प्रियंका गाँधी का बहुप्रतीक्षित सक्रिय राजनीति में पदार्पण हो चुका है। उनको कांग्रेस में महासचिव का पद मिलने के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार मिला है। जाहिर है देश राजनीतिक पटल पर प्रियंका के उदय से सबसे ज्यादा तीखी प्रतिक्रिया संस्कारों की पक्षधर पार्टी से ही होगी और हुई भी। बहरहाल अब जब प्रियंका सक्रिय रूप से कांग्रेस के लिए एक क्षेत्र विशेष की नीति नियंता बन ही गयी हैं, उनके लिए राह आसन नहीं है। प्रियंका के साथ सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष उनके पति राबर्ट वाड्रा को लेकर जुड़ा है और विपक्ष वाड्रा के बहाने उन पर सीधा निशाना साधेगा। राजस्थान और हरियाणा में जमीन घोटालों को लेकर वाड्रा केंद्र में रहे हैं और यह अलग बात है की 56 महीने के शासन में सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा अब तक वाड्रा के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की गयी है। लेकिन जैसा इन दिनों चलन बन गया है कि कार्य के बजे निजी हमले ज्यादा करो विशेषकर भारतीय जनता पार्टी ने तो व्यक्ति विशेष पर निजी हमलों के मामले में विशेषज्ञता हासिल की हुई है, प्रियंका को बेहद निजी हमलों के लिए तैयार रहना होगा और शायद वे हैं भी।
यह सच है कि उत्तर प्रदेश में पिछले चुनाव में मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की झोली भर दी थी। भाजपा के प्रचार प्रभारी और प्रधानमंत्री पड़ का चेहरा नरेंद्र मोदी का वाराणसी से जाकर चुनाव लड़ना उप्र के पूर्वांचल को साधना था। अब प्रियंका के बहाने कांग्रेस ने पूर्वांचल की राजनीति का आकर्षण बढ़ा दिया है। चैनलिया चतुर अभी से देश का मिजाज बताने और राजग को सबसे आगे रखने के अपने एजेंडे पर काम करते हुए भिड़े हुए हैं। वे मतदाता के दिमाग में मोदी से बेहतर कोई नहीं संप्रेषित करने के काम में लगे हैं। वास्तविकता के धरातल पर सब कुछ वैसा नहीं है जैसा चैनल या कुछ कारोबारी अख़बार दिखाना समझाना चाहते हैं। देश का मूड देर से सही भाजपा प्रचारित ‘पप्पू’ ने समझ लिया है और उसी के तहत कांग्रेस की दिशा तय हो रही है।
पूर्वांचल में 32 लोकसभा सीटें हैं। 2009 में जब कांग्रेस ने उप्र में 21 लोकसभा सीटें जीतीं थी तब भी उसे सबसे ज्यादा 15 सीटें पूर्वांचल और अवध क्षेत्र से थीं । 2014 में कांग्रेस ने दो ही सीटें जीतीं लेकिन उसका प्रदर्शन पूर्वांचल में बेहतर था। 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खाते में 7 सीटें आईं थी, जिनमे से चार पूर्वी यूपी से थी और तीन पशिचम से। इसके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और वाराणसी की सीट भी है, जो कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गढ़ है। इस लिहाज से भी पूर्वांचल कांग्रेस के लिए अहम है। उल्लेखनीय यह भी है कि 2018 के उपचुनाव में फूलपुर और गोरखपुर सीटें भाजपा हार गई थी। यहाँ इनका उल्लेख करने का ख़ास मकसद यह है की इन दोनों ही सीटों पर क्रमश: सूबे के उप-मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री ने 2014 में चुनाव जीता था।
मोदी लहर पर सवार होकर भाजपा का सहयोगी अपना दल भी वह दोनों सीटें जीतने में कामयाब रहा जो उसने लड़ी थीं। 22.2 फ़ीसदी वोट के साथ समाजवादी पार्टी पांच सीटें जीतने में कामयाब रहीं। पार्टी की सभी पांच सीटें मुलायम सिंह यादव के परिवार को ही मिली थीं। कांग्रेस को 7.5 फ़ीसदी वोट मिले और पार्टी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी की सीटें जीतीं। बसपा 19.6 फ़ीसदी वोट पाकर भी कोई भी सीट हासिल नहीं कर पाई। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत इतनी बड़ी थी कि भाजपा (और सहयोगी) का वोट शेयर 26 संसदीय सीटों में सपा, बसपा और कांग्रेस के सम्मिलित वोट शेयर से भी ज़्यादा था। छह-सात संसदीय क्षेत्रों में इन तीनों मुख्य पार्टियों का वोट शेयर भाजपा को मिले वोट से थोड़ा ही ज़्यादा था। अगर तीनों दलों ने गठबंधन करके भाजपा के ख़िलाफ़ संयुक्त उम्मीदवार उतारे होते तो भी भाजपा 30 लोकसभा सीटों पर ही जीत पाती। तब भारतीय जनता पार्टी 17.5 फ़ीसदी से 42.3 फ़ीसदी वोट शेयर हासिल करने में कामयाब इस वजह से हुई क्योंकि ऊंची जातियों के मतदाता बहुत तेज़ी से भाजपा के पक्ष में लामबंद हुए और अन्य पिछड़ी जातियों, बहुत हद तक निचली पिछड़ी जातियों में और ग़ैर जाटव दलितों में से दलित वोट इसकी ओर खिसके थे। लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद जो घटनाएँ हुई हैं विशेषकर गोरक्षा के नाम पर वर्ग विशेष पर हमले और दलित उत्पीड़न की घटनाओं ने भाजपा के उस वोटर को निराश किया है जो सबका साथ सबका विकास के नारे पर जाति से ऊपर उठकर भाजपा से जुड़ा था। कांग्रेस ने मोदी के सम्मोहन के खिलाफ प्रियंका को उतारकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा को घेरने की कोशिश की है।
अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात की जाये तो पिछले वर्ष ही कैराना में हुए उपचुनाव ने वर्तमान केन्द्रीय सत्ता को स्पष्ट सन्देश दे दिया था। इस उपचुनाव में राष्ट्रीय लोक दल ने 2014 की अपनी गलती को सुधारा था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय लोकदल जाट मतदाताओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय रहा था। रालोद ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और जाट वोटों का ध्रुवीकरण होने की उम्मीद की थी लेकिन यह गठबंधन जाट-वोट पाने में भी नाकाम रहा। जाट वोट उल्लेखनीय संख्या में भाजपा गठबंधन की ओर चले गए थे। चुनाव बाद के सर्वेक्षणों से पता चला कि जाट मतदाताओं में से 77 फ़ीसदी ने भाजपा गठबंधन और सिर्फ़ 13 फ़ीसदी ने कांग्रेस-आरएलडी के पक्ष में वोट दिया था। लेकिन अब स्थिति अलग है। रालोद सपा-बसपा के साथ है। पेंच यह है कि क्या उप्र में सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा के बीच क्या कांग्रेस अपने लिए जगह बना पायेगी? इसी प्रश्न का उत्तर प्रियंका को राजनीति में स्थापित करेगा। वे वाकपटु हैं, सामान्य जनमानस से घुलने-मिलने की कला है उनमे। लेकिन यह भी एक सत्य है कि प्रियंका को लेकर जो अति उत्साह कांग्रेस में है वह घातक भी हो सकता है। क्योंकि प्रियंका अभी अपरीक्षित अर्थात अनटेस्टेड मिसाइल भर हैं। अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की जीत से उनका आकलन गलत होगा।