विकृत विकास से मरती हुई सभ्यता बनता एक समृद्ध प्रान्त
—- उमेन्द्र दत्त
‘पंजाब’ कहते ही हरित क्रांति से समृद्धि पाने वाले एक प्रदेश का चित्र उभरता है। लहलहाते खेतों में दौड़ते ट्रेक्टर , हार्वेस्टर कंबाइन और आधुनिक यंत्र तथा खेती रसायनों का छिड़काव करते किसान पंजाब के स्वाभाविक चित्र हैं। इन स्वाभाविक चित्रों में बहुत कुछ ऐसा भी है जो आँखों से ओझल कर दिया गया। पिछले चालीस वर्षों से पंजाब की विकास गाथा का खूब प्रचार हुआ. सरकार किसी की भी रही हो , विकास के धुल लगातार उसी प्रकार बजाय गए। कभी ‘अविकसित’ या ‘बीमारू’ प्रदशों को पंजाब जैसा विकास करने की खूब प्रेरणा दी गई। इस विकास-दृष्टि ने समग्र रूप से देखने और समझने हमारी क्षमता को खंडित करके हमारी जीवन-दृष्टि को भी टुकड़ा टुकड़ा कर दिया है। आज अगर हम आज समग्र दृष्टि से देखने का साहस करें तो हमे यह विडंबना समझ आयगी कि पिछले चालीस – पचास वर्षों से पोषित हरित-क्रांति और विवेकहीन विकास ने सचमुच में संपन्न एक प्रान्त को आज वस्तुतः एक मरती हुई सभ्यता बना दिया है. यह पढ़ने सुनने में क्रूर लगे परन्तु पंजाब की वर्तमान परिस्थिति में वे तमाम लक्षण मौजूद हैं जो पंजाब को एक मरती हुई सभ्यता बनाते हैं।
अपनी परम्परा एवं सभ्यता के बारे यह विशेषण प्रयोग करना सरल नहीं, मन कांपता है यह सोच कर, तन कांपता है और लेखनी भी। फिर भी यह समय का सत्य है जो दिवार पे उकरा हुआ है बस आप उसे पढ़ने का साहस करें. किसी सभ्यता की निरंतरता के लिए राजनीतिक स्थिरता और शासन से भी पहले की पूर्व-अहर्ता है – सुरक्षित आहार यानि भोजन और पानी , सुरक्षित पर्यावरण एवं स्वस्थ पारिस्थितिकी और निरोग एवं स्वस्थ समाज। आज के पंजाब में यह तीनों ही अहर्ताएं लगभग नष्ट हो चुकी हैं।
आज पंजाब में या तो पानी है नही है तो विषाक्त। पंजाब के ९५% गांव पय जल संकट ग्रस्त ग्राम घोषित हैं। ८०% से ज्यादा विकास खंड भू-जल का अत्याधिक शोषण करने से ” डार्क-जोन” बन चुके हैं. ताज़े पानी का एक भी स्रोत ऐसा नही जिसका पानी पिया जा सके। बिना आर ओ से साफ़ किए पानी आप पी नही सकते। पानी में नाइट्रेट्स से ले कर तमाम भारी तत्त्व यानि हैवी मेटल्स और ज़हरीले खेती रसायन मौजूद हैं. पानी जीवन देने वाला नही मृत्यु के पर्याय कैंसर और तमाम रोग देनेवाला बन गया है. पंजाब आज बे-आब होता जा रहा है. फिर बे-आब हो चुका पंजाब बे-आबाद भी तो होगा।
अभी तक हुए अध्येयन बताते हैं कि पंजाब की कृषि उपज में कीट-नाशकों की भारी मात्रा मौजूद है. हालात यह है कि गेहूं के सबसे बड़े उत्पादक प्रदेश पंजाब के हर बड़े शहर में आपको करियाने की दुकानों और आटा चक्कियों पर बोर्ड मिलेंगे जो बताते हैं कि यहाँ मध्य प्रदेश का गेहूं और आटा मिलता है वो भी सामान्य गेहूं से दुगने दाम पर . अब अगर पंजाब के लोग ही पंजाब का उगाया हुआ अनाज खाने -खरीदने को राजी नहीं तो इसे क्या संकेत माना जाए ? पंजाब की समृद्धि का एक खोखलापन।
पिछले पांच दशकों से हरित क्रांति जनित विकास का यह मार्ग एक नया धर्म ही बना दिया गया है। ऐसी क्रम में भाखड़ा नांगल बाँध को नए धर्म का मंदिर घोषित कर दिया गया था। फिर इस नए धर्म प्रति वैज्ञानिकों, किसानों, राजनेताओं , योजनाकारों से ले कर अफसरशाही, बुद्धिजीवी, लेखक और आम जनता के बीच बहुत सुनियोजित प्रयास से बड़ी आस्था और श्रद्धा जगाई गई। इस प्रकार की प्रायोजित आस्था एवं भक्ति विवेकहीन ही होतीं हैं जिनमें प्रश्न , प्रति- प्रश्न या शंका व्यक्त करना अधर्म माना जाता है। यह विकास का भेड चाल-धर्म है. विकास का मार्ग जब भेड चाल से चलाया जाए तो उसका परिणाम अंधानुकरण करती भेड़ों के झुंड के किसी गहरी खाई में गिरने से भिन्न कैसे हो सकता है?
