तंत्र के जन्मदाता भगवान शंकर है जिन्होंने लोक कल्याण की कामना से माता पार्वती को इसे बताया था। इसके द्वारा साधक आठों प्रकार की सिद्धियों व नवों प्रकार की निधियों को प्राप्त कर सकता है तथा वह दैहिक दैविक व भौतिक त्रय तापों से परे हो जाता है। तंत्रशाष्त्र में मानव जीवन की सभी भौतिक आवश्यकताओं व समस्याओं का समाधान तांत्रिक षटकर्मों के प्रयोग से आसानी से हो जाता है। उन षटकर्मों के नाम क्रमश: मोहन, आकर्षण, वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन व मारण है। मारण का प्रयोग तंत्र में वर्जित बताया गया है, क्योंकि इसे करने व करवाने वाले दोनों को इसका प्रायश्चित भोगना पड़ता है। भगवान शिव ने रावण को तंत्रविद्या का ज्ञान देते हुये कहा था — तंत्र विद्या क्षणम् सिद्धी।
तंत्रशास्त्र को गोपनीय बनाये रखने हेतु इसके बारे में बहुत सारी भ्रान्तियां फैलायी गयी है। साथ ही कुछ स्वार्थी व आसामाजिक तत्वों द्वारा इसके रूप को विकृत कर पेश किया गया है। सबसे अधिक दुष्प्रचार पंचमकार का हुआ है। जिसमें ‘मद्य, मत्स्य, मांस, मैथुन व मुद्रा। यहीं पंचामकार हैं। जो तंत्र साधना द्वारा सिद्धि प्राप्ति का मूल आधार है। आगमसागर तंत्र में स्पष्ट कहा गया है—
सोमधारा क्षरेद यातु ब्रह्मरंध्राद वराणने।
पीत्वानन्दमयास्तां य: स एव मद्य साधक:।।
अर्थात — ब्रह्मरन्ध्र से निकलने वाली अमृतधारा को पीकर आनन्दमग्न होने वाले साधक का ही नाम मद्यसाधक है। खेचरी मुद्रा द्वारा इस अमृत का पान करने वाला साधक अजर अमर व निरोगी होती है। तथा सदैव आनन्दित रहता है। जबकि वाममार्गी व अघोरी साधक निरन्तर मदिरापान कर खुद तो बर्बाद होते ही हैं। अपने शिष्यों को भी बर्बाद करते हैं।
या शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान रसना त्रिये।
यस्तद् भक्षयेन्नित्यम स एव मांस साधक:।।
अर्थात— जो व्यक्ति जिह्वा को उलटकर तालुमूल में ले जाकर वहां स्थित अगल बगल के मांस को जिह्वा द्वारा हटाकर ब्रह्मरन्ध्र से आने वाले अमृत का पान करता है। उसे ही मांस साधक कहते हैं। इससे वर श्राप देने की शक्ति आती है। व साधक के उपर विष भी बेअसर हो जाता है।
गंगा यमुनर्योमध्ये मत्स्यो द्वौ चरत: सदा।
तौ मत्स्यो भक्षये दयस्तु स: भवेन्मत्स्य साधक:।।
अर्थात— गंगा व यमुना रूपी इडा व पिंगला नाड़ी के बीच जो श्वांस—प्रश्वास निरन्तर चलता रहता है। यहीं दो मत्स्य हैं। जिसका अजपा जाप द्वारा निरन्तर अभ्यास करने वाला ही मीन साधक होता है। इसके द्वारा शरीरस्थ चक्रों का शोधन होता है व अलौकिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
सहस्त्रसारे महापदमों कर्णिका मुद्रिता चरेत।
आत्मा तत्रैव देवेशि केवलं पारदोपम:।
यस्य ज्ञानोदस्त्रत मुद्रसाधक उच्यते।।
अर्थात— सहस्त्रसार चक्र में स्थित आत्मा के स्वरूप का ज्ञान जिस साधक को हो जाता है। वहीं प्रकृति मुद्रासाधक होता है। इससे साधक को अपने मूलस्वरूप का ज्ञान होता है।
मैथुनं परमं तत्वं सृष्टि स्थित्यन्त कारणम्।
मैंथुनाद जायते सिद्धि ब्रह्मं ज्ञानं सुदुर्लभमं।
अर्थात— जब मूलाधार चक्र से चलकर कुणडलिनी सहस्त्रसार में मिल जाती है तो उसे ही मैथुन कहते हैं। जिससे साधक को ब्रह्मतत्व की उपलब्धि हो जाती है। और साधक के मुंह से सहसा निकल पड़ता है ‘अहं ब्रहास्मि’। इसी देव दुर्लभ स्थिति को प्राप्त करने के लिये देवताओं को भी मनुष्य का शरीर धारण करना पड़ता है। जहां तंत्र विद्या के सही ज्ञान व सदुपयोग ने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था। वहीं कालचक्र में इसके अज्ञान व दुरूपयोग ने इस देश को गुलाम बना दिया था। अत: भूलकर भी तंत्र का दुरूपयोग न करें। व अयोग्य गुरू के चक्कर में न पड़ें वर्ना बर्बाद होते देर नहीं लगेगी।