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मुम्बई: क्या इस तरह आयेगी उत्तरभारतीयों में एकता

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सत्ता सुख की मलाई खाने के लिये आम लोगों को जाति धर्म के बीज रोपकर विभिन्न प्रदेशों में पनपी राजनीतिक पार्टिया हमेशा एक दूसरे को नीचा दिखाने का कुचक्र रचती रहती हैं, लेकिन चुनाव आते ही जब उन्हें सत्ता सुख खोने का डर सताने लगता है तो अपने निजी मतभेदों को भुलाकर एक दूसरे के साथ खड़े हो जाते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे किसी भंडार गृह के सामने रोटी पाने की आस में जुटे कुछ श्वान बड़े ही शान्त भाव से दरवाजे को निहारते रहते हैं। एक दूसरे श्वान को देखकर सिर हिलाकर एकता दर्शाते हैं। कभी गौर किया है आपने, उन्हें देखकर यही लगता है कि सभी में बड़ा प्रेम है, लेकिन रोटी का टुकड़ा मिलते ही एक दूसरे पर इसलिये झपट पड़ते हैं कि दूसरे श्वान के हिस्से में कहीं बड़ा टुकड़ा न आ जाय। फिलहाल यही हाल लोकसभा चुनाव में उन छोटे—छोटे राजनीतिक दलों का भी है जो चुनाव पूर्व एक दूसरे की टांग खींचने में लगे थे, किन्तु मौजूदा समय में महागठबंधन बनाकर आमलोगों को ठगने में लगे हैं।

इन्हीं मौसमी राजनीतिक गठबंधन की तरह मुंबई में रहने वाले उत्तरभारतीयों का भी हाल है। बात कल्याण डोम्बीवली में रहने वाले उत्तरभारतीयों की करें तो पूर्वांचल की माटी का यह सदैव असर रहा है कि यहां की मिट्टी में जन्में लोग अपनी रोजी रोटी के लिये देश के किसी भी हिस्से में गये किन्तु उनकी राजनीतिक और सामाजिक महात्वाकांक्षा का जूनून हमेशा कायम रहा। अपने कार्यों से उन्होंने सदैव एक अलग पहचान बनायी। राजनीति, समाजसेवा और व्यवसाय के क्षेत्र में अपना विशेष मुकाम भी बनाया।

वहीं उत्तरभारतीयों में एक बात यह भी है कि वे हमेशा समाज को एकसूत्र में जोड़ने की वकालत करते रहे, लेकिन इस वकालत को करने वालों की नियत का अंदाजा कितना साफ है, इससे भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे खुद को आगे रखने और दूसरों को पीछे रखने की बात करते रहते हैं। कल्याण डोम्बीवली क्षेत्र में ऐसे एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों सामाजिक संगठन बने हैं जो सामाजिक कार्य से लोगों का भला करने या समाज को एकसूत्र में जोड़ने के अलावा खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं। उत्तरभारतीय एकता की बात करने वाले दूसरों की बुराई करके खुद को बड़ा दिखाने की कोशिस रहती है, जिससे उत्तरभारतीय समाज एक नहीं हो पा रहा है।

एकता और समर्पण की भावना तब आती है जब लोग एक दूसरे का सम्मान करें और खुद को अपने अनैतिक विचारों और जबरदस्ती के वक्तव्यों से अलग रखकर अपने सामाजिक कार्यों से खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करे, लेकिन एकता की बात करने वाले खुद ही आपसी मतभेद के जहर में इस कदर सने हुये हैं। अभी पिछले दिनों भी ऐसे वाकये देखे गये जब खुद दूसरे से अधिक प्रभावी दिखने के लिये दूसरे के कार्यक्रमों को फेल करने की मंशा से उसी दिन कार्यक्रम रखना शुरू कर दिये, जबकि उसी तरह के कार्यक्रम पहले से आयोजित होते रहते हैं। ऐसे लोग जब एक दूसरे की टांग खींचकर एकता की बात करते हैं तो इससे बड़ा मजाक कुछ नजर नहीं आता है।

