शहीदों की चिंताओं पर, लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों की, यही बाकी निशां होगी।।
आजकल के नेता तो अपनी चुनावी चाल में हर हद को पार करने के लिए तैयार है। देश में भ्रष्टाचार का आलम सर्वविदित है। नेताओं को जब बोलना होता है तो आजादी के पहले के शहीदों व नेताओ के भाषण फीके पड़ जाते है। इन देशभक्तों को देश के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वालों से सीख लेनी चाहिए। लेकिन समय कहां है? भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अनेक कम आयु के महावीरों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी थी। उनमें से एक है खुदीराम बोस जिनका नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। बात उन दिनों की है जब भारत माता अंग्रेजी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुयी थी, उन दिनों अनेक अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से बहुत दुर्व्यवहार करते थे। ऐसा ही एक मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड उन दिनों मुज्जफरपुर, बिहार में तैनात था। वह छोटी-छोटी बात पर भारतीयों को कड़ी सजा देता था। अतः क्रान्तिकारियों ने उससे बदला लेने का निश्चय किया। कोलकाता में प्रमुख क्रान्तिकारियों की एक बैठक में किंग्सफोर्ड को यमलोक पहुँचाने की योजना पर गहन विचार हुआ।
उस बैठक में खुदीराम बोस भी उपस्थित थे। यद्यपि उनकी अवस्था बहुत कम थी; फिर भी उन्होंने स्वयं को इस खतरनाक कार्य के लिए प्रस्तुत किया। उनके साथ प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व दिया गया। योजना का निश्चय हो जाने के बाद दोनों युवकों को एक बम, तीन पिस्तौल तथा 40 कारतूस दे दिये गये। दोनों ने मुज्जफरपुर पहुँचकर एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया। कुछ दिन तक दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया। इससे उन्हें पता लग गया कि वह किस समय न्यायालय आता-जाता है; पर उस समय उसके साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल रहता था। अतः उस समय उसे मारना कठिन था। अब उन्होंने उसकी शेष दिनचर्या पर ध्यान दिया।
किंग्सफोर्ड प्रतिदिन शाम को लाल रंग की बग्घी में क्लब जाता था। दोनों ने इस समय ही उसके वध का निश्चय किया। 30 अप्रैल 1908 को दोनों क्लब के पास की झाड़ियों में छिप गये। शराब और नाच-गान समाप्त कर लोग वापस जाने लगे। अचानक एक लाल बग्घी क्लब से निकली। खुदीराम और प्रफुल्ल की आँखें चमक उठीं। वे पीछे से बग्घी पर चढ़ गये और परदा हटाकर बम दाग दिया। इसके बाद दोनों फरार हो गये। परन्तु दुर्भाग्य की बात कि किंग्सफोर्ड उस दिन क्लब आया ही नहीं था। उसके जैसी ही लाल बग्घी में दो अंग्रेज महिलाएँ वापस घर जा रही थीं। क्रान्तिकारियों के हमले से वे ही यमलोक पहुँच गयीं। पुलिस ने चारों ओर जाल बिछा दिया। बग्घी के चालक ने दो युवकों की बात पुलिस को बतायी।
खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी सारी रात भागते रहे। भूख-प्यास के मारे दोनों का बुरा हाल था। वे किसी भी तरह सुरक्षित कोलकाता पहुँचना चाहते थे। प्रफुल्ल लगातार 24 घण्टे भागकर समस्तीपुर पहुँचे और कोलकाता की रेल में बैठ गये। उस डिब्बे में एक पुलिस अधिकारी भी था। प्रफुल्ल की अस्त व्यस्त स्थिति देखकर उसे संदेह हो गया। मोकामा पुलिस स्टेशन पर उसने प्रफुल्ल को पकड़ना चाहा; पर उसके हाथ आने से पहले ही प्रफुल्ल ने पिस्तौल से स्वयं पर ही गोली चला दी और बलिपथ पर बढ़ गये। इधर खुदीराम थक कर एक दुकान पर कुछ खाने के लिए बैठ गये। वहाँ लोग रात वाली घटना की चर्चा कर रहे थे कि वहाँ दो महिलाएँ मारी गयीं। यह सुनकर खुदीराम के मुँह से निकला-तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया? यह सुनकर लोगों को सन्देह हो गया और उन्होंने उसे पकड़कर पुलिस को सौंप दिया।
