वह कहावत तो आपने सुनी ही होगी ”सौ सुनार की एक लुहार की”। इसी कहावत को चरितार्थ करते हुये भदोही पुलिस ने ऐसा दांव खेला कि हवालात में हुई मौत के मामले में सारी सियासत चित्त हो गयी। पिछले तीन दिन से मौत को मुद्दा बनाकर चल रही मीडिया के समाचारों पर भी विराम लग गया। वहीं मौत पर राजनीति करने वालों के मंसूबे पर भी पानी फिर गया। पुलिस का यह दांव है गोपीगंज के कोतवाल रहे सुनील वर्मा पर हत्या के मुकदमा का। श्री वर्मा पर मुकदमा करना पुलिस का एक दांव ही है, क्योंकि जब घटना के वक्त वे थे ही नहीं तो असली गुनहगारों को इस मुकदमें से सजा कहां मिलेगी। आईये इस घटनाक्रम के बारे में बताते हैं कि क्यों हम इसे पुलिस का दांव कह रहे हैं और इससे पीड़ित को न्याय मिलेगा कि नहीं।
29 जून को गोपीगंज थाना के फूलबाग निवासी दो भाईयों रामजी मिश्रा और अशोक मिश्रा के बीच संपत्ति बंटवारे को लेकर विवाद हो जाता है और दोनों पुलिस के पास अपनी फरियाद लेकर जाते हैं। जब कोतवाली में दोनों के बीच तूं—तूं मैं—मैं शुरू होती है तो पुलिस अशोक मिश्रा की पिटाई शुरू कर देती है। यह देख बड़े भाई से रहा नहीं जाता और वह पुलिस से अपने भाई को न मारने की गुहार लगाता है। पुलिस उसे भी दो चार थप्पड़ लगाकर हवालात में डाल देती है। रामजी मिश्रा पहले से ही उच्च रक्त चाप का मरीज था। हवालात में डालते ही उसकी हालत खराब होने लगती है और पुलिस उसे नखरा समझकर अनसुना कर देती है। इसके बाद रामजी मिश्रा की मौत हो जाती है और बवाल शुरू हो जाता है।
इस घटना के समर्थन में जो भी आये वे दोषियों को सजा देने और मुआवजे की मांग कर रहे थे। दूसरे दिन चक्काजाम में भी यहीं मांगे की जा रही थी। यदि उच्चाधिकारियों ने पहले ही इस मामले की गंभीरता को समझा होता तो मामला इतना आगे नहीं बढ़ता लेकिन उच्चाधिकारियों ने संवेदनशीलता नहीं दिखायी। यदि पहले ही दिन अधिकारी पीड़ित के घर पहुंचकर सांत्वना दे दिये होते तो मामला इतना आगे नहीं बढ़ता। फिलहाल तत्कालीन कोतवाल के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज हो चुका है और विवाद पर इसी के साथ विराम भी लग चुका है। आईये देखते हैं कि क्या सच में सुनील वर्मा दोषी हैं। क्या उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हो पायेगी।
पुलिस अधीक्षक ने जो प्रेस नोट जारी किया है। उसपर यदि गौर से देखें तो लिखा है कि दोनों भाईयों में विवाद हुआ। यह तहरीर मृतक की बेटी ने दिया है। विवाद के बाद कोष्ठक में मारपीट शुब्द का प्रयोग किया गया है। यानि मृतक की बेटी एक तरफ पुलिस पर मारने का आरोप लगा रही है तो दूसरी तरफ खुद कबूल भी कर रही है कि दोनों भाईयों में मारपीट भी हुई थी। पहली बात पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहीं भी मृतक के शरीर पर चोट के निशान नहीं दिखे हैं। अशोक मिश्रा के कान के पास चोट के निशान हैं, लेकिन वह पुलिस और भाईयों की मारपीट में भी आ सकते है। यानि मुकदमें में ही सवालिया निशान चोट के बारे में लग गये।
दूसरी तरफ यदि मृतक की बेटी के बयानों पर गौर करें तो वह बार बार यहीं बोली है कि पुलिस ने पिताजी को गाल पर तीन चार थप्पड़ मारे और हवालात में बंद कर दिये। यानि इनके बयानों से ही स्पष्ट हो जाता है कि रामजी मिश्रा की मौत पुलिस की पिटाई से नहीं बल्कि उसकी बीमारी से हुई है। हां! यह अवश्य कहा जा सकता है कि उसे हवालात में बिना लिखा पढ़ी के बंद करना गलत था।
अब आते हैं दूसरी बात पर मृतक रामजी मिश्रा की बेटी दीपाली मिश्रा ने जो बयान दिया है उसमें साफतौर पर कहा गया है कि जिस समय घटना हुई उस समय कोतवाल सुनील वर्मा कोतवाली से बाहर थी। मुकदमा सुनील वर्मा के खिलाफ इसलिये लिखा गया क्योंकि वे थाना प्रभारी हैं, लेकिन प्रभारी की गैर मौजूदगी में यदि कोई घटना होती है तो उसके लिये दोषी कौन होगा। हवालात और कार्यालय अगल बगल ही है, यदि रामजी मिश्रा अपनी तबियत खराब होने की बात बोलकर चिल्ला रहा था तो वहां पर मौजूद मुंशी, पहरा और थाने में जो भी पुलिसकर्मी मौजूद थे क्या उनको मृतक की गुहार सुनाई नहीं दे रही थी। वे इतने संवेदनहीन क्यों बने कि मृतक की बात नहीं सुने।
यदि प्रभारी कोतवाली में मौजूद नहीं है तो वहां पर मौजूद मुंशी, पहरा और थाने में मौजूद पुलिसकर्मियों की जिम्मेदारी है कि हिरासत में लिये गये व्यक्ति के सुरक्षा का ध्यान रखें। चर्चा है कि जिस समय मृतक चिल्ला रहा था उस समय कस्बा चौकी इंचार्ज भी मौके पर थे फिर सुनील वर्मा को ही दोषी मानकर कार्रवाई क्यों की गयी। घटना के समय मौजूद पुलिसकर्मियों को यदि बख्श दिया जाता है तो असली दोषी कहां सजा पायेंगे। कोतवाल सुनील वर्मा के खिलाफ मुकदमा भले ही दर्ज कर लिया गया हो किन्तु जांच के दौरान मृतक की बेटियों के बयान के आधार पर ही श्री वर्मा दोषमुक्त हो जायेंगे और रामजी मिश्रा के असली गुनहगार साफ बच जायेंगे।