Home अवर्गीकृत चिंता नही, चिंतन विषय हैं

चिंता नही, चिंतन विषय हैं

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वैश्विक महामारी घोषित हो चुका कोरोना, जिससे विश्व के सभी देश दहले हुऐ हैं। जिसमें सुपर पावर समझने वाला संयुक्त राष्ट्र अमेरिका सहित जर्मन, इटली, ब्रिटेन, रूस सहित हमारा देश भारत भी प्रभावित हैं। इस समय हमारी समस्या कोरोना ही नहीं बल्कि कोरोना से बंद हुए बांधकाम, व्यापार, कारोबार से प्रभावित बेबस मजदूर हैं जो गाँव से आकर शहरों मे बसे हुए हैं। उनकी चिंता जीविका और स्वास्थ को लेकर हैं। जो पर्याप्त नहीं है।

मजदूरों के हालात की अग्निपरीक्षा हैं, कोरोना काल

देश के हर बड़े शहरों मे अलग-अलग गाँवो से आकर अपनी रोजी कमाने वालों की संख्या लाखों या उससे अधिक होती हैं।जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, म.प्र. उड़ीसा और बंगाल के मजदूर बहुतायत रूप हैं। गुजरात, राजस्थान, और पंजाब, के लोग ज्यादातर कारोबारी, व्यापारी हैं। इनको शहरों से निकालकर इनके गाँव भेजना सरकार के लिए चुनौती साबित हो रही हैं। श्रमिक ट्रेन की व्यवस्था तो है, पर आँन लाईन बुकिंग प्रक्रिया और निश्चित समय की ट्रेनागमन की जानकारी न मिलने से बहुत लोग घर यात्रा से वंचित भी हैं। फिर कई महिनों से घर बैठे मजदूरों को खानेपीने की तकलीफ में रेल द्वारा निर्धारित किराया भी दे पाना असंभव ही नहीं, बल्कि नामुमकिन हैं।

लोग चलते गये, कारवां बनता गया

सबसे बड़ी चर्चा का विषय तो यह हैं, की मजदूर और मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा लोग दैनिक मजदूरी पर जीवनयापन करनेवालों के लिए यहां रहना ,खाना,मुश्किल हो रहा हैं, बहुत से ऐसे लोग भी जिनके बच्चों को दूध भी नहीं मिल पा रहा हैं। रहनसहन की विकट समस्याओं से जूझते लोग अब अपने गाँव की ओर पलायन करने पर मजबूर है। मजदूरों सहित आम नागरिक भी अपने आपको कब तक संयमित रखता आखिर एक न एक दिन तो सब्र टूटना ही था। और टूटा भी, लोगो से जैसे भी बन पड़ा गाँव की ओर निकल पड़े। सायकिल, ट्राईसाइकिल, मोटरसाइकिल और पैदल ही निकल पड़े घर की ओर, लोग चलते गये कारवां बनता गया।

मजदूरों पर होती रही राजनीति

श्रमिकों पैंसेजर के चलते ही श्रेय लेने वालो की होड़ मच गयी।कोई टिकट के फ्री होने की तो, कोई टिकट के मू्ल्यो के समर्थन में सुरक्षित यात्रा की पैरवी करते दिखे। अपने, अपने राजनेताओं से चिढ़े लोग खुलकर चाटुकार बोलने लगे हैं। आरोप, प्रत्यारोप पक्ष, विपक्ष दोनो ओर बराबर है। लेकिन श्रमिक पैसेंजर मे यात्री तब ठगा महसूस करने लगा। जब किसी से 740/रुपये लिया गया, तो कोई फ्री मे बैठकर गाँव पहुंचे, हम नेताओं को कोसते रहे पर ये बात कैसे भूल गयें की उतने ही जिम्मेदार तो पूँजीपति और उद्योगपति भी हैं जिनके फार्म हाऊस एकड़ो मे तो कई दर्जनों कारखाने हैं। शिक्षण संस्थान और स्कूल भी हैं। क्या ये अपनी कमाई से कुछ साधन उपलब्ध नहीं करा सकते? ये लोग हम से पैसा कमा तो सकते हैं पर हमे बचा नहीं सकते। ऐसे मे इनकी संवेदनशीलता को ग्रहण सा लग गया है।

औरंगाबाद की रेल दुर्घटना मे मरे मजदूर भी इस असंवेदनशील व्यवहार का परिणाम था। क्या बीती होगीं उन राह चलते 16 मजदूरों पर जो थककर रेल पटरियों पर ही हमेशा के लिए सो गये। जिस रोटी के लिए परदेस आया था। मजदूर वहीं सुखी रोटीयां एकमात्र गवाह थी, उस भयावह दुर्घटना की। जनता, मजदूर, मध्यमवर्गीय ही मतदान होता हैं। अब उन्हें क्या पता जिस डिजिटल इंडिया का सपना हमे दिखाया गया उसका इस्तेमाल हम पर ही लागू होगा। श्रमिक टिकट पर मचे हो हल्ले पर 85 परसेंट और15 परसेंट पर केन्द्र और राज्य सरकारें मैच खेल रही हैं। जिस कोरोना को हमने लाकडाउन मे रहकर बढ़ने से रोका आज वहीं खुली ट्रकों मे निजी वाहनों मे एक के ऊपर एक जानवरों जैसे लादकर ले जा रहे है। ऐसा नहीं की सरकार की आँखे बंद है..?

कल ही केन्द्र सरकार के कैबिनेट मंत्री ने निजी चैनल के हवाले कह रहे थे। की “हमने गाँव की ओर जाते लोगों को देखा है।बड़ी चिंता की बात है,हमने कलेक्टर साहब से बात की हैं की जो राशन सामग्री लगे आप संस्थाओं को दे जिससे पैदल और गाड़ियों से जाने वालों को नाश्ता या भोजन उपलब्ध हो सके” अब इसे हथियार डालना कहे, या सहायता कहे। या केन्द्र सरकार की लाकडाउन विफलता मान ले, कुछ नेताओं ने तो सिर्फ ठेका ले रखा हैं। जब भी ऐसी मुसीबते आती हैं, तो चर्चा करते हुऐ फेसबुक और अखबारों पर फोटो सेशन का। अब जनता बहुत चालक और सक्रिय भी हैं। क्या हम ऐसे ही विश्वगुरु बन सकते है?  जिस देश मे इतने पूजीपति हो वहां की जनता आज भी आजादी के दृश्य जैसा नजारा लिए पैदल घरों की ओर निकले। ये हमारी नाकामयाबी और खुदगर्जी ही हैं।

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