मुकदमे में खुदीराम को फाँसी की सजा घोषित की गयी। अततः 11 अगस्त, 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गये। तब उनकी आयु मात्र 18 वर्ष 8 माह और 8 दिन थी। जहां वे पकड़े गये, उस पूसा रोड स्टेशन का नाम अब खुदीराम के नाम पर रखा गया है।
लेकिन उसके बाद आया एक नया मोड़। अक्सर आप उन्हें सड़क से संसद तक आज़ादी की ठेकेदारी लेते हुए देखेंगे और उनके ही वंशजो के मुँह से सुनेगे की वो ना होते तो देश आज़ाद नहीं होता . उन्होंने किताबों में जो चाहा वही लिखवाया और देश गाने गुनगुनाता रहा की मिली थी आज़ादी हमें बिना खड्ग बिना ढाल पर इस गाने की आड़ में तो तमाम अपराध छिपा लिए गए जो अगर जनता के सामने आ जाएँ तो आज़ादी के तमाम ठेकेदारों को शर्मिंदा होना पड़ जाएगा . ऐसी ही एक घटना है भारत के स्वतंत्रता समर की सबसे छोटी लेकिन बेहद विस्फोटक चिंगारी अमरता प्राप्त खुदीराम बोस के बलिदान के बाद की।
विदित हो की जो कांग्रेस जवाहर लाल नेहरू को आज़ादी के प्रमुख स्तम्भों में से एक बताती है उन्होंने खुली सभा में सार्वजनिक रूप से अमर बलिदानी खुदीराम बोस जी के महानतम बलिदान को तब अपमानित किया था जब वो बिहार के मुजफ्फरपुर दौरे पर थे . इस वीर बलिदानी के स्मारक का निर्माण तक नहीं करवाया गया और मजबूर हो कर जनता ने अपने पैसे से खुदीराम बोस की प्रतिमा का निर्माण किया . इस निर्माण के बाद लम्बे समय तक उद्घाटन की बाट जोहती इस वीर की प्रतिमा का जब उद्घाटन का समय आया तो जवाहर लाल नेहरू जो उस समय देश के प्रधानमंत्री थे ने एक बेहद ही निंदनीय कार्य किया था।
असल में दिसंबर 1949 में जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु मुजफ्फरपुर में पहले पॉलिटिकल कांफ्रेस में भाग लेने आये तो उन्हें प्रतिमा के अनावरण और बलिदान स्थल के उद्घाटन के लिये आमंत्रित किया गया. जवाहरलाल नेहरु ने अमर बलिदानी खुदीराम बोस की प्रतिमा और बलिदान स्थल का उद्घाटन करने से साफ़ साफ़ मना कर दिया और खुदीराम बोस को खूनी करार दे दिया . उन्होंने साफ़-साफ़ कहा की वो ऐसे किसी भी व्यक्ति के किसी भी कार्य का समर्थन नहीं कर सकते न ही उसको सम्मान दे सकते हैं जो किसी भी प्रकार की हिंसा में लिप्त रहा हो। जवाहर लाल नेहरू के इस कथन ने उनके मंगल पांडेय से ले कर चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह , सुभाष चंद्र बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, राजगुरु आदि के लिए उनके मन में छिपे भाव उजागर कर दिए थे क्योकि ये सभी आज़ादी के वो महायोद्धा थे जिन्होंने आज़ादी के लिए रक्त की होली खेली थी। अफ़सोस रहा की उन्ही की श्रेणी में शमिल इस मात्र १८ वर्ष कुछ माह के योद्धा का इस प्रकार से अपमना किया गया . एक तथ्य और भी ध्यान देने योग्य रहा की दिल्ली की निर्भया के बलात्कारी को नाबालिग ठहराने के लिए तमाम लोगों ने अपनी मशक्क्त तक कर डाली और आखिर उसको नाबालिग ठहरा कर सिलाई मशीन तक दे कर विदाई करी लेकिन आदाज़ी के इस अमर पुंज के लिए किसी ने भी नाबालिग आदि का प्रयास नहीं किया और जो जैसा अंग्रेजों ने चाहा वैसा किया था और आख़िरकार ये योद्धा अमरता को प्राप्त हुआ जब उसके हाथ में भगवान कृष्ण का मानवमात्र के लिए आदेश श्रीमद्भागत गीता हाथ में थी।
भारत की वर्तमान दशा केवल दिखावा मात्र रह गई है देश का पूरा कन्ट्रोल नेताओं के हाथ में है और नेता केवल कुर्सी के लिए माथापच्ची पर जुटे है। आज हर जगह गरीब, कमजोर को शोषित किया जा रहा है। देश कहां जा रहा है उससे किसी को सरोकार नही है। जनता भी केवल फर्जी देशभक्ति दिखाती है जबकि सच में जनता भी जुगाड ढूढ रही है। देश के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वाले कभी यह कल्पना न किये होंगे कि हमारे देश के लोग इस आजादी को यूं ही गवां देंगे।