इसी भेड़ चाल के चलते हमारे सामने घटित होते महाविनाश से हम आँखें मूंदे बैठे हैं। आज वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि पंजाब स्वास्थ्य के अभूतपूर्व संकट में है. कैंसर महामारी का रूप ले चुका है। दक्षिणी पंजाब का मालवा क्षेत्र राज्य की कपास पट्टी है वो आज कैंसर पट्टी बन गया है. बठिंडा से बीकानेर जानेवाली किसी पैसिंजर रेल गाड़ी का नाम ही अगर कैंसर ट्रैन पड़ जाए तो इसे क्या समझा जाये। विकृत विकास के स्वाभाविक पड़ाव। कैंसर की विकरालता स्थिति यह है कि राज्य में नित नए कैंसर अस्पताल खोलने की बात हो रही है. प्रति दिन कैंसर से होनेवाली मौतों का ग्राफ ऊपर जा रहा है.
इसी भेड़ चाल के चलते हमारे सामने घटित होते महाविनाश से हम आँखें मूंदे बैठे हैं। आज वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि पंजाब स्वास्थ्य के अभूतपूर्व संकट में है. कैंसर महामारी का रूप ले चुका है। दक्षिणी पंजाब का मालवा क्षेत्र राज्य की कपास पट्टी है वो आज कैंसर पट्टी बन गया है. बठिंडा से बीकानेर जानेवाली किसी पैसिंजर रेल गाड़ी का नाम ही अगर कैंसर ट्रैन पड़ जाए तो इसे क्या समझा जाये। विकृत विकास के स्वाभाविक पड़ाव। कैंसर की विकरालता स्थिति यह है कि राज्य में नित नए कैंसर अस्पताल खोलने की बात हो रही है. प्रति दिन कैंसर से होनेवाली मौतों का ग्राफ ऊपर जा रहा है. कभी मालवा तक सीमित कैंसर का केहर आज एक के बाद एक इलाके को चपेट में ले रहा है।
प्रजनन स्वास्थ्य की तो और भी भयावह स्थिति है। अध्ययन बताते हैं कि राज्य में सतमाहे – अठमाहे यानि समयपूर्व जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ रही है। आज हर बड़े शहर में इन सतमाहे – अठमाहे बच्चों को रखने वाले ‘ इंक्यूबेटर ‘ वाले अस्पतालों की गिनती भी बढ़ रही है. इतना ही नहीं विनाश के संकेत बेहताशा रूप से बढ़ रहे भ्रूण-क्षरण ( स्पोटेनिअस अबॉर्शन एवं मिस कैरिज ) , मृत बच्चों का जन्म होना, जन्मजात मानसिक और शारीरिक विकलांगता यह सब एक पूरी पीढ़ी के आधे-अधूरे होने की बानगी है. यह अधूरापन अगली पीढ़ियों तक भी जा रहा है. जो पंजाबी समाज कभी अपने पौरुष के जाना जाता था उसकी बड़ी आबादी आज नंपुंसकता और शुक्राणू संबंधी रोगों से लड़ने को मजबूर है। विज्ञानं और प्रकृति की खंडित समझ ने खेतों में कीड़ों पर विजय पाने के लिए , कीड़ों समूल नाश करने की मंशा से कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग किया गया। इससे कीटों समूल नाश तो क्या होना था अलबत्ता मनुष्य का समूल विनाश होने की परिस्थिति अवश्य बन गईं है। प्रजनन स्वास्थ्य विशेषज्ञों एवं विभिन्न