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मुम्बई : खौफ के साए मे जंग नही जीत सकता हिंदीभाषी समाज

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हमार पूर्वांचल
डॉ. ओमप्रकाश दूबे की फाइल फोटो

पिसवली गांव के खून से रंगे उस दिन को क्यों भूल गये हिन्दीभाषी

21 अक्टूबर 2008 के मनहूस दिन को शायद वे आंखे आजतक नहीं भूल पायी होंगी, जिनके सामने उनके अपनों को बेरहमी से पीट कर मार डाला गया। जो कल तक अपने परिवार के साथ घूमते थे, हंसते थे, जिनके साथ हंसी मजाक करते थे, जिनकी थाली में से रोटी उठाकर अपने मुंह का निवाला बना लेते थे। जिनके घर पहुंचते ही परिवार को पूर्णता का अहसास होता था। उन्हीं आंखों के सामने वे रोते रहे, चिल्लाते रहे, दहाड़ मारकर रोते रहे, लेकिन किसी ने एक नहीं सुनी। आतता​ईयों को तनिक भी रहम नहीं आया। वे उन दो भाईयों के जिस्म को घाव से भरते रहे। दोनों भाईयों की चीत्कार किसी ने नहीं सुनी। उन्हें मार डाला गया। पुलिस मूकदर्शक बनकर तमाशा देखती रही। क्योंकि जिसकी जान जा रही थी वह उत्तरभारतीय थे और जो जान ले रहे थे वे मराठी थे। वे क्षेत्रवाद के नाम पर ईश्वर की कृति का कत्ल रहे थे।

जी हां! हम बात कर रहे हैं कल्याण के पिसवली गांव की। राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन करके मराठियों और उत्तरभारतीयों के बीच जहर घोल दिया था। जिस राजनीति की बीज पर कभी शिवसेना का गठन हुआ था। उसी राजनीति को राज ठाकरे दोहरा रहे थे। मराठी हक की बात करके उनको भड़का दिया गया जो एक दूसरे के पूरक थे। जिनसे रोज सलाम दुआ होती थी, हालचाल होता था। उनकी आंखों में जहर भर दिया गया था। उत्तर भारत से गया हर व्यक्ति उन्हें लुटेरा नजर आने लगा। उन्हें लगा कि उनको अधिकार सिर्फ इसलिये नहीं मिला कि उत्तरभारतीयों ने सब पर कब्जा कर लिया है। वे चाहते थे कि उत्तरभारतीय पलायन कर जायें। उनकी सम्पत्तियों पर कब्जा कर लें। लिहाजा विवाद खून खराबे तक आ गयी।

जगह-जगह उत्तरभारतीयों को घेर कर मारा जाने लगा। उनकी दुकानें लूटी जाने लगी। उन्हें ट्रेन से मरने के लिये फेंका जाने लगा। खौफ के कारण कितने अपने गांव भाग आये। कितने लोग ने अपनी सम्पत्तियां लुटा दी। कितने लोग अस्पताल पहुंच गये। कितनी जानें चली गयी। लोगों के बीच नफरत बोने में कामयाब हुये, लोगों ने अपनी राजनीतिक जमीन खड़ी कर ली, लेकिन इस राजनीति की जमीन खून से सींची गयी थी। जिसका परिणाम सामने है कि उसपर फसल आज तक नहीं उगी।

उसी राजनीति की जमीन को तैयार करने में कल्याण के दो सगे भाईयों की बलि चढ़ा दी गयी। उन्हें बेरहमी से मार डाला गया जिसकी कसक आज भी उनके परिवार में है। आज भी उन्हें याद करके उनकी आंखे गीली हो जाती है। डा.ओम प्रकाश दूबे और डा. मयूर दूबे का चेहरा आजतक उनका परिवार भूल नहीं पाया है। पूर्वांचल के जौनपुर जिले के मछली शहर तिलौरा गाँव के सिर्फ दो मौत नहीं थी, बल्कि उन दोनों भाईयों की मौत ने यह भी बता दिया कि हिन्दीभाषियों का जमीर भी मर गया है। उनके मान-सम्मान स्वाभिमान पर खौफ का वह कफन चढ़ा दिया गया जो आजतक नहीं उतरा है।

अपने हक और एकता की बात करने वाला समाज शायद यह नहीं जानता कि जब तक मन में खौफ का साया है। तबतक हिम्मत नहीं होगी कि कोई हक से अपना हक मांग सके। जिनके उपर हत्या का आरोप लगा उन्हें माननीय बना दिया गया। जिनके कारण दो निरपराधों की जान गयी वे उत्तरभारतीयों के चहेते बन गये। जिनका बहिष्कार होना चाहिए था उनका उत्तरभारतीय समाज के मंच पर उनका इस्तकबाल किया जाने लगा। उनके चरणवंदन होने लगे। लोग भूल गये कि यहीं लोग हैं जिनके कारण उनके दो भाईयों की जान चली गयी। 2008 की वह भयानक घटना आज भी उत्तरभारतीयों के दिलो दिमाग पर छायी है। कोई स्वीकार भले ही न करे किन्तु वे जानते हैं कि उनके दिल में जो डर बना है वह डर कभी नहीं निकलने वाला है।

उत्तरभारतीय समाज भले ही अपने मुंह अपनी कीर्तिगाथा का गुणगान करे किन्तु अपने हक के लिये, अपने स्वाभिमान के लिये कभी एकजुट नहीं हो सकता। एकजुट होने के लिये अहंकार छोड़कर एक दूसरे के प्रति प्यार, व्यवहार, अपनापन और सहयोग की भावना रखनी होगी। जो पहल होती दिखायी नहीं देती। अफसोस की बात है कि यह पहल तभी शुरू होती है जब चुनाव का मौसम आता है। अपनी संख्याबल दिखाकर निजी लाभ लेने की की परंपरा व्यवसाय हो सकती है किन्तु एकता का परिचायक नहीं।

चुनाव में मुद्दे बनते हैं। अपने हक के लिये, अपने समाज के लिये लोग अपना एजेण्डा तय करते हैं। अपने लोगों को एकजुट करने के लिये अपना प्लान रखते हैं। समाज के लोग उसपर विचार करते हैं और पसंद आने पर उसे ग्रहण भी करते हैं। तब वहीं विश्वास वोट में तब्दील होता है और परिणाम आपके व्यक्तित्व आपके विश्वास का आंकलन करता है।

कल्याण लोकसभा में कई ऐसे लोगों के नाम सामने आये हैं जिन्होने अपनी ताकत आजमाने का फैसला किया है। लेकिन दो नाम ऐसे भी हैं जिनके उपर चर्चा होना लाजिमी है। एक है उत्तरभारतीय महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनय दूबे और हिन्दीभाषियों की आवाज बनकर सामने आये देवेन्द्र सिहं। एक हिन्दीभाषी समाज की बात कर रहा है तो दूसरा उत्तरभारतीय समाज का। किसके बात की कितनी विश्वसनीयता होगी। यह फैसला समाज करेगा।

आंकलन व्यक्तित्व, विश्वसनीयता, उपयोगिता, सच, झूठ, धोखा, फरेब, समाजसेवा, प्रेम के साथ हिन्दीभाषी/उत्तरभारतीय का भी है।

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