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हुजूर अपनी कुर्सी बचाने के लिए ‘दवाब’ में मातहत का टेंटुआ नाप दिये

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वाराणसी से विनय मौर्या

पुलिस की आम शोहरत क्रूर और निर्दयी की है,लोगों में इस विभाग के प्रति इतना आक्रोश होता है कि जिस आदमी का वास्ता कभी पुलिस से पड़ा भी न हो वह भी पुलिस का नाम आते ही फट से पुलिस के लिए दर्जन भर गालियां निकाल देता है। हालांकि इसे अकारण भी नही कह सकते कुछ ऐसे पुलिस वाले भी विभाग हैं जो वर्दी पहनकर मगरूर हो जाते हैं(जैसे लखनऊ वाला एस टी एफ इंस्पेक्टर) तो कुछ ऐसे पुलिस वाले भी इसी सिस्टम में हैं जो तरह सरल सहज और पारदर्शी होन के साथ-साथ भय भौकाल बनावटीपन से दूर रहते हैं (ऐसे नेचर के कई मेरे परिचित भाई तो एक मेरा जिगरी यार हैं)मगर ऐसे लोग विभाग मे विरले ही होते हैं।

पुलिस विभाग ऐसे तो कार्यपालिका है मगर यह हमेसा से न्यायपालिका के नीचे डरा सहमा गुलामों की तरह …जी हुजूर जी हुजूर… करता आ रहा है । हालांकि अगर न्यापालिका और ह्यूमन राइट के कलमी कोड़े का डर न हो तो यह कहना गलत न होगा इन्हें काबू करना मुश्किल है। खैर तमाम आरोपों प्रत्यारोपों के बाद भी सबकी उम्मीदें पुलिस से ही होती हैं मसलन अपराध पर नियंत्रण अपराधियों की गिरफ्तारी वीआईपी ड्यूटी कुछ खो गया तो खोजना खोजवाना दुर्गा पूजा और मुहर्रम सकुशल सम्पन कराना ट्रैफिक नियंत्रण करना वाद विवाद सुलझाना जमीन के मसले हल कराना ऐसे अभी और दर्जन भर कार्य हैं जिसे पुलिस करती है और यह सब कोई और नहीं करता मने न एस पी न एस एस पी न आई जी न डी आई जी न एडीजी न डीजीपी बल्कि इसे करता है तो पुलिस विभाग के रीढ़ कहे जाने वाले सिपाही दरोगा इंस्पेक्टर … बड़े अधिकारी तो बस आदेश निर्देश और उसके बाद सस्पेंड लाइन हाज़िर…..मजबूरी और अनुशासन का ऐसा डण्डा की यहां उफ्फ भी अनुशासन हीनता माना जाता है…अभी चंद रोज पहले ऐसे ही एक इंस्पेक्टर (सुनील वर्मा)के गले मे हड्डी तब फंस गई जब जमीन के मसले सुलझाने या (लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन )के चक्कर में दोनों पक्षों भाईयों को थाने ले आया।

चूँकि जमीन का मामला ऐसा होता है कि थाने से उसे निबटाना सम्भव नही होता मगर पुलिस कोशिश यही करती है कि डांट डपट धौंस भय दिखा कर आपसी समझौता करा दे या ऐसा माहौल बना दे या डरा दिखा दें कि थाने से घर जाते ही दोनों पक्ष सर फुटव्वल न कर लें, क्योंकि अमूमन देखा जाता है कि अगर ऐसे मामलों में पुलिस उदासीन रवैया अपनाते हुए बिन डांट फटकार के भेज तो यही लोग घर जाकर मारपीट कर लेते हैं कभी-कभी तो छोटा सा भूमि विवाद विकराल झगड़े का रूप ले लेता है ।
इसलिए अधिकतर दरोगा एसओ ऐसे मामलों में दोनों पक्षों हुरपेटते हैं कभी-कभी डर बनाने के लिए हवालात में डाल देते हैं।