प्रसूति केन्द्रों तथा पैथोलॉजी लबों के आकड़ों के अनुसार पंजाब में सत्तर के दशक में पुरुषों के वीर्य में , एक बार वीर्यपात होने पर १२ करोड़ शुक्राणु होते थे वो आज आज ४ से ६ करोड़ ही रह गए हैं। यह पंजाब के सामूहिक -निर्वंशता की ओर बढ़ने के , मरती हुई सभ्यता बनने के स्पष्ट संकेत हैं. कभी बिमरुओं का आदर्श रहा पंजाब आज खुद बीमार प्रदेश है। जितने ज़हर पंजाब के पर्यावरण में घोल दिए गए हैं वे उन्मत्त बना दिए गए पंजाब को चुपचाप धीमें धीमें मृत्यु की और ले रहे हैं।
पूरे के पूरे गावं बिक्री पे लगने की परम्परा पंजाब से ही शुरू हुई थी। सन २००२ में बठिंडा जिले का हरकिशनपुरा गावं ने खुद को दिवालिया घोषित करके बिक्री लगा दिया था , फिर २००५ में मानसा जिले का मलसिंघवाला और २०१० में पटियाला का गावं मुल्लापुर सन्धारसी बिक्री पर लगे। इसके बाद और भी गावों ने यही रास्ता अपनाया। यह हरित क्रांति की समृद्धि के प्रपंच , उसके खोखलेपन और क्षणभंगुरता का परिचायक है। हरित क्रांति ने पंजाब को जो समृद्धि दी वह ना सिर्फ अल्पजीवी थी बल्कि वो बाढ़ की मानिंद चिरकालीन से सिंचित स्थाई सम्पदा भी साथ बहा ले गई। गावों में मकान कच्चे से पक्के हुए हैं पर क़र्ज़ और आत्महत्या भी आज का सच है. किसी गावं में अगर १०० किसानों के बीच पूछो कि क्या कोई किसान है जिसने अपने खेत को गिरवी नहीं रखा तो कोई नही मिलता जो हाथ खड़ा करे। आज पंजाब का किसान ४-५ चीज़ों को छोड़ सब कुछ शहर से लाता है. पंजाब में तीन दशक पहले करीब ५५ से लेकर ६५ प्रकार की शाक -सब्जियां, दालें , तिलहन, मसाले , फल आदि खेत -खलिहान से किसानों की रसोई तक जाते थे और आज यह गिनती ४-५ तक सीमित हो कर रह गई है । हरित क्रांति ने खेतिहर जैवविवधता और घरेलू आत्मनिर्भरता नष्ट की है. किसान को खेत और प्रकृति से तोड़ कर बाजार पर निर्भर बना दिया है। हरित-क्रांति के भारी मशीनीकरण और रासायनिककरण ने खेती से महिलाओं को तो जैसे देश निकला ही दे दिया हो. आज आपको कोई विरली महिला ही मिलेगी जो खेत जाती हो. यह खेती से सदियों पुराने पारिवारिक रिश्ते के टूटने का भी संकेत है, अब तो खेती के लोक गीत भी नै पीढ़ी की महिलायं भूल हैं। यह एक सांस्कृतिक क्षरण है. अपनी परम्परा से जड़ों के उखड़ने सरीखा। समूचे देश का पेट भरने के लिय ढेरों ढेर धान और गेहूं उगाने की बहुत बड़ी कीमत चुके पंजाब ने. यह विचित्र दुष्चक्र था जिसमें पिसने वाला स्वयं ही पिसने को उतावला बना दिया गया था। बुद्धि -हरण के दौर में अपनी प्रकृति और संस्कृति से विसंगत विकास के चौंधियाते राजमार्ग पर सरपट दौड़ने वाले पंजाब की यही नियति भी है.
