Home मुंबई करवा-चौथ का त्यौहार धूमधाम से मनाया गया

करवा-चौथ का त्यौहार धूमधाम से मनाया गया

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मुंबई से लेकर उत्तर प्रदेश की धरती पर इस विशेष पर्व का आयोजन व प्रयोजन दोनों देखने को भलीभांति मिली। कुछ रात में चाँद देखने निकले तो कुछ महिलाएं चालन में पतिदेव को दिल में बिठा कर चाँद देखते हुए मिली। कुछ इस पावन पर्व की कहानियाँ सुनाते मिली। वाराणसी से शिक्षित, विद्वान महिला चंद्रकला बृजभूषण ने कहानी सुनाते हुए कहा-
मान्धाता कहने लगे कि, जब अर्जुन इन्द्रकील पर्वत पर तप करने चले गए तो उस समय द्रौपदी का मन उदास हो गया और वह चिंतित रहने लगीं। वह सोचने लगीं अर्जुन ने बड़ा कठिन काम करना प्रारंभ कर दिया है, यह निश्चय है कि मार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले बहुत से वैरी हैं। द्रौपदी की यह इच्छा थी कि पतिदेव के काम में कोई विघ्न न आवे इसी चिंता में डूबती-उतरती द्रौपदी श्रीकृष्ण भगवान से पूछती हैंः- द्रौपदी बोली, हे जगन्नाथ! आप एक अत्यन्त गोप्त व्रत को बतावें, जिसके करने से सब ओर के विघ्न दुःख टल जाए।

श्रीकृष्ण बोले कि हे, महाभागे! जैसा आपने मुझसे पूछा है, उसी प्रकार पार्वतीजी ने महादेवजी से पूछा था उनके प्रश्न को सुनकर महादेव जी ने कहा कि हे विरारोहे! हे महेश्वरि! तुम सुनो, मैं तुम्हे सब विघ्न हारिणी करक चतुर्थी का व्रत कहता हूं। पार्वती ने पूछा कि हे भगवन्! करक चतुर्थी का महात्म्य और इस व्रत को करने की क्या विधि है? यह व्रत पहले किसने किया था इसको भी कहिए। महादेवजी बोले कि, जहां बहुत से विद्वान रहते है, जिस जगह बहुत सा चांदी सोना एवं रत्नों का भंडार है। जो सुन्दर स्त्री पुरूषों के दर्शन से तीनों भुवनों को वशीभूत कर लेता है, जहां निरंतर वेद ध्वनि होती रहती है ऐसे स्वर्ग से भी रमणीय इन्द्रप्रस्थपुर में वेद शर्मा नामक विद्वान ब्राह्मण निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम लीलावती था। वह एक सद्गुणी स्त्री थी।

करवाचौथ की अलग-अलग कहानियां इस वेदशर्मा से लीलावती के सात परम तेजस्वी पुत्र और एक शुभ गुणों वाली वीरावती नामक कन्या उत्पन्न हुई। फिर वह ब्राह्मण अपनी नीलकमल सदृश नेत्रोंवाली पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख वाली उस वीरावती कन्या को विवाह योग्य होने पर शुभ समय में वेद वेदांग (शिक्षा व्याकरणादि) शास्त्रज्ञ उत्तम ब्राह्मण के साथ विवाह करवा दिया। वीरावती ने अपनी भाभियों के साथ गौरी पूजन किया फिर जब कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तिथि आई उस समय वीरावती और उसकी भाभी सब मिलकर बड़े प्रेम से संध्या के समय, वट के वृक्ष को लिखकर उसके मूल में महेश्वर, गणेश एवं कार्तिकेय के साथ गौरी को लिखकर गंध, पुष्प और अक्षतों से इस गौरी मंत्र को बोलती हुई पूजने लगीं। शर्वाणी शिवा को नमस्कार है। आप सौभाग्य और अच्छी संतति उन स्त्रियों को दें जो हर की प्यारी और तेरी भक्ति वाली हो। उसके पार्श्व में स्थित महादेव, गणेश और स्वामी कार्तिकेय को धूप, दीप और पुष्य अक्षतों से अलग-अलग पूजन करे।

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वीरावती बालिका थी। भूख प्यास से पीड़ित होने की वजह से अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ी। उस समय उसके बांधवगण रोने लगे। कोई उसको हवा करने लगा, कोई मुख पर पानी छिड़कनें लगा, उसका भाई कुछ सोच विचारकर एक बड़े भारी पेड़ पर चढ़ गया। बहन के प्रेम में पीड़ित था। उसने हाथ में एक जलती हुई मसाल ले रखी थी। उस जलती मसाल को ही उसनें चांद बताकर दिखा दिया। उसने उसे चांद समझ, दुख छोड़, विधिपूर्वक अर्घ्य देकर भाव के साथ भोजन किया।
इसी दोष से उसका पति मर गया। धर्म दूषित हुआ और पति को मरा देख शिवजी का पूजन किया। फिर उसनें एक साल तक निराहार व्रत किया। उसकी भाभियों ने संवत्सर के बीत जाने पर फिर वही व्रत किया। पहले कहे हुए विधान से शोभन मुखवाली वीरावती ने भी व्रत किया। उस समय कन्याओं से घिरी हुई शची देवी इस व्रत को करने के लिए स्वर्ग लोक से चली आई और वीरावती के भाग्य से उसके पास अपने आप पहुंच गई। शची देवी ने उस मानुषी को देखकर उससे सब बातें पूछी। वीरावती ने नम्रता के साथ सब बातें बता दी। हे देवेश्वरी मैं विवाह के बाद जब अपने पति के घर पहुंची तभी मेरा पति मर गया। ना जानें मुझसे ऐसा कौन सा पाप हो गया है कि यह फल मिल रहा है?

आज मेरे किसी पुण्य का उदय हुआ है, जिससे हे देवेश्वरी! आप यहां पधारी हैं। आपसे यही प्रार्थना है कि, आप मेरे पति को शीघ्र जीवित करनें की कृपा करें। यह सुन इंद्राणी बोली, हे वीरावति! तुमने अपने पिता के घर पर करक चतुर्थी का व्रत किया था। उस दिन वास्तविक चंद्रोदय के हुए बिना ही तुमने अर्घ्य देकर भोजन कर लिया था। इस प्रकार अज्ञान से व्रत भंग करने की वजह से तुम्हारा पति मर गया है। इस कारण आप अपने पति के पुर्नजीवन के लिए विधिपूर्वक उसी करक चतुर्थी का व्रत करिए। मैं उस व्रत के ही पुण्य प्रभाव से तुम्हारे पति को जीवित करुंगी। श्रीकृष्ण चन्द्र बोले कि, हे द्रौपदी ! इन्द्राणी के वचन सुनकर उस वीरावती ने विधिपूर्वक करक चतुर्थी का व्रत किया। व्रत के पूरा हो जाने पर इन्द्राणी प्रसन्नता प्रकट करती हुईं.वह एक चुल्लु जल लेकर वीरावती के पति के मरण भूमि पर छिड़ककर उसके पति को जीवित कर दिया। वो पति देवताओं के समान हो गया। वीरावती अपने घर पर जाकर अपने पति के साथ क्रीडा करने लगी। धन, धान्य, सुन्दर पुत्र से उसका दांपत्य जीवन आनंदित हो उठा।

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