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जननायकों और उनके मातहतों के भ्रष्टाचार में जकड़ा लोकतंत्र

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लोकतंत्र आज अपने वास्तविकता को ढूंढ रहा है, जन नायकों और उनके मातहत सहयोगियों द्वारा पोषित और संरक्षित भ्रष्टाचार, उग्रवाद, आतंकवाद, हिंसा, वंशवाद, परिवारवाद, पूँजीपति वाद, राजनीतिक अधि नायकों पर निरंकुश, शासकीय दुर व्यवस्था, प्रेस की निष्पक्षता का लोप, अशिक्षा एवं निरक्षरता लोकतंत्र के विनाशकारी शत्रु बने हुए है।

राजनीतिक क्रियाकलाप में लोगों की सहभागिता ही लोकतंत्र का मूल तत्त्व है, लेकिन पूंजीपति, और बाहुबली धनबल का प्रयोग करके लोकतांत्रिक चुनावों को जीत जाते है और फिर मतदाताओं पर लुटाए पैसों के साथ अपने कार्यकर्ताओं तथा वित्त प्रदाताओं को परिपूर्ण करने में लोकतंत्र का हनन और दोहन करने लगते हैं। लोकतंत्र के संवर्धन में दो प्रमुख विशेषताएं होने चाहिए। पहला निर्णय लेने की प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण ताकि उन निर्णयों से प्रभावित होने वाले लोगों तक नीतियां कार्यान्वित की जा सके।

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दूसरा नीति-निर्धारण में सामान्यजन की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी। सहभागिता सिद्धान्त के अनुसार लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ प्रत्येक व्यक्ति की समान सहभागिता है, न कि मात्र सरकार को स्थायी बनाए रखने के लिए लोकतंत्र को ही बेच दिया जाए। सच्चे लोकतंत्र का निर्माण तभी हो सकता है जब नागरिक देश पर अपना सब कुछ न्योछावर कर निस्वार्थ और निष्कपट भाव से राजनीति में सक्रिय हों और सामूहिक समस्याओं को निरंतर उठाया करें और उसका निर्मूलन करते रहें। जनमानस की सक्रिय सहभागिता इस लिए आवश्यक है ताकि सभी राजनीतिक दलों में अधिक खुलापन और उत्तरदायित्व का प्रादुर्भाव हो सके।

नीतिगत निर्णय लेने तक सरकार को सीमित नहीं करना चाहिए नहीं तो लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप का दोहन होता रहेगा और पूँजीपति और दलाल सक्रियता से नियमों की धज्जियां उड़ाते अपने अनुसार क्रियान्वित कराते रहेंगे जिससे चंद लोगों को फायदा होगा और बहुत बड़ा समाज वंचित रह जायेगा। उदाहरण के रूप में यदि देश में कानून और नियम सभी को बराबर है तो सरकारी कर्मचारी व निजी कर्मचारियों कानुन और नियमों में भिन्नता क्यों है? यदि सभी वर्गों और नागरिकों को समान रूप से वेतन,भत्ते और टैक्स का प्रावधान हो तो यह जातिवाद, आरक्षण, नक्सल और आतंकवाद की जड़ें खत्म हो जायेंगी और अराजकता पर अंकुश लग सकता हैं। यदि लोकतांत्रिक अधिकार दो अलग अलग विचारों से कागज के पन्नों अथवा संविधान के अनुच्छेदों तक ही सीमित रहे तो उन अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता यहीं कारण है हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार और नियमों की अनदेखी कर शोषण व्यापक रूप से फैला हुआ है।

ऐसी स्थिति में नीतियां प्रभावी ढंग से काम नहीं कर सकेंगी। यही कारण है जिस लोकतंत्र में, चाहे वह राजनीतिक हो या आद्यौगिक हो धनाढ्य वर्ग का वर्चस्व होता है वह नागरिकों के लिए संतोषप्रद नही होता और आमलोग सहभागिता उस वर्ग के द्वारा समाप्त कर दिया जाता हैं। आज के औद्योगिक और प्रौद्योगिक परिवेश में शिक्षा का स्तर ऊँचा हो गया है परंतु शोषण का शिकार बना हुआ है और बौद्धिक तथा राजनैतिक चेतना से संपन्न समाज में लोगों के बीच की खाई बनी हुई है। इसलिए कार्यक्षमता और विकास की दृष्टि से लोकतंत्र लुप्तप्राय हो चला है। सच पूछा जाए तो सत्ता की भूख ही अत्याचार का मूल कारण है। लोकतंत्र में नागरिकों को स्वाभिमान और देशप्रेम की तटस्थता का अभाव, अज्ञानता और अलगाव ही राजनितिक परिवेश गंदा किया हुआ है और लोकतंत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं करता है।

आज हिंदुस्थान क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से विशालकाय हैं और यह संभव नहीं है कि सारे नागरिक रोजमर्रा के राजनीतिक विमर्श या नीति निर्धारण में शामिल हों, फिर भी यदि कुछ बातों को स्वीकार कर लिया जाए तो लोकतंत्र में जनसामान्य की सहभागिता निश्चित रूप से बढ़ाया जा सकता हैं —

(१) यदि राजनीतिक दल “प्रत्यक्ष लोकतंत्र” के सिद्धान्त के अनुसार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत जनमानस के सुझावों से ही ऐसी कार्यपद्धती बनाया जाय जिसमें न्याय प्रणाली, सरकारी कार्यप्रणाली सरल और पारदर्शी बनाना, कानून व्यवस्था में राजनीतिक पटाक्षेप का निर्मूलन, सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों के बीच वेतन, भत्तों तथा सभी फायदों को समानता से लागू करना, संवैधानिक कानून में दुर्भावनापूर्ण भेदभाव मिटाना आदि।

(२) राजनीतिक दल सच्चे अर्थ में संसदीय ढाँचे के अन्तर्गत कार्य करते हों।

(३) यदि राजनीतिक दल के क्रिया कलाप श्रमिक संगठनों, स्वैच्छिक संस्थाओं तथा ऐसे ही अन्य निकायों को प्रभावित ना करते हों, लोकतंत्र को असली जामा पहनाना उतना आसान नहीं है जितना ऊपरी तौर पर प्रतीत होता है।

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