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जनक समिति में डीएम भदोही को दीवाल पर सीलन दिखी, लेकिन लड़कियों का दर्द नहीं!

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बिहार में मुजफ्फरपुर के बाद यूपी के देवरिया में बालिका संरक्षण गृह में बच्चियों और महिलाओं को मामला प्रकाश में आने के बाद यूपी के लगभग सभी जिलों में जितने भी महिला या बाल संरक्षण गृह हैं, सभी की जांच होना शुरू हो गयी है। यह जांच बिल्कुल उसी तरह दिख रही है जैसे मुम्बई में आतंकवादी हमले के बाद प्रशासन में सक्रियता दिखायी थी। सभी रेलवे स्टेशनों पर स्कैनिंग मशीन लगा दी गयी किन्तु आज की तारीख में देखिये तो सभी रेलवे स्टेशन की अधिकतर स्कैनिंग मशीनें बेकार पड़ी हैं। समझ में नहीं आता कि आखिर सरकार या प्रशासन की नींद तभी क्यों खुलती है जब कोई घटना घटित हो जाती है। यदि प्रत्येक जिम्मेदार अधिकारी अपनी ड्यूटी का मुस्तैदी से पालन करे तो ऐसी स्थितियां प्रकट ही न हों।

मैं बात कर रही हूं देवरिया में बच्चियों के साथ घटी घटना की। पिछले दिनों खबर पढ़ी कि भदोही के गोपीगंज में स्थित जनक समिति पहुंचकर जिलाधिकारी और एस पी ने आकस्मिक निरीक्षण किया। यदि वास्तव में निरीक्षण था या खानापूर्ति यह तो वहीं जानते होंगे, लेकिन जनक समिति की दुव्र्यवस्था की बात उठाने पर मुझे खुद जनक समिति से बाहर जाना पड़ा था। वहां क्या हालात थे इसके पहले मैं संक्षिप्त में अपनी कहानी बताना चाहूंगी…।

मैं डिम्पल विपिन मिश्रा 30 नवंबर 2012 को पहली बार भदोही पहुंची। पति और ससुराल वालों द्वारा दहेज प्रताड़ना और धोखे से की गयी पति की दूसरी शादी के विरुद्ध मैं सोशल मीडिया का सहारा लेकर अपने अधिकरों की बात को लेकर मैं भदोई पहुची थी।
चूंकि उस समय मेरा मामला काफी चर्चित हो चुका था। जब मैं भदोही पहुँची तो गोपीगंज के फूलबाग में स्थित संस्था जनक समिति की संचालिका डा. किरन त्रिपाठी ने आगे बढ़कर मुझे अपने जनक समिति में आश्रय दिया और मेरी सहायता करने का पूरा आश्वासन दिया। उन्होंने मेरा मामला कोर्ट में भी दाखिल करवाया, जब कि वे अच्छी तरह जानती थी के मैं मुम्बई से हूँ और भदोही में मेरे रहने की कोई जगह नहीं है। उन्होंने न्यायलय में मेरा स्थानीय पता अपने संस्था जनक समिति का लिखवाया, अब चूंकी जब भी भदोही न्यायालय में मेरे मामले (घरेलू हिंसा) में मेरी तारीख पड़ती तो मुझे मुम्बई से भदोही जाना होता और वहीं जनक समिति में रुकना होता। वहां रहकर मैने बहुत सी गलत चीजों को देखा।

उदाहरण स्वरूप मुश्किल से गिनकर चार लड़किया ही संस्था में होती पर इसके बावजूद 4 से अधिक लड़कियों की संख्या बताकर सरकार से राशन व जरूरतों की चीजें लिख कर मंगवाई जाती और राशन आने पर आधे से ज्यादा समान जनक समिति की अध्यक्षीका अपने घर ले जाती। संस्था में रहने वाले लड़कियों को मात्र चाय की जो कांच की छोटी गिलास होती हैं उससे एक ग्लास दाल बनाने के लिऐ दिया जाता, चावल 3 ग्लास और रोटी सिर्फ एक वक्त और वो भी सिर्फ एक। और तो और 4 लड़कियों को सिर्फ एक आलू दिया जाता, पानी की तरह सब्जी बनाने के लिऐ और ये भोजन दोनों वक्त का सिर्फ इतना ही बनता । 1 छोटी ग्लास दाल, 3 छोटी ग्लास चावल और एक हीं आलू की पनियावल सब्जी ये सब सुबह हीं बन जाया करता और शाम को सिर्फ गिनकर चार रोटियां ताकि गैस की बचत हो सके। यह भोजन उन लड़कियों को खुद बनाकर खाना पड़ता।

समाचार पत्र में प्रकाशित
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हलाँकि मेरा मामला चर्चित था और मीडिया के लोग मुझसे जुड़े थे। शायद इसीलिये मेरे लिए खाना अध्यक्षिका विमला मोंगीया अपने घर से बना कर लाती। पर वहां की लड़कियों का भोजन देख मुझे नागवार गुजरता, जिसका मैं विरोध भी करती जिसके चलते संस्था की अध्यक्षिका से मेरी अक्सर कहा सुनी हो जाती, उनके घर से लाया भोजन मैं लड़कियों में बांटकर खाती और तो और वहां खाना भी मैं खुद बनवाती.. पर इसका नतीजा बेचारी उन गरीब लड़कियों को भुगतना पड़ता। उन्हें काफी कुछ गालियां मिलती और मारने तक की धमकी मिलती के डिम्पल के साथ कोई बात ना करे। वो हैं हीं कितने दिन चली जाएगी तब तुम सबको बताती हूँ।

