कर पर्वत को टुकड़े-टुकड़े, सागर को भी पीना है मुझे।। अपनी ईक्षा के बलबूते जितना चाहूं जीना है मुझे।।
जीवन हो भले चार दिन का कुछ काम ऐसे कर जाना है।। दुनियां रोये सौ बरसों तक एक रोज ऐसे मर जाना है।।
जन-जन के जख्मों को भरसक कतरे-कतरे सीना है मुझे।। अपनी ईक्षा के बलबूते जितना चाहूं जीना है मुझे।।
मालूम हैं मुझे परहित में भी मुझपर कुछ दाग लगेंगे ही।। कांटे ही कांटे हो पथ में उनमें कुछ फूल खिलेंगे ही।।
प्याला हो ज़हर भरा चाहे अब सुधा समझ पीना है मुझे।। अपनी ईक्षा के बलबूते जितना चाहूं जीना है मुझे।।
मेरे इन शख्त इरादों को कोइ ताकत तोड़ नहीं सकती।। मंजिल को पाने से पहले मैं खुद को मोड़ नहीं सकती।।
इस आसमान के तारों को इन हाथों से छूना है मुझे।। अपनी ईक्षा के बलबूते जितना चाहूं जीना हैं मुझे ।।