अब समय आ गया है कि हरित क्रांति का समग्रता से विश्लेषण हो. उसके नफे -नुकसान का लेखा -जोखा हो। इसके लिय तटस्थ और निरपेक्ष बुद्धि चाहिय। हरित क्रांति को “धर्म” मानने वाले वैज्ञानिक और योजनाकार यह नहीं कर सकते। जिन लोगों ने और जिस विचार ने संकट उत्त्पन्न किया हो उन्ही से समाधान की अपेक्षा करना मूर्खता ही होती है. यह कार्य समाज को और किसानों को स्वयं करना होगा। खासकर जब हरित क्रांति के पहले संस्करण की गलतियों से बिना कोई सबक सीखे और बिना उसके दोषों की चर्चा किये और कोई बिना कोई सुधार किये उसे नए क्षेत्रों में लागू करने की बात की जा रही हो, तब जागरूक समाज को यह पहल करनी और भी जरूरी हो जाती है. हरित क्रांति और रासायनिक खेती से जो विनाश पंजाब में हुआ है वह पूर्वी भारत के प्रांतों में नही होना चाहिए। यह विनाश अगर रोकना है तो हरित क्रांति के विचार को, उसकी परिकल्पना को और उसके झूठे दावों को ध्वस्त करना होगा।
हरित क्रांति सिर्फ एक तकनीकी तंत्र , मात्र आर्थिक विचार नही है। यह एक बहु-आयामी अतिक्रमण भी है – यह साभ्यतिक , सांस्कृतिक, पर्यावरणीय एवं वैचारिक आघात है जिसने हमारी कृषि-परम्परा, आहार और भोजन संस्कृति , पारिस्थितिकी और जीवन – मूल्यों तक को उध्वस्त किया है. हरित क्रांति ने सबसे पहले किसान को उसकी विज्ञान -परम्परा , ज्ञान-धरोहर , प्रकृति और धरती से काटने का काम किया है. हरित-क्रांति ने प्रगतिशील खेती के नाम पर खेतीहर व्यापार करने वालों से ले कर किसानों तक में धन कमाने की एक ऐसी वासना जगाई जिसने सब विवेक , विचार और मूल्यों को तिलांजलि दे दी। जो ज्यादा धन कमाए वोही ज्यादा प्रगतिशील , वही आदर्श किसान और उसे ही पुरस्कार। सो जब धन कमाना ही प्रगतिशीलता माना गया तब किसान ने कितना ज़हर डाला, किस प्रकार डाला , धरती से कितना पानी निकाला , कितना पानी ज़हरीला किया , खेत को कैसे आग लगाई, कितने जीवों की हत्या की , कितने लोगों को ज़हर खिलाया यह सब प्रश्न तो गौण ही हो गए।
खेती सिर्फ और सिर्फ एक धंधा बना दिया गया। उसके संस्कार , उसमें अंतर्निहित अनुशासन, संयम और सरोकार सब बाजार की भेंट चढ़ गए। जैविक खेती के गांधी नाम से विख्यात वयोवृद्ध किसान भास्कर सावे के शब्दों में ” खेती धंधा नहीं, धर्म है ” पर हरित क्रांति की खेती का धर्म से कोई नाता नहीं. इस लिए वो धंधा और बाज़ारू धंधा बन के रह गई है. इस खेती में हिंसा, वासना, क्रूरता, प्रकृति का निर्बाध शोषण – अधर्म के सब तत्व है। जो अधर्म पर चलता है वो मानसिक और आत्मिक रूप से निर्बल होगा, विवेकहीन और धैर्यहीन होता है । ऐसा व्यक्ति फिर आत्महत्या करे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिय। आत्महत्या दुःखद ही है। फिर भी इस बात का विचार तो होना ही चाहिय कि देश में जिन किसानों ने आत्महत्या की है उनमें ज्यादातर हरित क्रांति अपनाने वाले किसान क्यों हैं ? यहाँ एक तथ्य उल्लेखनीय है कि पंजाब के जिन चार जिलों में ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग होता है , पंजाब में हुईं कुल किसान आत्महत्याओं में से ८०% उन्हीं जिलों में हुई हैं.
इस पृष्ठ भूमि से उपजे प्रश्नों का उत्तर तो खोजना होगा। अगर हम नही चाहते की कल को कोई बिहार, कोई झारखण्ड कोई आसाम पंजाब न बने तो यह कार्य शीघ्र अति शीघ्र करना होगा, अन्यथा हमारी आनेवाली पीढ़ियां हमें माफ़ नहीं करेंगीं।