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नई शिक्षा नीति’ साबित होगी, युगांतरकारी घटना या वही ढाक के तीन पात-डाॅ महेन्द्र

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1986 के बाद शिक्षा नीति में पहला नया बदलाव है, जो कई मायनों में सामाजिक परिवर्तन में एक युगांतरकारी हो सकता है। मसलन इस शिक्षा नीति में दर्जनों ऐसे प्रावधान हैं जो शैक्षणिक वातावरण को बदलने का माद्दा रखते हैं। उन सभी प्रावधानों पर बात करना यहाँ संभव नहीं है। न इतना अवकाश है न औचित्य। बदलाव के अधिकतर प्रावधानों के बारे में लोग जानते होंगे। किसी न किसी प्रसार माध्यम से वे इस संदर्भ में अवगत होंगे। फिलहाल कुछ प्रावधानों की चर्चा की जा सकती है।

प्रथम तो यह की शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत खर्च किया जाएगा। जो पहले 4.43 प्रतिशत ही था, जो स्वागत योग्य कदम है। दूसरे प्राथमिक और सेकेंडरी स्तर तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा होगी। उच्च शिक्षा में एम. फिल. के प्रावधान को खत्म कर दिया गया है. 2030 तक ‘एजुकेशन फार आल’ का लक्ष्य रखा गया है। डिग्री स्तर पर बड़े बदलावों में महत्वपूर्ण है। पहले जहाँ तीन साल की परीक्षा देने के बाद ही डिग्री मिलती थी, बीच में पढ़ाई छोड़ने पर छात्रों के हाथ कुछ लगता नहीं था, अब जो बदलाव किया गया है उसके अंतर्गत पहले वर्ष पर पढ़ाई छोड़ने पर प्रमाणपत्र, दूसरे वर्ष छोड़ने पर डिप्लोमा और तीसरे वर्ष पर डिग्री मिलेगी. इससे छात्रों को अपना कैरियर बनाने में सुविधा होगी। इसकी अत्यंत आवश्यकता थी. एक और बड़ा बदलाव है जो काबिलेतारीफ है वह है उच्च शिक्षा में ‘मल्टीपल डिसिप्लिनरी एजुकेशन’ जिसका आशय है छात्र को विषय चयन की आज़ादी होगी। जैसे प्रमुख विषय विज्ञान के साथ छात्र संगीत. साहित्य. इतिहास जैसे कोई भी मनपसंद विषय ले सकेगा।

इसके अतिरिक्त अनेक बदलाव प्रबंधन, प्रशासन, या शिक्षकों को लेकर किए गए हैं। ये बदलाव निश्चित ही शिक्षा के क्षेत्र में नये आयाम स्थापित करेंगे। किन्तु कुछ भ्रम, कुछ खतरे और कुछ चिन्ताएँ भी आसन्न संकट की तरह हैं. 6 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद का खर्च शिक्षा के विविध उपक्रमों पर समुचित ढंग से लगेगा? इसकी निगरानी समिति बनेगी? उसमें किन किन क्षेत्रों के लोग रखे जाएंगे? ऐसे कुछ सवाल हैं जिनका समाधान आवश्यक है. यह मामला पारदर्शी होना चाहिए। अन्यथा इससे लाभ की अपेक्षा भ्रष्टाचार बढ़ेगा।

जहाँ तक सेकेंडरी तक शिक्षा के माध्यम मातृभाषा या स्थानीय भाषा की बात है, वह कहीं कहीं आज भी है. किन्तु गाँव और शहर, सरकारी या प्राइवेट स्कूलों में इसमें एकरूपता नहीं है। क्या इसमें एकरूपता कायम की जाएगी? यह एक बड़ा सवाल है। वरना मातृभाषा में पढ़े छात्रों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहेगा। उनकी उपेक्षा होती रहेगी। यह तभी संभव होगा, जब यह व्यवस्था हर जगह एक जैसी लागू हो एजुकेशन फार आल का लक्ष्य ऐतिहासिक साबित हो सकता है बशर्ते इसे शर्तों के साथ लागू किया जाए मसलन क्या इसे सरकारी स्कूलों तक ही सीमित रखा जाएगा या प्राइवेट, संस्थानों में भी इसकी अनिवार्यता लागू होगी? यदि हां तो क्या सभी विद्यार्थियों का प्रवेश वहाँ संभव होगा? उसका खर्च कौन वहन करेगा? इन सवालों का निवारण हुए बिना इसकी अनिवार्यता कैसे सिद्ध होगी।

एक उलझन महाविद्यालयों की स्वायत्तता को लेकर है।विश्वविद्यालयों पर बोझ कम करने के लिए महाविद्यालयों को अकादमिक, आर्थिक और प्रशासनिक स्वायत्तता एक अच्छी पहल है, किन्तु खतरा यह भी है स्वायत्तता की आड़ में महाविद्यालय और प्रबंधन इतना निरंकुश न हो जाय की शिक्षा को वह व्यापार और व्यवसाय में तब्दील कर दे. तब शिक्षा गरीब, निर्धन, और अभावग्रस्त छात्रों की पहुँच से दूर हो जाएगी। छात्रों में जातीय, साम्प्रदायिक, सामुदायिक, धार्मिक, अगड़े, पिछड़े का भेद बढ़ने , द्वन्द्व या वर्चस्व का संघर्ष बढ़ने का संकट बढ़ सकता है. इन खतरों का समाधान आवश्यक है। अन्यथा नई शिक्षा नीति सामाजिक शैक्षणिक बदलाव की अपेक्षा शोषण का औजार बन जाएगी। जरूरत है इसे सही ढंग से लागू कर युगांतरकारी बनाना वरना फिर वही ढाक के तीन पात बन कर रह जाएगी।

डा. महेंद्र
एसोसिएट प्रोफेसर

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