्तव में बौद्ध धर्म में बुद्ध ने प्राणिमात्र की समानता पर जोर दिया था।”अप्प दीपो भव” का प्रत्यक्ष प्रमाण राजपरिवार में जन्में सिद्धार्थ ने जब देखा कि मानव रोग ग्रस्त हैं, मृत्यु ही अंतिम सत्य हैं। वास्तव में हम सभी बौद्ध धर्म में जो विशेष बात देखते हैं उससे ही मानव सुखी जीवन जी सकता है। आज हमारे देश में देखा जाए तो बौद्ध धर्म को नए सिरे से प्रतिष्ठा मिल रही है। लंबे समय तक ऐसा लगा कि बुद्ध की स्थापनाएं भारतीय सामाजिक जीवन के अनुकूल नहीं हैं। इसी कारण से एक तरफ पूर्वी एशिया के ज्यादातर देश बुद्ध के रास्ते पर जा रहे थे, दूसरी तरफ बुद्ध अपने देश‌ में ही पराये हो चले थे,लेकिन लगता है,भारत में अब उनकी वापसी हो रही है। यह एक विडंबना है कि अपने समस्त उदार मूल्यों के बावजूद हिंदू धर्म के वर्ण व्यवस्था के दुर्गुणों को मिटाने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की। सामाजिक विकास की लंबी प्रक्रिया के बावजूद जाति और वर्ण आधारित शोषण का सिलसिला थमा नहीं है। ऐसे में बुद्ध के सामाजिक समानता की पृष्ठभूमि बहुत आकर्षक है। अब तो स्पष्ट है कि भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व‌ में बुद्ध ही चाहिए।

चंद्रवीर बंशीधर यादव(शिक्षाविद्) संपर्क-20बी यादवेश‌ को.हा.सो.देवकी शंकर नगर,लेक रोड,तुलशेत पाडा,भांडुप(पश्चिम),मुंबई-400078 मो.नं.9322122480

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