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मन की बात: वर्दी से ही इतनी नफरत क्यों! निगाहें कुछ और क्यों नहीं देखती

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गत 29 जून को भदोही जिले गोपीगंज कोतवाली में हुई मौत अचानक हुआ एक हादसा था। यह मौत पुलिस की पिटाई से नहीं हुई थी। जैसा कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट और मृतक की बेटियों के बयान से साफ जाहिर होता है। मृतक एक सीधा सादा सामान्य शहर था जो हमेशा पुलिस से बचकर रहता था। भाई से विवाद के बाद वह थाने गया और वहां पुलिस द्वारा भाई को मारे गये थप्पड़, अपने परिवार का कोतवाल में देखना और खुद को दो तीन थप्पड़ खाने का अपमान उससे सहन नहीं हुआ। शायद हवालात में बंद होने के बाद उस अपमान और घुटन को सहन नहीं कर पाया और सीने में उठे तेज दर्द ने उसे मौत के आगास में सुला दिया।

निश्चत तौर पर एक परिवार के उपर दुखों का पहाड़ टूटा। बच्चे बेसहारा हो गये। पुलिस की भी लापरवाही सामने आयी कि उसने वस्तुस्थिति को समझने में देर कर दी, लेकिन उसके बाद मीडिया और सोशल मीडिया पर जो पागलपन का दौर चला वह बहुत ही दुखद था। राजनीति का जो गिरता स्तर दिखायी दिया वह शर्मनाक था। एक तरफ खुद मृतक की बेटियां की रही हैं कि मेरे पापा को पुलिस ने दो तीन थप्पड़ मारे और जब कोतवाल में यह दुखद घटना हुई तो कोतवाल सुनील वर्मा मौजूद नहीं थे। इसके बाद भी कोतवाल सुनील वर्मा को हत्यारा कहा जाने लगा। लोग लिखने लगे कि पुलिस की बर्बर पिटाई से फरियादी की मौत हुई। कितना फर्क है दोनों बयानों में बेटियां बोल रही हैं कि दो तीन थप्पड़ मारे और मीडिया और सांशल मीडिया पर बर्बर पिटाई बोला जा रहा है।

जिस कानून के पास हम अपनी फरियाद लेकर जाते हैं उसी पर भरोसा नहीं करते और खुद ही विवेचक और न्यायालय बन जाते हैं। घटना के बाद कोतवाल को लाइन हाजिर किया गया। विभागीय जाच बैठायी गयी। मजिस्ट्रेटियल जांच के आदेश हुये। यहां तक कि हत्या का मुकदमा भी दर्ज हुआ लेकिन सोशल मीडिया पर ऐसा जोश दिखा कि जैसे बिना किसी जांच कि सुनील वर्मा को फांसी दे दी जाये जब चुप होंगे। पागलपन का ऐसा दौर हमें किस दिशा में ले जा रहा है।

हद तो यह है कि पुलिस को इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे पुलिस आतताई हो गयी है। पुलिस को हत्यारा बताया जा रहा है। जो लोग किसी पुलिस वाले के साथ खड़े होकर शान से फोटो खिंचाकर फेसबुक पर डालकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे, वहीं लोग पुलिस की मां बहन कर रहे हैं। भारतय संस्कृति और मर्यादा को ताक ताक करने वाले शायद यह भूल गये कि मां बहन बेटियां चाहे पुलिस वाले की हो या सामान्य जन की सबकर एक समान होती हैं और सबकी इज्जत करना ही संस्कार है, लेकिन संस्कार का जमकर गला घोंटा गया। किसी की मौत होना दुखद होता है किन्तु मौत के बाद शव को जातिगत बना देना और भी दुखद होता है। हांलाकि यह सच है कि यह मौत यदि किसी दलित या मुस्लिम की हुई होती तो प्रशासन इतनी संवेदनहीनता भी नहीं दिखाता। यह भूल दोनों तरफ से हुई है।

पुलिस कोई सामान्य शब्द नहीं है। यह एक ऐसा शब्द है जो हमें सुरक्षा का अहसास कराता है। 24 घंटे ड्यूटी करने वाला पुलिसकर्मी हमारी आपकी सुरक्षा के लिये हमेशा तैयार रहता है। जिस तरह बेखौफ होकर हम रात दिन घूम लेते हैं, जिस सुरक्षा के भरोसे हमारी बहन बेटियां बाहर निकलती हैं। उस सुरक्षा का अहसास हमें पुलिस से ही होता है। यदि एक दिन के लिये पुलिस हड़ताल कर दे तो शायद हमारी सारी नेतागिरी कहीं घुस जाये। उस एक दिन को हम इतने खौफ में गुजारेंगे कि पूरे दिन घर में ताले बंद करके रहेंगे। कल्पना कीजिये उस दिन क्या होगा। फिर जिस वर्दी के भरोसे हमें सुरक्षा दिखती है उसी वर्दी को लेकर हममें इतनी नफरत क्यों भरी है।

दरअसल हमारे डरने की आदत ही हमें विरोध करना सिखा देती है। डरते उसी से हैं जो हमें मजबूत दिखता है और वर्दी के साथ भी वहीं होता है। पुलिस विभाग एक ऐसा विभाग है जो सीधे जनता से जुड़ी होती है। जब भी हमें असुरक्षा महसूस होती है सबसे पहले हमारे जेहन में पुलिस का ही खयाल आता है। सबसे पहले फोन हम पुलिस को ही करते हैं फिर भी पुलिस से इतनी नफरत क्यों?

