पुलिस एक शब्द जो हर मामले में अपने आप जुड़ जाता है। आम जिन्दगी के हर पहलू में यदि पुलिस शब्द न जुड़े तो लगता है जैसे कुछ होने वाला ही नहीं है। कही पर चोरी, डकैती, लूट या किसी भी प्रकार का अपराध हुआ है तो जेहन में सबसे पहले गूंजने वाला शब्द पुलिस ही होता है। किसी घर में पति—पत्नी, भाई—भाई का झगड़ा हुआ तो सबसे पुलिस शब्द ही आता है। यानि जीवन के हर पहलू पर यदि किसी को लगता है कि अब उसे न्याय चाहिये तो पुलिस के पास जाना ही होगा। इसके बावजूद भी सबकी निगाहों में यदि कोई सबसे बुरा है तो वह पुलिस ही है। यानि हमें पुलिस का साथ भी चाहिये और यदि हम संतुष्ट नहीं हुये तो पुलिस को कोसने से भी पीछे नहीं हटेंगे। ऐसा लगता है जैसे हमारी सारी समस्याओं का निदान पुलिस है और निदान नहीं हुआ तो समस्याओं की जड़ भी पुलिस ही है।
सड़क पर वाहनों का आवागमन हो रहा है। उसी में कोई युवक अपनी नई गाड़ी को लेकर फर्राटे भरते हुये निकल गया। पीछे से कोई न कोई बोल ही देता है कि देखिये ऐसे गाड़ी चलायेगा तो मरेगा ही। खुदा न खास्ता आगे चलकर वहीं युवक किसी वाहन की चपेट में आ गया और उसकी मृत्यु हो गयी फिर उस युवक को कोसने वाले वहीं लोग सड़क को जाम कर देंगे। पुलिस के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर देंगे। तब मीडिया को भी पुलिस की अवैध वसूली दिखने लगेगी। लबोलुआब यह कि लोगों को मौका चाहिये पुलिस को कोसने का, भले ही उसकी गलती हो या न हो।
इसके अलावा राजस्व संबंधित किसी भी मामले को लेकर या सिविल मामलों यानि आपसी झगड़े में सबसे अधिक मामले पुलिस के पास आते हैं। राजस्व का मामला सबसे अधिक पेचीदा होता है। इस मामले से पुलिस का लेना देना तभी होता है, जब लोग आपस में लड़े झगड़े और शान्ति व्यवस्था प्रभावित हो। आमतौर पर लोग ऐसे विवाद होने पर सीधे एसपी या डीएम तक अपनी शिकायत लेकर पहुंच जाते हैं। उच्च अधिकारी भी अपनी सूझबूझ का परिचय न देकर सीधे मामला संबंधित थाने को भेज देता है। सोचने वाली बात है कि ऐसे मामलों में पुलिस क्या कर सकती है। अधिक से अधिक दोनों पक्षों को समझा बुझा सकती है या फिर विवाद की स्थिति में दोनों पक्षों के खिलाफ शांति भंग की कार्रवाई कर देती है।
जबकि राजस्व के मामले सीधे राजस्व विभाग से जुड़े होते हैं। एसडीएम, तहसीलदार, नायब और लेखपाल की लापरवाही का खामियाजा सीधे पुलिस को भुगतना पड़ता है। यदि राजस्व अधिकारी चाहें तो ऐसे मामलों में गंभीरता दिखाकर बिना समय गंवाये मामले का निपटारा कर दें, लेकिन ऐसा होता नहीं है। तहसील का चक्कर काटते काटते फरियादी की चप्पल घिस जाती है, लेकिन जल्दी कोई सुनने वाला नहीं होता है। परिणाम यह होता है कि दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ता जाता है और मारपीट से लेकर हत्या तक की नौबत आ जाती है। सोचनीय बात है कि ऐसी घटनाओं की नींव रखने वाले राजस्व विभाग को गालियां नहीं मिलती बल्कि पुलिस विभाग के उपर सारा दोष मढ़ दिया जाता है।
