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बान्द्रा स्टेशन की झोपडपट्टी में प्रतिवर्ष आग का रहस्य

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हमार पूर्वांचल
अयोध्या न्यूज़

मुंबई : सबसे पहले कुछ पंक्तियाँ उन पाठकों के लिए, जिन्हें बांद्रा स्टेशन (Bandra Railway Station) के बारे में जानकारी नहीं है। मुम्बई में स्थित बांद्रा रेलवे स्टेशन, दादर एवं मुम्बई सेन्ट्रल (Mumbai Central) स्टेशन पर पड़ने वाले ट्रेनों के दबाव को कम करने के लिए एक अतिरिक्त टर्मिनस स्टेशन के रूप में विकसित किया गया था। यह स्टेशन पश्चिम रेलवे के अंतर्गत आता है।

ठीक इसी प्रकार का एक टर्मिनस स्टेशन कुर्ला नामक स्थान पर भी है, जो कि छत्रपति शिवाजी टर्मिनस जैसे मुख्य स्टेशन का दबाव कम करता है। बांद्रा और कुर्ला (Kurla Rail Terminus) इन दोनों स्टेशनों से कई ट्रेने आरम्भ और समाप्त होती हैं। बांद्रा स्टेशन के आस-पास चारों तरफ गहरी-घनी और गंदगी से लबरेज कई झोपडपट्टी मौजूद हैं। जिनमें से अधिकाँश का नाम “नवाज़ नगर”, “गरीब नगर”, “संजय गांधी नगर”, “इंदिरा गांधी नगर” वगैरह है। आप सोचेंगे इसमें ऐसी क्या ख़ास बात है? ऐसा तो भारत के कई रेलवे स्टेशनों के आस-पास होता होगा… बान्द्रा की इन झोपडपट्टी (Biggest Slum Area of Asia) की ख़ास बात यह है कि इसमें प्रतिवर्ष (जी हाँ, बिलकुल बिना किसी खण्ड के, प्रतिवर्ष मतलब प्रतिवर्ष) बड़ी जोरदार आग लगती है। ऐसे अग्निकाण्ड देश की किसी भी झोपडपट्टी में “नियमित” रूप से नहीं होते। आखिर इस आगज़नी का रहस्य क्या है? बार-बार बान्द्रा स्टेशन के आसपास ही आग क्यों लगती है?

आईये थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं…

पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारों ने नोट किया है कि बांद्रा झोपडपट्टी में लगने वाली यह आग हमेशा देर शाम को अथवा देर रात में ही लगती है। दिन में नहीं, ऐसी भीषण आग लगने के बाद बांद्रा स्टेशन पहुँचने वाले, वहाँ इंतज़ार करने वाले रेलवे यात्री घबराकर इधर-उधर भागने लगते हैं। डर के मारे काँपने लगते हैं (अभी कुछ सप्ताह पहले लगी आग के दौरान एक-दो यात्रियों की मौत आपाधापी में रेलवे ट्रैक पर आने से हो गयी। परन्तु सर्वाधिक आश्चर्य इस बात का है कि जब भी इन झोपडपट्टी में आग लगती है, तो यहाँ के निवासी बड़ी शान्ति के साथ चुपचाप खाली स्थानों, रेलवे स्टेशन के आस-पास एकत्रित हो जाते हैं। उन्हें कतई भय नहीं होता, आग बुझाने की जल्दबाजी भी नहीं होती। स्वाभाविक रूप से इन झोपडपट्टी की गलियाँ बेहद सँकरी होने के कारण अग्निशमन (फायर ब्रिगेड) और पुलिस की गाड़ियाँ अथवा एम्बुलेंस अन्दर तक नहीं पहुँच पातीं… कुल मिलाकर बात यह कि झोपडपट्टी पूरी जल जाने तक यहाँ के “निवासी” शान्ति बनाए रखते हैं. इसके बाद एंट्री होती है टीवी कैमरों, चैनलों के संवाददाता और पत्रकारों की, जो गलियों में पैदल घुसकर तमाम फोटो खींचते हैं, चिल्ला-चिल्लाकर बताते हैं कि “देखो, देखो… गरीबों का कितना नुकसान हो गया है…”. कुछ ही समय में (या अगले दिन कुछ महिलाएँ कैमरे के सामने अपनी छाती कूटते हुए पधारती हैं, रोना-धोना मचाकर सरकार से मुआवज़े की माँग करती हैं। ज़ाहिर है कि अगले दिन की ख़बरों में, समाचार पत्रों, चैनलों इत्यादि पर झोपडपट्टी के इन “गरीबों”(??) के प्रति सहानुभूति जगाते हुए लेख और चर्चाएँ शुरू हो जाती हैं। आगज़नी के कारण जिन गरीबों का नुकसान हुआ है, जिनकी झोंपड़ियाँ जल गयी हैं, उनका पुनर्वास हो ऐसी मांगें “नेताओं” द्वारा रखी जाती हैं. कथित बुद्धिजीवी और कथित संवेदनशील लोग आँसू बहाते हुए बांद्रा की झोपडपट्टी वाले इन गरीबों के लिए सरकार से पक्के मकान की माँग भी कर डालते हैं।