देखा जाय तो रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के मामले में पुलिस बहुत पीछे है। अन्य सरकारी विभागों में देखिये तो बिना रिश्वत के कोई काम नहीं करा पाता है। किसी सरकारी कार्यालय से कोई प्रमाणपत्र लेना भी है तो बिना सुविधा शुल्क के नहीं मिल पाता। शिक्षा विभाग में जमकर लूट मची है। विकास के लिये आये पैसे को ग्राम प्रधान लूट रहे हैं। गांव में बन रही सड़कें देखें तो छर्रिया डालकर काली कर दी जा रही हैं जो पहली ही बरसात में ध्वस्त हो जाती हैं। इलाज की लापरवाही से जितनी मौत अस्पताल में होती है उतनी पुलिस के कारण नहीं होती। पुलिस सबसे अधिक आम पब्लिक से जुड़ी होती है इसलिये उस पर अंगुली उठाना आसान हो जाता है। आखिर पुलिस उसी से पैसा लेती है जो गलत करके पुलिस से बचना चाहता है। सड़क पर जाते किसी शरीफ आदमी को रोकर या किसी शरीफ आदमी के घर में घुसकर किसी पुलिस वाले ने तो किसी को नहीं लूटा।

इसका मतलब यह नहीं कि हम पुलिस का पक्ष ले रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह कि जितनी नफरत हमारे मन में पुलिस के प्रति बसी हुई है यदि इतनी ही नफरत भ्रष्टाचार के लिये होती तो आज हर विभागों में चल रहे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की मुहिम छेड़ देते, इमानदारी से उस हर इंसान, संस्था, विभाग के खिलाफ खड़े होते जो देश और समाज को अपनी गलत नीतियों और कार्यो से चूस रहा है, लेकिन ऐसा हम नहीं करते। क्योंकि हमें भ्रष्टाचार से कोई लेना देना नहीं है। हमें अपनी कुंठा निकालनी है और यह कुंठा सबसे अधिक पुलिस के प्रति बसी हुई है जो मौका मिलते ही बाहर निकल आती है। सच और झूठ का पैमाना जाने बिना हम गाली गलौज तक उतर आते हैं।

हालांकि इसके लिये कुछ पुलिसकर्मी भी दोषी है जो अपने वर्दी के रोब बेवजह दिखाकर पूरे विभाग को बदनाम करते हैं। आम जनता और पुलिस के प्रति आपसी तालमेल होना चाहिये किन्तु इसका प्रयास नहीं किया जाता बल्कि कागजों और बयानों पर ही पुलिस मित्र बनाते हैं। आवश्यकता नफरत या खौफ की नहीं बल्कि आपसी तालमेल की है जिसके लिये पुलिस विभाग को भी उन कमियों को दूर करना होगा जिसे लेकर आम जनमानस में वर्दी के प्रति नफरत का भाव बना हुआ है।

7 COMMENTS

  1. बहुत बढ़िया लेख सर
    अगर सब विभाग ईमानदारी से अपना कार्य करने लगे तो सोने पे सुहागा हो जाएगा !
    लेकिन ऐसा मुमकिन नही है जैसे कि हाथों की पॉचों उंगलियाँ समान नही होती !
    लेकिन बहुत हद तक हमलोग कामयाब हो सकते है अगर सब जागरूक हो जाए तो !

  2. मृतक के परिवार के साथ हमारी संवेदना है,और मुझे लगता है कि जो भी इस मामले को जानते है सभी उस परिवार के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त कर रहे है किन्तु तथाकथित बुद्धिजीवी,जो न तो इस मामले को नजदीक से जानते है और न ही उनकी संवेदना उस परिवार के साथ है। उनका उद्देश्य केवल और केवल राजनैतिक स्वार्थ है वरन परिवार तो उस कोतवाल का भी है जो निर्दोष होकर भी हत्या का मुकदमा झेलने को तैयार है।हाँ मैं यह भी मानता हूं कि तमाम मामलो में पुलिस की कार्यशैली संदेहास्पद होती है जिससे इस विभाग को लोग सशंकित दृष्टि से देखते है किंतु यह मामला कुछ अलग है।जहाँ तक संभव हो लोगो को प्रयास करना चाहिए कि दोनों परिवार को न्याय मिले।

  3. ये पुलिस वाले 1 नंबर के मदार चोद होते है,इनको ट्रेनिंग ही गालियाँ देकर बात करने की दी जाती है,ये आम नागरिक को कुत्ते से बदत्तर समझते हैं।जहाँ से पैसा मिला उसी की सुनते है,ये वर्दी मिल गई तो अपने को cm, pm से भी ऊपर समझते है,क्या कसूर था मिश्र के परिवार का जो थाने में अपने अभिवावक से मिलने गई थी,उनको मा बहन की गाली ऊपर से जेल में बंद करने की धमकी और जबरन अहाते से बाहर भगा दिया गया,उसके बाद भी जब मिश्रा को दर्द हुआ तो उसका एक भी बात सुना नही गया,क्या उस समय उन पुलिस वाले कि मानवता मार चुकी थी,नही ओ थो अपने घमण्ड में थे।इसके लिए पुलिस से सब कोई नफरत करता हैंके अंदर मानवता नाम की कोई चीज़ नही होती है।

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