आजकल वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष अपनी फरियाद लेकर अगर कोई फरियादी राजस्व या सिविल मामलों को लेकर जाता है तो वरिष्ठ अधिकारी उसी को सही मानकर सख्त कार्यवाही का आदेश देते हैं! जिसके चलते कई बार पुलिस बिना किसी न्यायालय के आदेश के निर्माण कार्य रुकवाती है व गिरफ्तारी करती है, जिसमें कई बार दुर्घटना होती है। ऐसे में पुलिस के सामने विकट समस्या होती है कि यदि वह अपने अधिकारी की बात न माने तो अनुशासन हीनता और मानें तो किसी न किसी पक्ष के साथ अन्याय करना ही पड़ेंगा। थानों में इस समय पूरे दिन नाली, खड़ंजा, चकमार्ग , शौचालय निर्माण करवाना व रुकवाना, तहसील दिवस थाना दिवस, पैमाइस यही चलता रहता है। अपराध रोकने और कानून व्यवस्था को मजबूत करने का जिम्मा निभाने वाली पुलिस मियां—बीबी के घरेलू झगड़े तक निपटाने में व्यस्त है।
पुलिस को उसका जो वास्तविक काम है उसे करने नहीं दिया जा रहा। अपराधियों की निगरानी, गिरफ्तारी, न्यायालय में मुकदमों की पैरवी कर उनको सजा कराना, अभिलेखी करण आदि पुलिस का मूल कार्य उपरोक्त कारणों से कहीं पीछे चला गया। पुलिस अपने मूल कार्य जो उनको पुलिस एक्ट और रेगुलेशन के अनुसार करना चाहिए नहीं करने दिया जा रहा और अनर्गल कार्य मे फंसा कर पुलिस को ही बदनाम किया जा रहा है। दिन भर थानों में अहस्तक्षेपीय अपराधों पर ही कार्य होता है, जबकि कानूनी रूप से पुलिस को इन मामलों में संज्ञान में लेने की मनाही है।
पुलिस यदि इमानदारी से अपना काम नहीं कर पाती है और कहीं न कहीं गलत करने के लिये बेबस होती है तो उसमें एक पक्ष यह भी है कि पुलिस राजनैतिक दबावों से भी त्रस्त है। यदि कोई चोर, उचक्का, छेड़खानी करने वाला पकड़ा जाता है या फिर मारपीट करके पुलिस के पास आता है तो वह किसी न किसी राजनैतिक दल का नेता या कार्यकर्ता हो जाता है। सत्ता पक्ष का है तो सरकार बनाने वालों का शोषण करने का आरोप और विपक्ष का है तो बदले की राजनिती में प्रताड़ित करने का आरोप। यानि दोतरफा मार केवल पुलिस विभाग के उपर। अब पुलिस भी क्या करे, पांच साल बाद सरकार बदलनी है तो सबकी सुननी ही पड़ेगी और थाने स्तर से न सुनी जायेगी तो बड़े साहब का फोन घनघना ही जायेगा। चाहे अनचाहे पुलिस को राजनीतिक गुलाम भी बनना पड़ता है।
पुलिस के पास आजकल सबसे अधिक मामले राजस्व विभाग के ही आते हैं, लेकिन राजस्व विभाग से जुड़े अधिकारियों और कर्मचारियों पर आम जनता अंगुली नहीं उठाती है। कोई भी यह नहीं कहता कि जमीन विवाद में जो घटना हुई उसके पीछे राजस्व विभाग के लोग भी दोषी हैं। उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिये, लेकिन आजतक किसी राजनीतिक दल या संगठन ने ऐसे मामलों में राजस्व विभाग के खिलाफ खड़े होने की जुर्रत नहीं दिखायी। सबके लिये सबसे आसान पुलिस विभाग है, चाहे उसके खिलाफ प्रदर्शन करो, चाहे सड़क पर खड़े होकर उसे गाली दो। कितनी कोशिशों के बाद मिली वर्दी को उतार देने की धमकी देना तो टुच्चे नेताओं की आम बात हो गयी है।
