राम आसरे सिंह
क्या हुआ ? अजीब सा शब्द लग रहा है ! वो इसलिए क्योंकि आपको आपकी नायिकाओं के नाम किसी ने बताये ही नहीं है। काफी साल पहले (सन 1779 में) चित्रदुर्ग पर मदकरी नायक का शासन था। उनके किले को हमला कर रहे हैदर अली की फौजों ने घेर रखा था और जीतने के कोई ख़ास विकल्प नहीं दिख रहे थे। लेकिन किला बंद कर के अन्दर बैठे सिपाहियों पर सीधा हमला करने का कोई उपाय भी नहीं था। ऐसे ही एक दिन एक पहरेदार कहले मुड्डा हनुमा का पहरा का वक्त था जब उसकी पत्नी उसे खाने के लिए बुलाने आई।
जब तक पहरेदार खाना खाता पत्नी पास के ऊँचे टीले सी जगह पर पानी लाने गई। इतने में उसकी नजर एक छेद पर पड़ी जिससे इस्लामिक हमलावर घुसने की कोशिश कर रहे थे। ओबव्वा के पास हथियार नहीं थे। धान पीटने की मोटी लाठी उसने उठा ली। उसे “ओंके” कहते हैं। छेद से एक बार में एक ही सिपाही अन्दर आ पाता था, और अब पहरे पर ओबव्वा तैनात थी। जब तक पत्नी के पानी लेकर ना लौटने पर खिसियाता पति वहां पहुँचता, इस्लामिक हमलावरों की लाशों का ढेर लग गया।
एक-एक कर के कई हमलावर ओबव्वा के ओंके का शिकार हो गए थे। घुस रहे हमलावरों को शक ना हो इसलिए वो एक एक लाश उठा कर किनारे करती जाती थी। मदकरी नायक जीते नहीं थे, हार गए थे और 1779 में उनके चित्रदुर्ग किले पर हैदर अली का कब्ज़ा हो गया। वो होलयास (चलावाडी) समुदाय की महिला ओबव्वा तब से ओंके ओबव्वा के नाम से ही याद की जाती है। कन्नड़ सम्मान के इस प्रतीक ने किले के जिस झिरी पर पहरा दिया था उसे आज ओंके ओबव्वा किंडी कहते हैं।
नगराहवू फिल्म में उनके इस प्रयास का एक लम्बा दृश्य है। चित्रदुर्ग का स्पोर्ट स्टेडियम आज ओनके ही नाम पर “वीर वनिथे ओंके ओबव्वा स्टेडियम” कहलाता है।
भारतीय रेल में कई जगह आपको “रेल आपकी अपनी संपत्ति है” लिखा दिख जायेगा। इसके पीछे उद्देश्य ये होता है कि जिस चीज़ को आप अपना मानेंगे उसे सहेजने सँभालने का प्रयास भी करेंगे। जो अपना है ही नहीं भला उसका ख़याल क्या रखना ? भारतीय किताबों की बात करते ही यही समस्या होती है। रामायण-महाभारत के काल से कूद कर जब हम और आप रामचरितमानस पर आ जाते हैं तो बीच के ढाई हज़ार साल के लगभग का समय गायब हो जाता है।
ऐसे में लड़कियां-स्त्रियाँ कभी भी पूछ सकती हैं कि इनमें मेरा क्या है ? ये तो किसी मर्यादा पुरुषोत्तम की कहानियां हैं, युद्धों की कथाएँ हैं, इनमें स्त्रियों की तरफ से क्या लिखा गया जो मेरा होगा ? ये स्थिति तब है जब सिर्फ महिलाओं द्वारा लिखा गया पहला ग्रन्थ “थेरीगाथा” भारत का है। इसे करीब करीब गौतम बुद्ध के समय लिखा गया था (600 BCE)। इस काव्य संकलन में एक कविता किसी गणिका की है, एक धन-दौलत छोड़कर बौद्ध भिक्षुणी बन गई महिला की भी है। एक कविता तो गौतम बुद्ध की सौतेली माता की भी है।
संस्कृत के महाकाव्यों के अलावा जिन महाकाव्यों की बात की जा सकती है, उनमें तमिल महाकाव्य भी आयेंगे। इनमें पांच सबसे महत्वपूर्ण गिने जाते हैं। शिल्पपत्तिकराकम्, मणिमेखलई, जीवक चिंतामणि और वलायापथी में से शिल्पपत्तिकराकम् और मणिमेखलई को भारत में थोड़ा बहुत इसलिए भी जाना जाता है क्योंकि इनपर आधारित एक टीवी सीरियल दूरदर्शन के शुरुआत के समय में प्रसारित होता था। कन्नगी नाम की नायिका की कहानी पर शिल्पपत्तिकराकम् आधारित है, और फिर उनकी बेटी की कहानी को मणिमेखलई में आगे बढ़ाया गया है। ये कहानी कोवलन नाम के कवेरिपत्तिनम के एक धनी व्यापारी की थी।
