रविन्द्र सिंह के मन की बात:
2019 के लोकसभा चुनाव का माहौल बन चुका है। सारे वादे और इरादे, साहेब और शहजादे चुनावी रंग से सराबोर हैं। एक 60 साल का हिसाब मांग रहा है, तो दूसरा पिछले पांच साल का। दोनों एक-दूसरे के घोटालों और नाकामियों की अपनी-अपनी लिस्ट लाचार जनता को सुना रहे हैं। इस दौरान सोशल मिडिया पर ट्रोलों की तीखी होती जा रही जंग के बीच गाँधी जयंती आ गई। गाँधी जी दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं। एक ने गाँधी के नाम पर इतने साल देश पर राज किया, तो दूसरा उनको न चाहते हुए भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। गाँधी एक की ज़रूरत हैं, तो दूसरे की मजबूरी।
गांधी जयंती पर वर्धा आश्रम में जब राहुल गाँधी कांग्रेस को गांधी का वारिस बताते हुए देश को मोदी सरकार से आज़ाद कराने के लिए जनता का आवाहन कर रहे थे, ठीक उसी समय 25 हज़ार से अधिक किसान दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर पुलिस के आंसूगैस और पानी की बौछार झेल रहे थे। किसानों की हालत किसी से भी छिपी नही है। औसतन 11 हज़ार किसान सालाना आत्महत्या कर रहे हैं। खुद को गांधी का वारिस बताने वाली पार्टी क्या यह बता सकती है कि गांधीजी जिस ग्राम स्वराज की बात कहते हैं, उसकी स्थापना के लिए उसने क्या किया है? अपने 5 दशक से अधिक के शासनकाल में कांग्रेस ने किसान के बाबत गांधी जी के कौन से स्वप्न को साकार किया । आखिर, हमारे किसान और गांव की यह हालत सिर्फ पिछले पांच साल में ही तो नही हुई — यह पिछले 70 सालों की उपेक्षा का परिणाम है।
दूसरी ओर, कांग्रेस के गांधी तो क्या, बीजेपी अपने ‘गांधी’ को भी त्याग चुकी है। बीजेपी के गांधी यानी पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जो विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के हिमायती थे। कुछ लोगों के हाथों में सम्पदा के केंद्रीकरण के वे घोर विरोधी थे। लेकिन बीजेपी के शासनकाल में देश के 100 सबसे बड़े पूंजीपतियों की संपत्ति में 26% से अधिक की वृद्धि हुई है। पिछले साल देश की आय का 72% देश की मात्र 1% आबादी के हाथ चला गया। अकेले मुकेश अम्बानी की संपत्ति में 67% की वृद्धि हुई है। दूसरी ओर, हाल ही में अज़ीम प्रेमजी विश्विद्यालय ने ‘स्टेट और वर्किंग इंडिया 2018’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसके अनुसार देश में 92% श्रमिक महिलाएं और 82% श्रमिक पुरुष हर महीने 10,000 रुपये से कम कमाते हैं। देश के 90% परिवार 10,000 रुपए महीना से ज्यादा नही कमा पाते। अमीर और गरीब के बीच चौड़ी होती इस खाई को पाट कर अपने आदर्श पंडित दीनदयाल के स्वप्न को साकार करने के लिए बीजेपी सरकार ने अभी तक तो कुछ किया हो, ऐसा तो नज़र नहीं आता।
सच्चाई तो यह है कि इन दलों को गांधी या दीनदयाल की कोई आवश्यकता नहीं है, सिवाय इसके कि ये इनके नाम पर विभिन्न योजनाएं और कार्यक्रम चलाते हैं। राजनैतिक दलों को तो ज़रूरत है बस अम्बानी-अडानी और टाटा-बिरला की, जिनका करोड़ों रुपया उन्हें विभिन्न चुनावी ट्रस्टों के जरिए कानूनी रूप से प्राप्त हो रहा है। अब तो पार्टियों को कार्यकर्ताओं की भी आवश्यकता नहीं है। उन्हें तो चाहियें प्रचार के लिए पीआर एजेंसियां,और चाहियें सस्ते फोन तथा सस्ता इंटरनेट, जिसके जरिये इनके मिडिया सेल में बैठे किराये के लोग गरीब से गरीब मतदाता को भरमाते या लुभाते हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि जिओ के मालिक मुकेश अम्बानी ने इस साल अपनी संपत्ति में लगभग 7 खरब रुपये और जोड़े हैं।
इस पूरी चर्चा का सार यही है कि आज व्यक्ति हो या राजनैतिक दल, वे बड़े-बड़े आदर्शों की बातें तो करते हैं, पर जब उन पर अमल की बात आती है, तो उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाते। आज देश और समाज के हित के लिए बड़े-बड़े ज्ञानियों और बढ़िया वक्ताओं या भाषण देने वालों की ज़रूरत नहीं है। आज हमें आवश्यकता है ऐसे लोगों की जिनकी कथनी और करनी एक हो, और जिनके दिल में दुखी मानवता के लिए प्रेम हो।
साभार- श्री रविन्द्र सिंह जी- जन सम्पर्क सचिव, प्राउटिस्ट ब्लाक इंडिया, नई दिल्ली