Home साहित्य “माँ” लघुकथा – वंदना श्रीवास्तव

“माँ” लघुकथा – वंदना श्रीवास्तव

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मेरी गृहकार्य सहायिका सुमन बाई काम समाप्त करके थोड़ा सुस्ता रही थी। उसका पीला पड़ा काँति हीन चेहरा और उदास-निराश भाव भीतर तक मुझे व्यथित कर रहा था। मैंने उसके लिए चाय बनाई। बेचारी पिछले पाँच वर्षों से बच्चा न हो पाने की वजह से ससुराल वालों गालियाँ-लानतें और पति की उपेक्षा झेल रही थी। जाने कौन से डाक्टर की दवा या ओझा-पंडित के गंडे-तावीज का प्रताप था कि उसके गर्भ में जीवन ने अंगड़ाई ली। लेकिन उसका दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा, उस अभागिन का गर्भ चार माह में ही नष्ट हो गया। जैसे पागल ही हो गई थी वह। अब थोड़ा सम्हली है, तो पिछले हफ्ते से काम पर आना शुरू किया है।

मैं द्रवित हृदय से उसके निराश और दुखी चेहरे को ताक रही थी, तभी बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। मैं भी उत्सुकता वश बाहर आई। पता चला कि सामने नहर के किनारे एक नवजात बच्ची पड़ी है, जो लगातार रो रही है। कुछ लोग पुलिस को फोन लगा रहे थे। कुछ उस बच्ची के अज्ञात माँ-बाप को कोस रहे थे तो कुछ पतन की ओर तेजी से बढ़ती युवा पीढ़ी को।
तभी सबने देखा कि भीड़ को चीरती सुमन पागलों की तरह दौड़ती हुई उस बच्ची के पास पहुँची और लपक कर बच्ची को सीने से चिपका लिया। उसके स्तनों से दूध और आँखों से आँसुओं की धारा एक साथ फूट पड़ी थी।

 

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