उसकी शादी एक दूसरे व्यापारी की बेटी कन्नगी से हुई थी। दोनो खुशहाल तरीके से जीवन व्यतीत कर रहे थे लेकिन एक शाही उत्सव में कोवलन एक नर्तकी माधवी से मिला। वो माधवी की दीवानगी में अपने घर और कन्नगी को भूल गया। कोवलन माधवी पर पैसे खर्च करता बिल्कुल कंगाल हो गया। गरीब हो जाने पर जब उसे माधवी के पास से भगा दिया गया तो उसका नशा उतरा और वो वापस कन्नगी के पास आया। कंगाल हो चुके पति के पास दोबारा व्यापार शुरू करने के लिए धन भी नहीं था, लेकिन प्राचीन काल से ही हिन्दुओं में स्वर्ण में धन का कुछ हिस्सा निवेश करने की परंपरा रही है।
कन्नगी के पास पायल थे, उसने कोवलन को अपने बहुमूल्य पायल दे दिए और इन पायलों के साथ वो दोनों मदुराई गए। मदुराई में उनको आश्रय मिल गया और कोवलन बाजार निकल गया एक पायल को बेचने। उन्हीं दिनों पांड्या के राजा के महल से रानी का भी पायल चोरी हुआ था। जैसे ही कोवलन ने वो पायल एक व्यापारी को दिखाई, वो भड़क उठा और सीधे उसे राजा के पास ले गया। वहाँ के राजा के आदेश पर पहरेदार ने कोवलन को मार डाला। कन्नगी को यह बात पता लगी, तो वो राजमहल की तरफ रोती-धोती दौड़ी।
राज दरबार में पहुंची कन्नगी के हाथ में, अपने पति के निर्दोष होने के प्रमाण स्वरुप, दूसरा पायल था। विलाप सुनकर, उसके पीछे नगर के लोग भी जुट आये थे। कन्नगी ने दरबार को दूसरी पायल दिखाई और कहा राजा ने ये अन्याय किया है। पायल को तोड़ने पर उसके अंदर भरे माणिकों से पता चला कि ये तो सचमुच दूसरी पायल है। राजा को कोवलन के निर्दोष होने का पता चला तो वो अफ़सोस करता वहीँ जमीन पर मरकर गिर गया। कन्नगी का गुस्सा इतने पर शांत नहीं हुआ था।
कन्नगी ने तीन बार मदुराई का चक्कर काटा और नगर को ही शापित कर दिया। पूरा शहर ही जलकर भस्म हो गया। इस कहानी को दो काव्यों में लिखा गया है, पहले शिल्पादिकारम् में और फिर मणिमेखलई में। मणिमेखलई के रचयिता सत्तनार हैं। इन दोनों ग्रंथों की कहानी में थोड़ा अंतर है। शिल्पादिकारम् मुख्यतः कन्नगी की कहानी सुनाती है जबकि मणिमेखलई कहानी को आगे बढ़ाते हुए माधवी की बेटी मणिमेखलई की कहानी सुनाती है जो हिन्दुओं के दर्शन के छह अंगों के अध्ययन के बाद बौध “अरिहंत” हो जाती है।
इन कहानियों को ना जानने और कभी ना सुनने का सबसे पहला नुकसान तो ये होता है कि हमें मणिमेखलई का नाम नहीं पता होता। इस वजह से हमें ये भी नहीं पता चलता कि पिता (माधवी-और शायद कोवलन) की मृत्यु हो जाने पर भी एक अनाथ बच्ची, मणिमेखलई के शिक्षा की व्यवस्था समाज में रही होगी। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर वो दर्शन के छह के छह अंग पढ़ती कैसे ? इतना पढ़ने में कोई एक दो साल ही तो लगे नहीं होंगे इसलिए बाल विवाह हो गया हो कहीं बारह साल की उम्र में ये भी संभव नहीं।