ज़ाहिर है कि इतना हंगामा मचने और छातीकूट प्रतिस्पर्धा होने के कारण सरकार भी दबाव में होती है, जबकि कुछ सरकारें तो इसी आगज़नी का इंतज़ार कर रही होती हैं। इन कथित गरीबों को सरकारी योजनाओं के तहत कुछ मकान मिल जाते हैं, कुछ लोगों को कई हजार रूपए का मुआवज़ा मिल जाता है… इस झोपडपट्टी से कई परिवार नए मकानों या सरकार द्वारा मुआवज़े के रूप में दी गयी “नई जमीन” पर शिफ्ट हो जाते हैं… इसके बाद शुरू होता है असली खेल। मात्र एक सप्ताह के अन्दर ही अधिकाँश “गरीबों”(??) को आधार कार्ड, PAN कार्ड, मतदाता परिचय पत्र वगैरह मिलने शुरू हो जाते हैं। मात्र पंद्रह दिनों के भीतर उसी जले हुए स्थान पर नई दो मंजिला झोपडपट्टी भी तैयार हो जाती है, जिसमे टीन और प्लास्टिक की नई-नकोर चद्दरें दिखाई देती हैं। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी झोपडपट्टी में पानी मुफ्त में ही दिया जाता है, बिजली चोरी करना भी उनका “अधिकार” होता है. झोपडपट्टी में थोड़ा गहरे अन्दर तक जाने पर पत्रकारों को केबल टीवी, हीटर, इलेक्ट्रिक सिलाई मशीनें वगैरह आराम से दिख जाता है (केवल सरकारों को नहीं दिखता)

प्रतिवर्ष नियमानुसार एक त्यौहार की तरह होने वाली इस आगज़नी के बाद रहस्यमयी तरीके से 1500 से 2000 नए-नवेले बेघर की अगली बैच न जाने कहाँ से प्रगट हो जाती है। जली हुई झोपडपट्टी के स्थान पर नई झोपड़ियाँ खड़ी करने वाले ये “नए प्रगट हुए गरीब और बेघर” वास्तव में गरीब होते हैं। इन्हें नई झोंपड़ियाँ बनाने, उन झोपड़ियों को किराए पर उठाने और ब्याज पर पैसा चलाने के लिए एक “संगठित माफिया” पहले से ही इन झोपडपट्टी में मौजूद होता है। न तो सरकार, न तो पत्रकार, न तो जनता… कोई भी ये सवाल नहीं पूछता कि जब जली हुई झोपडपट्टी में रहने वाले पूर्ववर्ती लोगों को नई जगह मिल गयी, कुछ को सरकारी सस्ते मकान मिल गए, तो फिर ये “नए गरीब” कहाँ से पैदा हो गए जो वापस उसी सरकारी जमीन पर नई झोपडपट्टी बनाकर रहने लगे?? कोई नहीं पूछता… नई बन रही झोपडपट्टी में ये नए आए हुए “गरीब मेहमान” हिन्दी बोलना नहीं जानते, उनकी भाषा में बंगाली उच्चारण स्पष्ट नज़र आता है… ये “गरीब”(??) हमेशा दिन भर मुँह में गुटका-पान दबाए होते हैं (एक पान दस रूपए का या एक तम्बाकू गुटका भी शायद दस रूपए का मिलता होगा) इस झोपडपट्टी में आने वाले प्रत्येक “गरीब” के पास चारखाने की नई लुंगी और कुरता जरूर होता है… उनका पहनावा साफ़-साफ़ बांग्लादेशी होने की चुगली करता है। नवनिर्मित झोपडपट्टी में महाराष्ट्र के अकाल-सूखा ग्रस्त क्षेत्रों का किसान कभी नहीं दिखाई देता। इन झोपडपट्टी में मराठी या हिन्दुस्तानी पहनावे वाले साधारण गरीब क्यों नहीं दिखाई देते, इसकी परवाह कोई नहीं करता दो-चार पीढियों से कर्ज में डूबे विदर्भ का एक भी किसान बांद्रा की इन झोपडपट्टी में नहीं दिखता?? ऐसा क्यों है कि बान्द्रा स्टेशन के आसपास एक विशिष्ट पहनावे के विशिष्ट बोलचाल वाले बांग्लाभाषी और “बड़े भाई का कुर्ता, तथा छोटे भाई का पाजामा” पहने हुए लोग ही दिखाई देते हैं?? बांद्रा स्टेशन के आस-पास चाय-नाश्ते की दुकानों, ऑटो व्यवसाय, अवैध कुली इत्यादि धंधों में एक “वर्ग विशेष” (ये धर्मनिरपेक्ष शब्द है) के लोग ही दिखाई देते हैं??

अब अगले साल फिर से बांद्रा की इस झोपडपट्टी में आग लगेगी… फिर से सरकार मुआवज़ा और नया स्थान देगी… फिर से कहीं से अचानक प्रगट हुए “नए गरीब” पैदा हो जाएँगे… झोपडपट्टी वहीं रहेगी… अतिक्रमण वैसा ही बना रहेगा… गुंडागर्दी और लूटपाट के किस्से वैसे ही चलते रहेंगे… लेकिन ख़बरदार जो आपने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई… आप तो चुपचाप अपना टैक्स भरिये…. वोटबैंक राजनीति की तरफ आँख मूँद लीजिए, और हाँ!!! यदि आप ये सोच रहे हैं कि यह “गरीबी और आगज़नी का यह खेल” केवल बांद्रा स्टेशन के पास ही चल रहा है, तो आप वास्तव में बहुत नादान हैं… यह खेल बंगाल के कई जिलों में चल रहा है, देश के कई महानगरों में बड़े आराम से चल रहा है, एक दिन यह झोपडपट्टी खिसकते-खिसकते आपके फ़्लैट के आसपास भी आएगी, तब तक आप चादर तानकर सो सकते है !!

श्री राम आसरे सिंह
सहायक अध्यापक

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