एक राजा था, उसका सुरक्षाकर्मी बहुत ही विश्वासपात्र था, लेकिन उस सुरक्षाकर्मी से एक दिन एक भूल हो गयी। राजा को गुस्सा आया और उसने सुरक्षाकर्मी को मौत की सजा दे दी। उस समय उस सुरक्षाकर्मी की पत्नी गर्भवती थी। अपने सुरक्षाकर्मी को मौत की सजा देने के बाद राजा ने उसकी बीबी की खर्चे के लिये सारा इंतजाम भी कर दिया और उसे तकलीफ न हो इसका भी खयाल रखता था।
समय बीता उस विधवा ने एक सुंदर से बालक को जन्म दिया। उस विधवा ने अपने बच्चे का पालन पोषण शुरू किया। उसके शिक्षा दीक्षा की पूरी व्यवस्था की। जब बालक किशोरावस्था में पहुंचा तो उसने अपने पिता के बारे में पूछा। मां ने पूरा वाकया बता दिया। इसके बाद बालक के मन में राजा के प्रति विद्रोही की भावना भर गयी। वह पूरे मनोयोग से अष्त्र शष्त्र की शिक्षा लेने लगा। उसने ठान लिया था कि बड़ा होते ही जब भी मौका मिलेगा राजा से बदला जरूर लेगा।
जब वह बड़ा हुआ तो राजा ने उसे अपने मुख्य सुरक्षाकर्मी के रूप में तैनात कर लिया। एक दिन राजा जंगल में शिकार को गया। उस समय वहीं युवक साथ था। राजा को एक शेर की आहट मिली और उसका शिकार करने की घात में लग गया। उधर शेर भी खतरा देखकर हमलावर हो गया था। युवक को यह अच्छा मौका मिला और सोचा यदि शेर हमला कर दे तो राजा से उसका बदला पूरा हो जायेगा। वह खुश था कि उसके पिता को मौत की सजा देने वाला आज शेर का निवाला बनेगा।
घात लगाये राजा के उपर अचानक शेर ने पीछे हटकर हमला बोलने की पोजीशन ले ली। युवक आज खुश था कि उसके पिता को मारने वाला राजा अब नहीं रहेगा। शेर ने उछाल भरी और ज्यों ही राजा के सिर को जबड़े में लेना चाहा तो अचानक युवक ने अपनी तलवार निकाली और शेर के जबड़े में घुसेड़कर मार डाला। राजा बहुत खुश हुआ। दोनों घर लौटे। युवक को समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उसके मन में ऐसा विचार क्यों आया।
घर लौटकर युवक ने अपने मन में चल रही सारी उधेड़बुन को मां से बोला ”मां आज राजा से बदला लेने का अच्छा मौका था, लेकिन जब शेर ने हमला किया तो मेरे मन से बदला लेने के खयाल की जगह सुरक्षा करने का भाव कैसे आया। मन ने गवाही नहीं दी, राजा से बदला लेने की। ऐसा क्यों हुआ। इस पर मां हंस कर बोली- बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू जानबूझकर तो धोखा दे ही नहीं सकता है। तुझसे नमक हरामी हो नहीं सकती, क्योंकि तेरे शरीर में तेरी मां का ही तो अंश है। मेरे संस्कार और सीख को तू कैसे झुठला सकता था।
वाकई.. यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते हैं, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है। हमारे पारिवारिक-संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ जाते हैं, माता-पिता जिस संस्कार के होते हैं, उनके बच्चे भी उसी संस्कारों को लेकर पैदा होते हैं। हमारे कर्म ही ‘संस्कार’ बनते हैं और संस्कार ही प्रारब्धों का रूप लेते हैं। यदि हम कर्मों को सही व बेहतर दिशा दे दें, तो संस्कार अच्छे बनेंगे और संस्कार अच्छे बनेंगे, तो जो प्रारब्ध का फल बनेगा, वह मीठा व स्वादिष्ट होगा।
हमें प्रतिदिन कोशिश करनी होगी कि हमसे जानबूझकर कोई गलत काम न हो और हम किसी के साथ कोई छल कपट या धोखा भी न करें। बस, इसी से ही स्थिति अपने आप ठीक होती जाएगी और हर परिस्थिति में प्रभु की शरण न छोड़ें तो अपने आप सब अनुकूल हो जाएगा। हमारे मन में हमेशा दो भाव उथल पुथल मचाते रहते हैं। जब विवेक पर शून्यता का भाव छाने लगता है तो भूल भी हो जाती है, लेकिन अपनी भूलों को सुधार कर अपनी गल्तियों का प्राश्श्चित कर लें तो समाज में सम्मान का पात्र बन जाते हैं।