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राजतंत्र में राजतिलक होता था, लोकतंत्र में आम चुनाव होता है- डाॅ.गिरीश कुमार वर्मा

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किसी ने सुहाग को नहीं देखा मगर मान लेते हैं कि मांग का सिंदूर सुहाग है। किसी ने गणपति को नहीं देखा लेकिन मान लेते हैं कि गोबर में गणपति विद्यमान हैं। किसी ने भारत माता को नहीं देखा है मगर मान लेते हैं कि भारत-वासियों की एक माता है। हर भारत वासी के पिता गांधी जी नहीं थे लेकिन सबने मान लिया कि वे भारत के राष्ट्रपिता हैं। इस प्रकार भारत में मान लेने की पुरानी परंपरा चली आ रही है। यहां मान लेना प्रमाणिक नहीं होता है। प्रमाणिकता के लिए जानना अति आवश्यक होता है। किसी विषय पर जानने के लिए मन में उठी जिज्ञासाओं को खोज शुरू हो जाती है और खोजी व्यक्ति सत्य तक पहुंच जाता है।

राजतंत्र में पुरोहित की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। जिस पौरुषवान व्यक्ति कि वह राजतिलक कर देता था। उस व्यक्ति को शासक मानने की समस्त नागरिकों के लिए वाध्यता होती थी। लोकतंत्र में पुरोहित की वह भूमिका नहीं होती है। इस तंत्र में अपने हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी समस्त नागरिकों की होती है। अत: योग्य नायक चयन का सारा भार उनके कंधों पर होता है। इसलिए अब नायक के चयन में जनता की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है।

वर्तमान चुनाव हमें अपने-अपने जनप्रतिनिधि चुनने का अवसर दे रहा है। भारत के समस्त नागरिकों के संसदीय जनप्रतिनिधियों का समवेत स्वर से हमारा प्रधानमंत्री बनेगा। प्रधानमंत्री की हैसियत बिल्कुल एक बस ड्राइवर की जैसी होती है। अच्छा बस चालक सही सलामत मंजिल तक यात्रियों को पहुंचा देता है। एक बुरा बस चालक अपनी चाल-ढ़ाल से यात्रियों को रूला देता है।

सामाजिक न्याय कोई शेयर मार्केट का कोई शेयर नहीं है जिसके भाव मांग और आपूर्ति के अनुसार धटते-बढ़ते रहते हैं। न्याय हर भारतीय नागरिक की गरिमा का रक्षा की अवधारणा है। इस अवधारणा पर हमला लोकतंत्र पर हमला है। न्याय वह सार्वभौमिक सत्य है जो ‘जियो और जीने दो’ के साश्वत मूल्यों पर आधारित है। मानवीय सभ्यता की रक्षा न्याय की परिकल्पना के बिना संभव ही नहीं है। जहां न्याय है, वहां मंगल है।

डाॅ• गिरीश कुमार वर्मा
उर्फ़ डंडा लखनवी

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