शिल्पपत्तिकराकम् और मणिमेखलई जैसी स्त्री प्रधान, उनके नजरिये से लिखा साहित्य भी है। जैसा कि आम तौर पर प्रचारित किया जाता है, वैसे इतिहास के सभी नायक कोई राजा-रानी नहीं, आम व्यापारी भी हैं। पूरी पूरी कहानियाँ स्त्रियों के दृष्टिकोण से लिखी गई हों ऐसा भी है, और स्त्रियों ने लिखी हो ऐसा भी है। यहाँ लड़कियों के गुरुकुल जाने की बात हजम करने में असुविधा हो रही हो तो आठवीं शताब्दी के आस-पास का “उत्तररामचरित” जिसे भवभूति लिखा था उसे देखिये।
ये आम जनता के लिए मंचित किये जाने वाले प्रसिद्ध नाटकों में से एक था। ऐत्रेयी उत्तर भारत के एक नामी गिरामी कवि की छात्रा है, लेकिन उसके गुरु को आजकल एक महाकाव्य लिखने का शौक लगा है। ऐसे में वो ऐत्रेयी को ज्यादा कुछ सिखा नहीं पाते। मजबूरन ऐत्रेयी को अकेले ही घने जंगलों को पार कर के अपने गुरु (शायद वाल्मीकि) के आश्रम से दक्षिण में कहीं स्थित ऋषि अगस्त्य के आश्रम में जाना पड़ जाता है। ऐत्रेयी सफ़र के मुश्किल रास्तों की बात सोच रही है, और उसकी सहेली वसंती उसे अगस्त्य मुनि के आश्रम की तारीफें सुना रही है।
अभी की भारतीय यूनिवर्सिटी में एक साल ग्रेजुएशन कर के शायद दुसरे किसी विश्वविद्यालय में सीधे दुसरे साल में प्रवेश लेना नामुमकिन होगा। मगर इस “उत्तररामचरित” से लगता है एक विश्विद्यालय से दुसरे में ट्रान्सफर उस दौर में संभव था। रूप-सौन्दर्य के लिए चर्चित क्लियोपेट्रा जैसी नायिकाएँ भारतीय साहित्य में जरा कम होती हैं तो शायद इन कहानियों की नायिका के नायिका होने की एक वजह उनका ज्ञान भी रहा होगा। इन्होंने भारतीय दर्शन पढ़ने-सिखने में रूचि ली थी (जिसका एक हिस्सा वेदान्त भी है)। बाकी जबरन किसी से कुछ करवाने को मेरा कोई ख़ास समर्थन नहीं रहता | किसी ब्यूटी कांटेस्ट में हर साल बदलने वाला मुकुट चाहिए या स्थायी परिचय, वो फैसला तो आपको ही लेना है।
प्राचीन कालीन वीरांगनाएँ
(1200 ई. तक)
विश्पला
आपने ये नाम भी नहीं सुना होगा।
ऋगवैदिक कालीन साहित्य के अनुसार अफगानिस्तान (तत्कालिक गंधार) देश के राजा रवेल की पुत्री विश्पला थी जिसने युद्ध में शत्रु को पराजित किया था। जब गंधार पर शत्रु ने आक्रमण किया तो उनका सेनापति शत्रु की भारी सेना का मुकाबला न कर सका। राजा बड़ी चिंता में था। बहुत परेशान था कि क्या किया जाए। तभी राजकुमारी विश्पला ने आकर कहा—‘‘यह समय रोने, बैठने का नहीं, पराक्रम करने का है। मैं सेना लेकर शत्रु का सामना करना चाहती हूँ, आज्ञा दीजिए, आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं।’’ आज्ञा मिलने पर राजकुमारी विश्पला ने शत्रु पर चढ़ाई कर दी। बड़ी बहादुरी से डटकर मुकाबला किया। लेकिन शत्रु की सेना अधिक सबल थी। युद्ध में विश्पला की टांग कट गई, अतः युद्ध जीत न सकी। इसी अवस्था में घर पहुँची। राजा यह देखकर बहुत दुःखी हुए। परन्तु राजकुमारी ने फिर साहस का परिचय दिया कहा, कि—‘‘यह रोने का समय नहीं, आप मेरा इलाज करवाइए, जिससे मैं खड़ी हो सकूँ और फिर मैं वापस शत्रु से सामना कर सकूँ।’’
‘‘आयसी जंघा विश्पलाए अद्यन्तम्’’ (ऋग्वेद 1/116)
अर्थात् विश्पला का पैर ठीक किया और उस पर लोहे का पैर जोड़कर उसको वापस खड़ा किया।
इसके बाद विश्पला पुनः युद्ध में कूद गई। पूरी बहादुरी से लड़ी और शत्रु को पराजित किया।