Home साहित्य बस मेरा इतना सा कसूर, जो जन्मी बनकर के बेटी।

बस मेरा इतना सा कसूर, जो जन्मी बनकर के बेटी।

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बर्बरता के इस तांडव को, सुनकर क्यों खून नहीं खौला।
है पूँछ रही मासूम अभीतक, क्यों न किसी ने मुह खोला।।

बस मेरा इतना सा कसूर, जो जन्मी बनकर के बेटी।
क्या माताएँ हैं इसी बली, के खातिर जनम हमे देती।।
नेता, मंत्री, समाज सेवक, सब घूम रहे करते दावे।
मासूमो की इस हालत पर, वे जरा भी तरस नहीं खावें।।

ट्विंकल शर्मा रोकर पूछे, सब मिलकर क्यों न दिलाते न्याय।
जो होती आपकी मैं बेटी, क्या सह लेते ऐसा अन्याय।।
लानत है ऐसे समाज को, जहां होता हर दिन घोर पाप।
अब कहाँ प्रशासन, न्याय कहाँ,अब कहाँ सो गया है इंसाफ।।

सदाशिव चतुर्वेदी “मधुर”

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