गोपीगंज कोतवाली में भी यही हुआ सम्पति विवाद में जब बात बढ़ने लगी होगी या किसी पक्ष द्वारा पुलिस को सूचित किया गया तो मौके से दोनों भाईयों रामजी मिश्रा और अशोक मिश्रा को पुलिस थाने ले आयी यहां सुनील वर्मा ऊपर उल्लेखित प्रक्रिया अपनाते हुए डांट फटकार और पुलिसिया रौब दिखाते हुए एकाक दो थप्पड़ लगा कर हवालात में डाल दिए चूँकि रामजी ब्लड प्रेशर के मरीज थे पुलिसिया रौब थप्पड़ और हवालात यह तीनों चीजें अचानक से किसी का भी हार्ट बीट बढ़ाने के लिए काफी होता है और ब्लड प्रेशर के मरीज रहे रामजी के लिए काल बन गया और सुनील वर्मा के लिए गले की फांस , वर्मा को यह अंदेशा भी नही रहा होगा कि पुलिसिया रुआब दिखाने से रामजी को हार्ट अटैक आ जायेगा और ऐसा हो जाएगा कि जिस थाने में अपराधियों के खिलाफ मुकदमा लिखते रहें उसी थाने में उन्ही के खिलाफ बिन जांच के हत्या का मुकदमा दर्ज हो जाएगा ।

खैर रामजी की मृत्यु के पश्चात जमके हो हल्ला हुआ सुनील वर्मा से खार खाये बौखलाये लोगों के लिए यह गोल्डन चांस था भला इसे भुनाने का मौका क्यों छोड़ते लिहाजा मीडिया बाजी धरना प्रदर्शन का दौर चल निकला कप्तान ने भी फौरी तौर पर वर्मा को लाइन हाजिर कर सी ओ को जांच सौंप दी मगर भदोही कप्तान की अदूरदर्शिता कहें या कोई दवाब दूसरे दिन ही मृतक की बेटी के तहरीर पर सुनील वर्मा पर 302 का मुकदमा दर्ज कर लिया गया.

जबकि 302 यानी हत्या का मुकदमा तब दर्ज किया जाता है जब अगले ने जानबूझकर या रंजिसन हत्या की हो और कोई थानेदार क्यों अपने थाने में किसी की हत्या करेगा और रामजी से उसकी क्या रंजिस रही यही नही पोस्टमार्टम में मृतक के शरीर पर कहीं चोट तक के निशान नही पाए गयें और मृत्य का कारण हार्ट अटैक बताया गया है ।

किसी भी जिले का कप्तान दरोगाओं सिपाहियों का आत्मबल और संरक्षक होता है मगर बिन जांच पूरी हुए और पोस्टमार्टम रिपोर्ट को अनदेखा करते हुए 302 का मुकदमा दर्ज करवा दिया अचानक ऐसी क्या परिस्थिति पैदा हो गयी कि इतनी जल्दी निर्णय बदलना पड़ा जबकि डीएम कप्तान को दवाब में भी सही निर्णय के लिए ट्रेंड किया जाता है। जबकि कप्तान चाहते तो सुनील वर्मा को सस्पेंड करते हुए मजिस्ट्रेटियल जांच करा सकते थे या 302 की जगह गैर इरादतन हत्या 304 का मुकदमा कर देते मगर जन और जनप्रतिनिधियों के दवाब में अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में कप्तान ने सुनील वर्मा की गर्दन नाप दी।

यह सही है की सिपाही दरोगा के किसी ऐसे कृत्य जिससे आमजनमानस में पुलिस की छवि खराब हो पर दण्ड कृत्यों के गम्भीरता और सत्यता पर मिले मगर दण्ड ऐसा न हो कि कृत्य कुछ और सजा कुछ और मने उसका पूरा कैरियर ही बर्बाद हो जाये कप्तान साहब ।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और एक मीडिया हाउस में संपादक है।

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