वर्तमान उदाहरण यह है कि लोकसभा चुनाव आते ही कुछ लोगों की राजनीतिक लाभ लेने की भूख कुलबुलाने लगी। फिर प्लान बनाया कि कैसे एक बार फिर उत्तरभारतीय या हिन्दीभाषियों को एक मंच पर लाया जाय, लेकिन ऐसे लोगों का मकसद समाज को एक मंच पर लाना नहीं बल्कि अपने ही समाज के कुछ लोगों को नीचा दिखाये जाने की सोच थी। चुनाव घोषित होने से कुछ दिन पूर्व ही कल्याण में एक व्हाट्सअप ग्रुप बनाया गया। जिसमें कुछ विशेष लोगों को जोड़कर एकता की छद्म आवाज को बुलंद किया जाने लगा। लोगों से राय ली जाने लगी कि समाज के किसी व्यक्ति को आगे करके अपने समाज की अलग पहचान बनायी जाये। पहल अच्छी थी इसलिये इसकी प्रशंसा भी होने लगी किन्तु इस ग्रुप का मकसद समाज को जोड़ना नहीं था बल्कि कुछ और ही था। लोगों का विचार था कि समाज के किसी ऐसे व्यक्ति को खड़ा किया जाये जिसके नाम पर सबलोग एकजुट हों। इसके लिये बकायदा लोगों ने लाखों रूपये चंदा देने का भी प्रस्ताव रखा। इसमें अंबरनाथ के रहने वाले एक ब्राह्मण नेता चुनाव लड़ने की इच्छा भी जाहिर की, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि इसके पीछे का मकसद शायद कोई एकता नहीं बल्कि कुछ और भी था।

इसी का परिणाम था कि एक ऐसे व्यक्ति का नाम चुनाव में सामने ला दिया गया जो आर्थिक रूप से मजबूत था किन्तु समाज के लिये उसका कोई बड़ा योगदान नहीं है। इस बात पर लोगों की सहमति नहीं बनी इसलिये काफी लोग अलग हो गये। एकतरफा लिये गये इस निर्णय से लोगों में नाराजगी झलकने लगी। हिन्दीभाषियों में एकता की भावना बढ़ने के अलावा उनमें वैमनस्यता की भावना प्रबल होती गयी। एकदूसरे को अपशब्दों से भी नवाजा जाने लगा। गत बुधवार को हालात यह बन गये कि कुछ अप्रिय घटना घटने की नौबत आ गयी।

समाज के प्रबुद्ध लोग जो वास्तव में उत्तरभारतीय और हिन्दी समाज का भला चाहते हैं उनमें गहन मंथन हुआ कि इस समय चुनाव का जो माहौल बना हुआ है उसमें यदि कोई निर्दलीय प्रत्याशी समाज से उतारा जाता है तो कुछ सौ या हजार वोटों पर सिमट जायेगा। क्योंकि लोगों में चुनाव को लेकर कुछ और ही जूनून देखा जा रहा है लिहाजा निर्दलीय प्रत्याशी देवेन्द्र सिंह को चुनाव से हाथ वापस लेने एक उत्तरभारतीय भाजपा नेता के नेतृत्व में लोगों ने श्री सिंह को समझाने का विचार बनाया, जिसकी जानकारी होने पर देवेन्द्र सिंह के एक मौकापरस्त समर्थक ने अलंकृत विशेष शब्दों का इस्तेमाल किया। इसकी जानकारी होने पर लोगों का गुस्सा चरम पर पहुंच गया।

हालांकि मामला किसी तरह शान्त हो गया किन्तु अंदर ही अंदर विघटित दिखायी दे रही उत्तरभारतीय एकता का दंभ टूट चुका है। चुनाव की तैयारी में जुटे देवेन्द्र सिंह चुनाव लड़ने के मूड में हैं किन्तु उन्हीं के चंद समर्थकों की वजह से उत्तरभारतीयों के मन में सबक सिखाने की भावना भी प्रबल हो गयी है जिसका परिणाम चुनाव परिणाम खुद ही बता देगा। अब देखना यह है कि इस लोकसभा चुनाव में सम्मानित मत पाकर हिन्दीभाषियों की नाक बचती है या ……..?

                                    अभी जारी है……..

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