लड़कियां डरी सहमी मुझे सब बताती और मुझसे गुजारिश करती के मैं कुछ ना कहू। उन लड़कियों को नहाने के लिऐ और कपड़े धोने के लिऐ साबुन तक नहीं दिया जाता। एक हीं साबुन में सबकी सब इस्तेमाल करती हैं। एक हीं रिन साबुन से सबके सब अपने कपड़े धुलती हैं , और तो और विमला मोंगिया कुछ ऐसी लड़कियों को भी संस्था में रखती। जो पीड़ित ना होते हुए भी सरकार को पीड़ित दिखायी जाती या फिर उनका जिक्र हीं नही करती, विमला मोंगिया उन लड़कियों से संस्था में रहने का किराया उनसे लेती। उदाहरण जो लड़कियां अपने घर से भागकर शादी करती हैं और उनके पास रहने का कोई ठिकाना ना हो तो ऐसे मामले में संचालिका संस्था को गलत तरीके से चलाती हैं एक बार मेरे सामने हीं एक ऐसा मामला आया…।

एक लड़के द्वारा यह कहकर के हमने भाग कर शादी की हैं , कुछ दिन के लिऐ मेरी पत्नी को इस संस्था में रहने की जगह दे , मैं मुम्बई जाकर कुछ कमाकर 3 से 4 महीने में वहां घर भाड़े से लेकर आऊंगा अपनी पत्नी को ले जाऊंगा और आपका जो भी किराया होगा दे दूंगा। अब ऐसे में जब जांच के लिऐ कोई आता हैं तो ऐसी लड़कियों को या तो छुपा देती मतलब दूसरे दरवाजे से बाहर खड़ा कर देती या उस लड़की को संस्था की पीड़ित लड़की की पहचान वाली या रिश्तेदार बताकर के मिलने आई हैं इस कदर झूठ बोल कर जांच अधिकारी को गुमराह करती।

समाचार पत्र में प्रकाशित
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वहा कुछ लड़कियों का ये भी कहना था के विमलेश यादव जो की संस्था के पुरुष सहयोगी हैं वे उन लड़कियों पर गलत तरीके से उनसे बात करते थे। यह सब देखने और जानने के बाद मैंने संस्था की संचालिका डा. किरन त्रिपाठी से बात की उन्हें उनसे सारी शिकायत की तो उन्होंने कहा मैं देखती हूँ ।
पर वहा की लड़कियों का कहना हैं बड़ी मैडम यहां कभी आती हीं नहीं। 6 से 8 महीने में कभी एक बार आ भी जाए तो हमसे बात तक नहीं करती। बाहर से बाहर हीं ऑफिस में बैठकर निकल जाती हैं यह तक नहीं पूछती के हम कैसे हैं ये पूछना तो दूर हमारी तरफ देखती भी नहीं। पर इन सब मामलों में लड़कियां चुप्पी साधे हुए हैं उनके मार और बदनामी के डर से। क्योंकि जो लड़किया अपना मुह खोलती हैं संस्था की अधीक्षिका उन्हें मारती पीटती हैं और उन्हें बदनाम भी करती हैं।

मैं किसी से डरती नहीं थी और सबसे खुलकर बात करती थी। वहां पर हो रहे गलत कार्यों का विरोध करती थी, इसका परिणाम यह हुआ कि जब एक तारीख पर मैं भदोही पहुंची तो मुझे रहने की जगह नहीं दी गयी। यदि मैं अपना स्वार्थ देखती तो मुझे रहने के लिये अध्यक्षिका ने अपना कमरा दिया था। मेरे खाने पीने रहने की सारी व्यवस्था की थी। पर दूसरी लड़कियों का दुख मुझे देखा नहीं गया और मैंने इसका विरोध किया, जिसका परिणाम मुझे भोगना पड़ा। संस्था की संचालिका और अध्यक्षीका बेहतर समझ गयी थी के डिम्पल को यहा हो रहे कारनामों का पता चल गया हैं , बस इसलिये मुझे भी वहां से झूठा हवाला देकर निकाला गया । मैंने इसकी शिकायत विधायक मधुबाला पासी और अधिकारियों से की लेकिन कोई कुछ नहीं कर पाया।
सच तो यह है कि ऐसी संस्थायें सिर्फ कमाई करने का जरिया हैं। इन्हें किसी के दुख दर्द से कोई मतलब नहीं बल्कि सरकार से धन वसूलना है। जब पिछले दिनों भदोही के डीएम राजेन्द्र प्रसाद जनक समिति का निरीक्षण करने गये तो उन्हें दीवाल पर सीलन दिखायी दी? यदि वहां पर रहने वाली महिलाओं और लड़कियों से बात करते तो शायद उन्हें सच्चाई पता लगती पर वे निरीक्षण करने नहीं बल्कि खानापूर्ति करने गये थे फिर उन्हें किसी का दुख कहा दिखता….।

1 COMMENT

  1. दुःखद ऐसी संस्थाओं को तुरंत बंद कर देना चाहिए और उचित कार्यवाही करनी चाहिए लेकिन क्या करे सिस्टम ही जब खराब है तो ऐसे लोगो का मनोबल और बढ़ता है और आज यही दिख रहा है !

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