राजनैतिक, सामाजिक और अधिकारिक दबाव को झेलते हुये भी आम जनता के लिये 24 घंटे दौड़ने वाला पुलिस कर्मी भी इसी समाज से निकला है। वह भी किसी का बेटा, किसी का पति और किसी का भाई है। उसका भी अपना परिवार है। उसके भी अपने त्योहार हैं, लेकिन आम पब्लिक अपने परिवार के साथ सुरक्षित रहे, इसलिये अपने परिवार को समय नहीं दे पाता। आम जनता अपने त्योहार को अपने परिवार के साथ सुरक्षित मनाये, इसलिये अपने त्योहार पर अपने परिवार से दूर हो जाता है। पुलिस अपराधी नहीं है जो किसी की हत्या कर डाले। दुर्घटनायें होती हैं, यह एक संयोग था कि गोपीगंज थाने में एक मौत हो गयी। मामला राजस्व का था, लेकिन वे लोग पुलिस के पास गये थे। पुलिस का काम था शान्ति स्थापित करना, किसी की हत्या करना नहीं। फरियादी बीमार था, उसका इलाज चल रहा था। उससे माहौल सहन नहीं हुआ और पुलिस भी वास्तविक स्थिति समझ नहीं पायी और उसकी मौत हो गयी।
इस मौत से पुलिस पर सवाल खड़े हो गये। एक परिवार का सहारा छिन गया। मीडिया, जनप्रतिनिधि और आम लोगों ने अपना काम किया। पीड़ित परिवार की लड़ाई लड़ी। उसे आर्थिक मजबूती दिलाने के लिये संघर्ष किया। प्रशासन ने भी अपना काम किया। प्रभारी कोतवाल को लाइन हाजिर करके जांच बैठा दी। इस मामले में इससे अधिक राजनीति नहीं होनी चाहिये थी। लेकिन लोगों को अपनी खुन्नस निकालने का मौका मिला और पुलिस को खलनायक बना दिया। उसे हत्यारों की तरह पेश किया जाने लगा। माहौल ऐसा बन गया जैसे थाने जाने वालों के लिये पुलिस हर समय धारदार हथियार लेकर बैठी रहती है। राजनीतिक दबाव में दर्ज हुये हत्या के मुकदमें के बाद पीड़ित परिवार का मुद्दा ही गुमनामी में खो गया।
सोचने वाली बात है कि ऐसे मामलों में लोग खुद अपनी संवेदना खो देते हैं। सोशल मीडिया के दौर में लोग खुद न्यायाधीश बन जाते हैं। एक झटके में पुलिस और कानून पर से विश्वास खो देते है। जिसके रहते हमें सुरक्षा का अहसास होता है और हम घर से बाहर जिसकी सुरक्षा के भरोसे निकलते हैं उसी के उपर अंगुली उठाना शुरू कर देते हैं। यहीं नहीं इस सियासत में लोग पीड़ित पक्ष के लाभ हानि को दरकिनार करके अपनी राजनीतिक गोटियां खेलनी शुरू कर देते हैं और मूल मुद्दे से खुद भटक कर दूसरों को भी भटकाने में लग जाते हैं। सियासत भी जरूरी है कीजिये, लिखना भी जरूरी है लिखिये, लेकिन किसी के साथ भी पक्षपात नहीं होना चाहिये। एक को इंसाफ दिलाने के प्रयास में दूसरे के साथ अन्याय नहीं होना चाहिये। सभ्य समाज का निर्माण तभी होगा जब समाज में सभ्य लोग होंगे। समाज में संवदेनशील लोग होंगे। असभ्यता, आवेश और संवेदनहीनता में सिर्फ नुकसान ही होता है, वह नुकसान चाहे जिसका हो।
नोट: यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। यदि किसी को शिकायत या सुझाव देना है तो मुझे दे सकते हैं। हरीश सिंह व्हाट्सअप नंबर — 7860754250