विश्व सर्वेक्षण के मुताबिक भारत दुखी देशों में से एक है। इसका सारा दोष जनसंख्या वृद्धि पर मढ़ा जा रहा है। क्या यह सत्य है? यदि खुले मन से विचार किया जाए तो हम देखते हैं कि ईश्वर हर इंसान में कुछ न कुछ विशेष हुनर देते हैं। यह हुनर मानव समाज को सुखी बनाने में सहयोग करता है। किसी में संगीत कला तो किसी में कुशल कृषक होने का गुण। कोई महान वैज्ञानिक बनने का गुण रखता है तो किसी में डॉक्टर, इंजीनियर बनने का गुण है। मिट्टी खोदना भी एक कला है। कहने का मतलब है कि जिस व्यक्ति को हम महा मूर्ख कहते हैं उसके भीतर भी कुछ न कुछ कला है जो उसके जीवन को सुखी बना सकता है और समाज को भी लाभ पहुंचा सकता है।
हर इंसान में कुछ न कुछ हुनर है तो फिर दुःख का करण ‘जनसंख्या वृद्धि’ कैसे हो सकता है?
क्षुद्र स्वार्थ तथा इर्ष्या के कारण हम दूसरे के गुणों का सम्मान नहीं करते। उसे अंकुरित होने से पहेली ही मार देते हैं अथवा सदुपयोग नहीं करते। प्रकृति ने अरबों की जनसंख्या के हर जरुरतों को पूरा करने के लिए अपार संसाधन दिया है। हम या तो उसका दुरुपयोग कर रहे हैं अथवा उपयोग ही नहीं कर रहे हैं। ‘प्रउत-प्रगतिशील उपयोग तत्व’ के अनुसार यदि भौतिक, अधि-भौतिक(मानसिक) और आध्यात्मिक शक्ति का अधिकतम सदुपयोग किया जाए तो विश्व की जनसंख्या इससे दस गुनी भी हो जाए तो कोई परेशानी नहीं होगी।
हम अपने गांव में ही देखें, माना कि कोई गांव कृषि प्रधान है। हम एक फसल मक्का को लेते हैं। इससे कौर्नफलैक्स बनता है। इसके डाँठपात से कपड़े के धागे तैयार किया जा सकता है। इसके वेस्ट मटेरियल से कंपोस्ट तैयार कर सकते हैं। इसी तरह धान के भूसी से तेल तैयार किया जा सकता है। पुआल से कागज बना सकते है। अर्थात विज्ञान इतना तरक्की कर चुका है कि किसी भी चीज के प्रत्येक अंग को मानव के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है और इनसे संबंधित उद्योग स्थानीय स्तर पर लगाया जा सकता है। बेरोजगारी चुटकी में दूर किया जा सकता है। ‘प्रउत अर्थनीति’ के अनुसार यदि स्थानीय संसधानों को स्थानीय लोगों की सहायता से सहकारिता के माध्यम से स्थानीय लोग के उपयोगिता को प्राथमिकता देते हुए वैज्ञानिक तरीका से सदुपयोग किया जाए तो एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं रहेगा। सरकार का काम है कानून व्यवस्था सुदृढ़ करना, एयर कंडीशनर में बैठकर नीतियां बनाना नहीं।
अतः दुःख का प्रमुख कारण कुव्यवस्था है, जनसंख्या नहीं। विज्ञान इतना तरक्की कर चुका है कि मिट्टी को भी सोना बना सकता है। घर-घर में उद्योग लगा सकता है, पर ऐसा नहीं हो रहा है, ऐसा क्यों?
इसका मूल कारण है ‘मानसिक विकृति’ जो तथाकथित समाज के अगड़े लोग हैं, वे स्वार्थवृति से ग्रसित हैं। उन्हें अन्य लोग के संपन्न होने से डाह है। इसीलिए वैज्ञानिकों को अपनी मुट्ठी में करके उनके हुनर का उपयोग जनकल्याण के लिए नहीं कर रहे हैं। उनके हुनर का उपयोग मानव समाज को विध्वंस करनेवाले अस्त्र-शस्त्र के निर्माण में कर रहे हैं। मुनाफा खोरी के चक्कर में संपूर्ण ऊर्जा का दुरुपयोग कर रहे हैं जिससे मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक नुकसान हो रहा है।
ऐसे पूँजीपति शोषक लोग सामान्य जन पर जनसंख्यावृद्धि का आरोप लगाकर उन्हें उनके अधिकारों से विमुख करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। अतः हमें इनके कुत्सित चाल को समझना होगा। “गरीबी और दुःख का कारण जनसंख्यावृद्धि नहीं अपितु दूर्नीति और दुर्वयवस्था है।” “पूँजीवादी व्यवस्था को तोड़ने के लिए क्रांति की आवश्यकता है, पूँजीवाद के लाश पर प्रउतवाद का तांडव होगा तभी मानव दुःख से उबर सकेगा।” भारतीयों का दुःख के कारण जनसंख्यावृद्धि नहीं है,बल्कि ‘वर्तमान पूँजीवादी संवैधानिक व्यवस्था’ है। नव्यमानवतावाद पर आधारित ‘प्रउत’ ही एक मात्र समाधान है।